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15 हजार की लागत से बनी थी भारतीय सिनेमा की पहली मूक फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’, यहां पढ़ें इससे जुड़े रोचक किस्से

चार रील की फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ को बनाने में करीब 15 हजार रुपए लगे थे। उस समय के हिसाब से यह बहुत बड़ी धनराशि थी। ऐसे में यदि फिल्म को केवल तीन या चार दिन के लिए प्रदर्शित किया जाएगा तो वे अपना खर्च कैसे निकालेंगे?

By Ruchi VajpayeeEdited By: Updated: Sun, 01 May 2022 02:00 PM (IST)
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The first silent film of Indian cinema Raja Harishchandra

स्मिता श्रीवास्तव, मुंबई। स्वाधीनता के 75वें साल के उपलक्ष्य में मनाए जा रहे अमृत महोत्सव के अंतर्गत पिछले अंक में आपने पढ़ा कि भारतीय सिनेमा के पितामह दादासाहब फाल्के ने किस प्रकार स्वदेशी सिनेमा के बीज को रोपा। भारतीय सिनेमा की पहली मूक फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ को बनाने के लिए उन्होंने इंश्योरेंस पालिसी और पत्नी सरस्वतीबाई के गहनों को भी गिरवी रख दिया था। अब पढ़िए ‘राजा हरिश्चंद्र’ के प्रमोशन और रिलीज (तीन मई) से संबंधित किस्से....

तमाम मुश्किलों का सामना करने के बाद स्वदेशी सिनेमा की पहली मूक फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ बनकर तैयार हो चुकी थी। जिसे 21 अप्रैल, 1913 को ओलंपिया थिएटर में कुछ प्रमुख लोगों के सामने प्रदर्शित किया गया था। उसके बाद कोरोनेशन थिएटर के मैनेजर नानासाहेब चित्रे ने फिल्म को प्रदर्शित करने की इच्छा जताई। ऐसे में मुख्य समस्या तो हल हो गई। अब सवाल यह था कि क्या आम लोग फिल्म देखने आएंगे? दादासाहब का डर निराधार नहीं था, क्योंकि उन दिनों थिएटरों को सप्ताह में दो फिल्में दिखानी पड़ती थीं ताकि थिएटर मालिक और निर्माता दोनों का गुजारा हो सके। चार रील की फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ को बनाने में करीब 15 हजार रुपए लगे थे। उस समय के हिसाब से यह बहुत बड़ी धनराशि थी। ऐसे में यदि फिल्म को केवल तीन या चार दिन के लिए प्रदर्शित किया जाएगा तो वे अपना खर्च कैसे निकालेंगे? उन दिनों नाटक, तमाशा, मेलों से कड़ी प्रतिस्पर्धा मिलती थी साथ ही महिलाएं और कुलीन समाज सिनेमा के प्रति उदासीन थे।

आकर्षण में नहीं कोई कमी

तीन मई, 1913 को दादासाहब फाल्के ने पहली बार मुंबई के कोरोनेशन थिएटर में फिल्म की स्क्रीनिंग की। इससे करीब दो साल पहले ही खुले टेंट में दादासाहब ने ईसा मसीह पर फिल्म देखी थी। वह फिल्म शुरू होने से पहले अतिरिक्त आकर्षण के तौर पर हास्य लघु फिल्म ‘फूल्स हेड’, जादुई शो और एक रील की एक्रोबेटिक्स फिल्म को दिखाया गया था। इसी बात को ध्यान में रखते हुए ‘राजा हरिश्चंद्र’ शुरू होने से पहले एक अंग्रेजी महिला का नृत्य स्टेज पर आयोजित किया गया। उसके साथ ही हास्य लघु फिल्म ‘फन विद मैचस्ट्क्सि’ को भी दर्शाया गया।

तैयार हुई मजबूत नींव

फिल्म के प्रचार के लिए ‘राजा हरिश्चंद्र’ का एक विज्ञापन शनिवार, तीन मई, 1913 को ही तत्कालीन ‘बांबे क्रानिकल’ में प्रकाशित हुआ था। जिसमें शो का समय दिया गया था तथा विज्ञापन के अंत में एक नोट था कि दरें सामान्य दरों से दोगुनी होंगी। फिर भी, रंगमंच का परिसर दर्शकों से भरा हुआ था। इनमें से अधिकांश पारसी और बोहरा जैसे गैर हिंदू थे। मराठी दर्शकों की कमी साफ नजर आ रही थी। उमड़ी भीड़ को देखकर फाल्के दंपती बहुत खुश हुए। फिल्म एक सप्ताह तक हाउसफुल रही। इस वजह से उसे दर्शाने की अवधि एक सप्ताह के लिए और बढ़ा दी गई। 12वें दिन यानी 15 मई को एक और विज्ञापन प्रकाशित हुआ। अंग्रेजी अखबार के संपादक यूरोपियन थे, लेकिन उन्होंने इस पहली भारतीय फिल्म की दिल खोलकर तारीफ की। इसकी वजह से ‘राजा हरिश्चंद्र’ का खूब प्रचार हुआ और फिर मराठी दर्शकों को लगा कि यह जरूर अच्छी फिल्म होगी।

