शर्मिला टैगोर: (हंसते हुए) नर्वसनेस इसलिए क्योंकि काफी समय से मैंने फिल्म में काम नहीं किया था। हालांकि मैं दूसरों कामों में काफी व्यस्त थी क्योंकि मैं सीबीएफसी (केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड) की चेयरपर्सन थी, यूनिसेफ की गुडविल एंबेसडर थी। ऐसा नहीं था कि 12 साल में कुछ नहीं किया। बहुत कुछ किया। मेरे बहुत सारे एनजीओ से जुड़े दोस्त हैं जो मातृत्व या बाल मृत्यु दर संबंधी अभियानों के लिए मुझे बुलाते थे, तो वहां पर काम किया। वो नर्वसनेस हर जगह होती है। कोई भी अच्छा काम करने से पहले आपका पेट कुलबुलाने लगता है। उसके बगैर काम नहीं होता। पता नहीं आप लोगों को होता है कि नहीं!
मनोज बाजपेयी: (सहमति जताते हुए), बिल्कुल, सबको होता है। हमें भी होता है।
शर्मिला टैगोर: काम करने के लिए नर्वसनेस बहुत जरूरी है। जब आप कैमरे के सामने होते हैं और स्टार्ट साउंड, कैमरा बोला जाता है तब आप सब भूल जाते हैं। आप बस कैमरे से बात करते हैं और महसूस करते हैं कि यह मेरी जगह है। क्योंकि यह जो क्षण है वो जादुई है। मुझे लगता है कि मैं सभी कलाकारों के लिए यह बात कह सकती हूं कि उस क्षण के लिए हम जीते हैं।
मनोज बाजपेयी (हंसते हुए): उम्र के साथ नर्वसनेस छुपाना आ जाता है। हमको पता नहीं होता है कि उसे डील कैसे करें तो कई बार कोने में जाकर चुप होकर बैठ जाते हैं या कहीं टहलने निकल जाते हो। वो एंजाइटी (घबराहट), वो नर्वसनेस लोगों को दिखाई देती है। समय बीतने के साथ आपको यह तरीका आ जाता है कि दूसरों से बात करते हुए आप अपनी चीजों पर ध्यान केंद्रित रखें। इसे अनुभव से हासिल किया है। वो चीज आ चुकी है, लेकिन जैसा शर्मिला जी ने बिल्कुल सही कहा कि एक अनिश्चितता तो रहती है। आखिर हम एक किरदार को खोज ही रहे होते हैं। नई चीज खोज रहे हो तो नर्वसनेस तो हमेशा होगी। यह अनंतकाल के लिए होता है।
यानी बीते दिनों कैमरे से दूर रह पाना आपके लिए मुश्किल रहा?
शर्मिला: बिल्कुल नहीं। जब मैं कैमरे के सामने नहीं होती हूं तो भी बहुत खुश रहती हूं, क्योंकि घर का बहुत काम है। मुझे पटौदी हाउस संभालना है। भोपाल का घर संभालना है। बहुत कुछ है। (हंसते हुए) कानूनी मामले हैं, बागवानी है, बच्चे हैं, उनकी समस्याएं हैं। रात को कभी दो बजे फोन करते हैं। जब उनकी समस्या हल हो जाती है तो बताना भूल जाते हैं कि सब ठीक है। जब पूछो कि उस समस्या का क्या हुआ तो कहते हैं वो तो ठीक है, किसकी बात कर रहे हैं आप? (मनोज भी हंसते हैं) हां, कैमरे के सामने आकर बहुत अच्छा लगता है। (मनोज की तरफ देखकर बोलते हुए) आपके साथ काम करके बहुत अच्छा लगा। यह बेहद अलग अनुभव था।
पटौदी पैलेस को घर बनाए रखने के आपके क्या प्रयास रहते थे?
शर्मिला: पटौदी पैलेस को घर नहीं समझूंगी। वो बहुत बड़ा घर है। एक कमरे से दूसरे कमरे तक आने में थक जाते हैं। उसका आर्किटेक्चर ऐसा है कि आप एक कमरे से दूसरे कमरे में सीधे नहीं जा सकते हैं। आपको बाहर निकलना पड़ेगा, फिर दूसरे कमरे में प्रवेश कर पाएंगे। इसका मतलब यह हुआ कि एयर कंडीशनर से गर्मी और सर्दी में घूमो। अभी वसंत विहार (दिल्ली) में रहती हूं तो उसको मैं घर समझती हूं। जब मैं यहां (मुंबई) आती हूं तो मैं बेटे सैफ के पास रहती हूं। उसका घर है। मेरा बहुत बड़ा परिवार है। हैदराबाद में रिश्तेदार हैं। बेंगलुरु में मेरी बहन रहती हैं तो सब जगहों पर मेरा घर है। फिल्म में आपके पात्र से रहस्य जुड़ा है, लेकिन कहीं न कहीं महिलाओं को लेकर सोसाइटी हमेशा से जजमेंटल रही है...
