Interview: 'मसान' के बाद बस यूपी-बिहार वाली कहानियां ही आ रही थीं, इसलिए ब्रेक लिया- विक्की कौशल
Vicky Kaushal Interview रमन राघव 2.0 आयी जिसमें बिल्कुल डार्क शेड था। मुझे पता था कि यह अलग फ़िल्म है। बहुत से लोग इससे जुड़ नहीं पाएंगे लेकिन मुझे इंडस्ट्री को यह दिखाना ज़रूरी था कि मैं कुछ विपरीत भी कर सकता हूं। वही हुआ भी।
By Manoj VashisthEdited By: Manoj VashisthUpdated: Mon, 18 Oct 2021 04:19 PM (IST)
मनोज वशिष्ठ, नई दिल्ली। शूजित सरकार निर्देशित सरदार ऊधम में विक्की कौशल के अभिनय को काफ़ी सराहा जा रहा है। जलियांवाला बाग नरसंहार का बदला लेने वाले क्रांतिकारी सरदार ऊधम सिंह की बायोपिक पहली बार हिंदी सिनेमा में आयी है और इस ऐतिहासिक किरदार को निभाना विक्की के लिए आसान नहीं था।
विक्की ने जागरण डॉट कॉम के साथ एक्सक्लूसिव बातचीत में सरदार ऊधम सिंह के लिए अपनी तैयारियों के अलावा मसान, रमन राधव 2.0 जैसी फ़िल्मों के बाद अपने करियर की च्वाइसेज़ और सोशल मीडिया के निजी जीवन में प्रभाव को लेकर विस्तार से बातचीत की। सरदार ऊधम अमेज़न प्राइम वीडियो पर 16 अक्टूबर को रिलीज़ हो चुकी है। सरदार ऊधम सिंह का किरदार निभाने में सबसे बड़ी चुनौती क्या थी?
जब आप ऐसे क्रांतिकारी की भूमिका निभा रहे हैं, जिन्होंने जलियांवाला बाग जैसा हत्याकांड 19 साल की उम्र में अपनी आंखों से देखा हो। 21 सालों तक उस दर्द को अपने अंदर ज़िंदा रखा हो और फिर 1940 में जाकर उस हत्याकांड का बदला लिया हो। वो भी भारत में नहीं, बल्कि 100 साल पहले सात समंदर पार करके सीधे ब्रिटिश साम्राज्य के दिल लंदन में जाकर, ताकि विश्व भर में उसकी ख़बर बने और लोगों को पता लगे कि इंडिया में क्या अत्याचार हो रहे हैं, तो एसे किरदार के लिए सबसे बड़ा चैलेंज जो था, वो यह कि उस दर्द को मैं भी अपने अंदर रखूं। बाहरी तौर पर आप चाहे जो कर रहे हैं, काम कर रहे हैं, हंस-खेल रहे हैं, पर अंदर जो दर्द है, उस नोट को हमेशा ज़िंदा रखना। शूजित सरकार का जो फ़िल्ममेकिंग का तरीका है, वो डायलॉग काफ़ी कम रखते हैं, साइलेंसेज को ज़्यादा महत्व देते हैं। तो साइलेंस रहकर इमोशंस को लोगों तक पहुंचाना कई बार चैलेंजिंग हो जाता है।
उस मानसिक ज़ोन में रहने के लिए आपने क्या तैयारी की?