17 मई को प्रकाशित विज्ञापन में कहा गया कि केवल महिलाओं और बच्चों के लिए आधी दरों पर विशेष शो होगा साथ ही यह भी कहा गया कि रविवार को आखिरी शो होगा। हालांकि दर्शकों की भीड़ थिएटर में उमड़ती रही और इसलिए ‘राजा हरिश्चंद्र’ एक और सप्ताह चली। लगातार 23 दिन तक चलने के कारण इसने कीर्तिमान स्थापित किया। इससे पहले कोई भी फिल्म चार दिन से ज्यादा नहीं चली थी। इस प्रकार पहली भारतीय फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ की सफलता अभूतपूर्व थी। इसके बाद 28 जून को तत्कालीन एलेक्जेंड्रा थिएटर में प्रदर्शित की गई, वहां भी काफी भीड़ उमड़ी। इस सफलता के साथ दादासाहब को एक और उपलब्धि हासिल हुई। जर्मनी की ‘द स्टूडेंट आफ प्राग’, इटली की ‘क्यू वादीस’ और फ्रांस की ‘क्वीन एलिजाबेथ’ उसी साल प्रदर्शित हुई उन देशों की पहली फिल्में थीं। दादासाहब उनके समकक्ष साबित हुए।

रखे पांव जमीन पर

किताब ‘दादासाहब फाल्के: द फादर आफ इंडियन सिनेमा’ के लेखक बापू वाटवे के मुताबिक, दादासाहब ने स्वयं ‘नवयुग’ पत्रिका में लिखा था कि ‘राजा हरिश्चंद्र’ ने आश्चर्यजनक रिटर्न दिया। फिल्म के 12 प्रिंट की मांग थी। हालांकि एक फिल्म की कमाई तूफान की तरह क्षणिक हो सकती है। इसलिए उन्होंने एक और फिल्म ‘मोहिनी भस्मासुर’ का निर्माण करने का फैसला किया।’

जब छपा वह कमाल का विज्ञापन

मुंबई में ‘राजा हरिश्चंद्र’ की सफलता के चर्चे देश के बाकी हिस्सों में भी पहुंचे। सूरत के नवाबी थिएटर के बोहरा मालिक ने अपने थिएटर में ‘राजा हरिश्चंद्र’ को प्रदर्शित करने की इच्छा व्यक्त की। इसके लिए 50 प्रतिशत साझेदारी के साथ एक अस्थायी समझौते पर हस्ताक्षर हुए। नवाबी थिएटर फूल-मालाओं से सजाया गया, लेकिन पहले शो से मात्र तीन रुपए की कमाई हुई। लिहाजा थिएटर मालिक ने शो रद करने और टिकट के पैसे वापस करने का सुझाव दिया। उन्होंने दादासाहब से शो की लंबाई बढ़ाने या फिर दाम कम करने को कहा। हालांकि दोनों में से किसी भी सुझाव को मानना संभव नहीं था। तब दादासाहब ने उत्तर दिया, ‘मुझे अपनी फिल्म का इस्तेमाल सिर्फ इन 16 लोगों के लिए करना होगा। जब ये लोग मेरी फिल्म देखकर घर जाएंगे तो कल इनके चार गुना लोग आएंगे। मैं सहमति के अनुसार एक सप्ताह तक शो चलाऊंगा।’

अगले दिन के अखबार में गुजराती में जारी विज्ञापन में दादासाहब ने विज्ञापन के शब्दों को यूं चुना- एक आने में, तीन चौथाई इंच चौड़ाई और दो मील लंबाई की 57 हजार तस्वीरें देखें। विज्ञापन का वांछित प्रभाव था और कुछ अद्भुत देखने की उम्मीद, बड़ी संख्या में दर्शकों की भीड़ उमड़ी। कमाई तीन रुपए से बढ़कर 300 रुपए हो गई। पूरे सप्ताह बाक्स आफिस की कमाई काफी अच्छी रही। दादासाहब के चतुर विज्ञापन के जादू को देखकर थिएटर मालिक चकित रह गया था। इसके बाद ‘राजा हरिश्चंद्र’ का हर जगह बहुत स्वागत हुआ। दादासाहब ने ‘नवयुग’ में लिखा कि जैसे ही मुझे फिल्म से पैसा मिलना शुरू हुआ, मैंने इसे फैक्ट्री में निवेश कर दिया। उन दिनों फिल्म स्टूडियो को फैक्ट्री कहा जाता था। बाद में, ‘राजा हरिश्चंद्र’ कोलंबो और रंगून में प्रदर्शित हुई, जहां इसे बड़ी संख्या में दर्शक मिले। इस तरह भारतीय सिनेमा ने अपनी शानदार शुरुआत की।