शर्मिला: मुझे ऐसा लगता है कि सोसाइटी ने मोरैलिटी (नैतिकता) तो महिलाओं को दी है और पावर पुरुषों को। यह अवचेतन रूप से दी गई है। हालांकि अब सोसाइटी में काफी बदलाव आ गया है। महिलाओं के साथ बेहतर तरीके से बर्ताव किया जा रहा है। अब ज्यादा नियम-कानून हैं, लेकिन औरत को खुद भी लगता है कि अगर उसे अच्छी छवि बनानी है तो उसे फलां फलां काम करने होंगे। आप हिंदी फिल्मों में देखें तो काजोल जब टाम ब्वाय होती है तो उसे कोई नहीं देखता, लेकिन जब वो अचानक से साड़ी पहनने लगती है और मेकअप करके सुंदर दिखने लगती है तो हर कोई उसे स्वीकार कर लेता है। यह दिमाग में है। हिंदी फिल्मों ने हमेशा दिखाया है जो सोसाइटी में है। हां, यह कहूंगी कि लोग महिलाओं को लेकर ज्यादा जजमेंटल हैं। हालांकि सोसाइटी बेहतर हो रही है।
फिल्म के आखिर में होली मनाने का दृश्य है। होली का कोई यादगार किस्सा?
शर्मिला टैगोर: कोलकाता में हम लोग होली खेलते थे। उसके बाद वहां झील में जाकर नहाते थे। जब वापस आते थे (हंसते हुए) सिर में घोंघा वगैरह होते थे। हम काफी मस्ती करते थे। होली पर हम प्राकृतिक रंगों के साथ खेलते थे। वो रंग नहीं होते थे, जिनकी वजह से एलर्जी हो जाती है। तो होली हमारे लिए बहुत खास होती थी। हम संयुक्त परिवार में थे तो सब त्योहार मनाया जाता था। कभी किसी की शादी होती थी या किसी को बच्चा होने वाला होता था। हर चीज का सेलिब्रेशन होता था। खाने का कोई भी सामान बाहर से नहीं मंगवाया जाता था। सब कुछ घर पर ही बनाया जाता था। बच्चों को इसमें काफी मजा आता था।
मनोज बाजपेयी: (हंसते हुए) हमारी होली तो बहुत कलरफुल रही है। होली से एक रात पहले गांव में होलिका जलती थी। होलिका जलने का भी पूरा उत्सव होता था। वहां पर कुछ पूजा होती थी। अगले दिन उसकी राख को एक-दूसरे को लगाते थे, उसके बाद होली शुरू होती थी। एक-दूसरे को मिट्टी में उठाकर फेंक रहे हैं। कीचड़ में फेंक रहे हैं। (ठहाका मारते हैं) शर्मिला (हंसते हुए): हम लोग ऐसा नहीं करते थे।
मनोज: उसके बाद हर गांव से एक टोली निकलती थी जिसमें से एक आदमी ने बहुत ज्यादा भांग पिया होता था। टोली गाना गाते हुए हमारे घर की तरफ आती थी। हम लोग सबके लिए जग में भांग की ठंडाई और मिठाई लेकर खड़े होते थे। कुछ देर तक वो होली का गाना गाते और वह व्यक्ति जिसने सबसे ज्यादा भांग पी रखी होती थी, वह आड़ा-टेढ़ा हो रखा होता था, वो नाच भी रहा होता था। फिर दूसरी टोली आती, फिर तीसरी। यह क्रम चलता रहता था।
सबसे आकर्षक बात यह होती थी कि भांग की ठंडाई मेरे पिता खुद बनाते थे। उस दिन भांग की ठंडाई पीने की हम बच्चों को भी अनुमति थी। मीठी लगती थी तो एक बार मैं बहुत ज्यादा पी गया। उस दिन मां ने मटन बनाया था। अगर दो किलोग्राम मटन बनाया था तो डेढ़ किलोग्राम मैं खा गया (शर्मिला जोर से हंसती है) , लेकिन मुझे मना करना मां के लिए बहुत कठिन था। मैं पूरी तरह भांग के नशे में था। क्योंकि तब मेटाबॉलिज्म बहुत ज्यादा हो जाता है तो मैं खाता चला गया। हर साल का कुछ न कुछ किस्सा है, उस पर तो किताब ही लिखनी पड़ेगी।
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