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एक बात तो यह थी कि मैं जो भी इमोशन कैमरे के सामने ज़ाहिर करूं, उसे फील करना बहुत ज़रूरी था। मैं अपनी इंस्टिक्ट पर बहुत निर्भर था। मैं अपने कॉस्ट्यूम और मेकअप में सेट पर पहुंच गया तो जो विक्की कौशल की दुनिया है, उससे अलग होना बहुत ज़रूरी था। मैं अक्सर फ़िल्मों में ऐसा करता हूं, मगर इस फ़िल्म के लिए बहुत ज़रूरी था। मैं अपना मोबाइल फोन भी वैनिटी वैन में ही छोड़कर जाता था।
ऐसा नहीं कि चलो शॉट हो गया है तो कुर्सी पर बैठकर फोन चेक कर लो, बात कर लो, कुछ देख लो, सोशल मीडिया चेक कर लो। मेरे ख़ुद के लिए भी ज़रूरी था कि ऊधम सिंह की दुनिया मैं अपने ज़हन में बनाकर रखूं। मेरी कोशिश यही रहती थी कि चाहे जो इमोशन हो, गुस्सा, दुख, सुन्न होना, उसे अपने अंदर खोजने की कोशिश करूं।इस फ़िल्म से पहले आप सरदार ऊधम सिंह के बारे में कितना जानते थे?मैं पंजाबी फैमिली से हूं। मुंबई में पला-बढ़ा हूं, लेकिन मेरा गांव पंजाब के ज़िला होशियारपुर में है, जो जलियांवाला बाग से बस दो घंटे की दूरी पर है। हर साल अपने गांव ज़रूर जाता हूं। चाहे हफ़्ते भर के लिए ही जाऊं। बचपन में ज़्यादा जाने का मौक़ा मिलता था। गर्मियों की छुट्टियां पूरी वहीं कटती थीं, तो हम इन कहानियों को सुनते-सुनते बड़े हुए हैं। चाहे वो भगत सिंह की कहानी हो या जलियांवाला बाग की कहानी हो या फिर सरदार ऊधम सिंह की कहानी हो। यह फ़िल्म मिलने से पहले ही मुझे सरदार ऊधम सिंह कौन हैं, उन्होंने क्या किया था, क्यों हम 100 साल बाद भी उन्हें याद रखते हैं, ये सारी चीज़ें मुझे पता थीं।
जलियांवाला बाग बचपन में ख़ुद जा चुका हूं। कॉलेज के वक़्त भी गया था। वहां उनकी मूर्ति है। म्यूज़ियम में उनकी चाज़ें रखी हुई हैं। यह सब मुझे पता था। मगर, जब शूटिंग शुरू की तो काफ़ी ऐसी चीज़ें पता चलीं, जो मुझे भी नहीं मालूम थीं। उन्होंने अपने काम बदले, नाम बदले, पहचान बदलते रहे। वो पूरी दुनिया घूमे थे। अमेरिका, यूरोप, अफ्रीका, जर्मनी, रूस, लंदन सब जगह गये। बदला लिया, यह पता था, मगर वहां तक कैसे पहुंचे, उनकी मानसिक स्थिति क्या थी, यह फ़िल्म करने से पता चला। उनकी और भगत सिंह की आज़ादी और समानता को लेकर जो आइडियोलॉजी थी, उनके मायने क्या थे। सारी चीज़ें मुझे इस फ़िल्म के द्वारा पता चली हैं। इससे पहले आपने संजू में एक रियल लाइफ़ कैरेक्टर निभाया था, जिसे काफ़ी पसंद किया गया था, मगर ऐसे किरदारों के साथ आप खेल सकते हैं। सरदार ऊधम जैसे ऐतिहासिक किरदारों करना एक कलाकार के तौर पर कितना अलग होता है?यह आपने बहुत सही बात कही है। जब आपके पास कमली जैसा कैरेक्टर है तो यह हो जाता है। उसमें इतना मजबूत दायरा नहीं होता, जिसके अंदर रहकर आपको काम करना होता है। जैसा आपने कहा कि उस किरदार के साथ खेल सकते हैं। आप उसमें अपनी ओर से भी कुछ जोड़ सकते हैं। जब आप कोई ऐसा किरदार करते हैं, जो कभी वजूद में था, जिसके बारे में किताबों में लिखा हुआ है तो आपके पास एक सीमित दायरा होता है। एक सीमा रेखा खिंची होती है, उसी के अंदर आपको खेलना होता है।
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उसके नियम-कायदे सेट हो जाते हैं। चाहे वो उसका लुक हो, या बर्ताव हो, जो घटना आप फ़िल्म में दिखा रहे हैं, तथ्यात्मक तौर पर सही होना बहुत ज़रूरी है। यह अनसंग हीरो का किरदार है, जो महात्मा गांधी या भगत सिंह जितने सेलिब्रेटेड नहीं हैं, तो लोग सरदार ऊधम सिंह को इस फ़िल्म के ज़रिए ही जानेंगे। यह बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी आ जाती है कि आपको तरीक़े और सटीकता से उस पर काम करना है। आप इसे हल्के में नहीं ले सकते। आप लापरवाह नहीं हो सकते। बनिता संधू का फ़िल्म में क्या किरदार है?बनिता का फ़िल्म में बहुत स्पेशल किरदार है। वो फ़िल्म के लिए ही बचाकर रखा गया है। फ़िल्म को जब पूरी तरह देखेंगे तो उसकी सिगनिफिकेंस ज़्यादा लगती है। बनिता बहुत ही ख़ूबसूरत एक्ट्रेस हैं। पहली बार मैंने उनके साथ काम किया है। बहुत एक्सप्रेसिव हैं और गजब काम किया है। फ़िल्म में वो पोइट्री की तरह हैं।
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पिछले कुछ सालों में फ़िल्मों को लेकर आपका चयन काफ़ी बदला है। क्या यह सोची-समझी रणनीति है?मसान के बाद मेरे पास जो भी स्क्रिप्ट आयीं, वो यूपी या बिहार आधारित ही आ रही थीं। एक ही तरह की फ़िल्में आने लग गयीं तो मुझे लगा कि यही करता रहूंगा तो मैं ख़ुद को टाइप कास्ट कर लूंगा। इसलिए मैंने सात-आठ महीने काम ही नहीं किया। मैंने तय कर लिया था कि कुछ अलग आएगा, तभी करूंगा। फिर रमन राघव 2.0 आयी, जिसमें बिल्कुल डार्क शेड था। मुझे पता था कि यह अलग फ़िल्म है। बहुत से लोग इससे जुड़ नहीं पाएंगे, लेकिन मुझे इंडस्ट्री को यह दिखाना ज़रूरी था कि मैं कुछ विपरीत भी कर सकता हूं। वही हुआ भी। इसके बाद मुझे लव पर स्क्वायर फुट, राज़ी, मनमर्ज़ियां जैसी फ़िल्में मिलीं। ये सब ऐसे फ़िल्ममेकर्स थे, जिनके साथ काम करने की मेरी अपनी भूख थी, क्योंकि बतौर एक्टर मुझे उनसे सीखना था।
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रही बात मेनस्ट्रीम सिनेमा और पैरेलल सिनेमा की तो अब ऐसा दौर आ गया है कि वो लाइन धुंधली हो गयी है। लोगों को अच्छी कहानी चाहिए, चाहे वो 100 करोड़ में बने या 10 रुपये में बने। मसान जैसी फ़िल्में अब बन भी नहीं रही हैं। उसके जैसी रियलिज़्म फ़िल्म हाल फ़िलहाल में तो नहीं आयी है। अब तो कमर्शियल फ़िल्मों में भी आपको रियलिज़्म दिख जाता है और रियल फ़िल्मों में बड़े-बड़े स्टार दिख जाते हैं। पहले जिस तरह दोनों के बीच लाइन खिंची हुई थी, वो फर्क मिटना शुरू हो गया है। यह एक्टर, राइटर, डायरेक्टर्स और दर्शकों के लिए अच्छा दौर है। आपने जिन निर्देशकों के साथ अब तक काम किया है, उनमें शूजित सरकार कितना अलग हैं?अनुराग सर (कश्यप) और शूजित दा में काफ़ी समानताएं हैं। दोनों की थिएटर बैकग्राउंड बहुत मजबूत है। दोनों ने दिल्ली में थिएटर किया हुआ है। दोनों बहुत तेज़ी से काम करते हैं। दोनों बहुत अच्छे एडिटर हैं। फ़िल्म बनाते समय दोनों का एडिट दिमाग में चल रहा होता है। उन्हें पता रहता है कि क्या शूट करना है, कितना शूट करना है। उनका फ़िल्म शूट करने का तरीक़ा टेस्ट बुक फ़िल्ममेकिंग का नहीं है। जैसा ज़हन में होता है, वैसा ही शूट कर लेते हैं। शूजित दा सच्चे और प्योरिस्ट डायरेक्टर हैं। अगर वो किसी किरदार पर फ़िल्म बनाएंगे तो वो पूरी ईमानदारी से उसे दिखाएंगे। कभी भी इस झांसे में नहीं आते कि इसमें दो गाने डाल देता हूं। ऑडिएंस को पसंद आएगा। इसमें एक्शन डाल देता हूं। यह पैकेज कर देता हूं, ताकि आडिएंस आ जाए पिक्चर देखने। सरदार ऊधम सिंह को लेकर उनके ज़हन में जो सोच थी, वही पर्दे पर उतारा है।
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सिनेमाघर खुलने वाले हैं। ओटीटी से आप किसी तरह की चुनौती देख रहे हैं?बहुत अच्छी बात है कि थिएटर्स खुल रहे हैं, क्योंकि हम सब अब बहुत उतावले हैं यह महसूस करने के लिए कि दुनिया अब नॉरमल हो गयी है और यह हमारी मानसिक स्थिति के लिए बहुत ज़रूरी है। बिल्कुल, वैक्सीनेशन करवाना चाहिए। सारी सावधानियां बरतनी चाहिए। लोगों को थिएटर में आना चाहिए। बहुत अच्छी-अच्छी फ़िल्में थिएटर के लिए बचाकर भी रखी हुई हैं। पिछले 18 महीनों में एक और अच्छी बात हुई है कि लोगों की ओटीटी से दोस्ती हुई है। मुझे लगता है कि बहुत अच्छा दौर आएगा, जब थिएटर और ओटीटी साथ में चलेंगे। आपकी इच्छा है, थिएटर में जाकर फ़िल्म देख सकते हैं, ओटीटी से दोस्ती हो ही चुकी है। ओटीटी से एक सहूलियत आ गयी है, जब मर्ज़ी जहां मर्ज़ी देख सकते हैं। मुझे लगता है बहुत दिलचस्प दौर है, जहां दोनों मीडियम्स पर फ़िल्में आती रहेंगी।
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आज कल सोशल मीडिया में बॉलीवुड को लेकर काफ़ी नेगेटिव माहौल चल रहा है। एक्टर्स की ट्रोलिंग भी ख़ूब होती है। निजी स्तर पर क्या आपको प्रभावित करता है?प्रभाव तो पड़ता है। जैसा आपने कहा कि ट्रोलिंग में एक ग़लत परसेप्शन होता है। उसमें सच-झूठ का कुछ पता ही नहीं चलता है। इतना शोर होने लगता है कि लोग एक-दूसरे को ही रिपीट करते रहते हैं। अगर आप सोशल मीडिया का हिस्सा हैं तो उसे ज़िम्मेदारी के साथ हैंडल करना चाहिए। अगर आप कोई ओपिनियन दे रहे हैं तो बहुत ज़िम्मेदारी के साथ दीजिए और सुनी-सुनाई बातों पर ध्यान मत दीजिए। जो तथ्यात्मक हो उसी पर ओपिनियन दीजिए। सोशल मीडिया और वॉट्सऐप पर एक चीज़ आती है और जब लोगों तक पहुंचती है, उसके मायने ही बदल चुके होते हैं। हम सब को सामूहिक रूप से इसे डील करना चाहिए।
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