दादासाहब फाल्के जन्म जयंती विशेष: पत्नी के सारे जेवर गिरवी रखकर दादासाहब फाल्के ने बनाई थी 'राजा हरिश्चंद्र’, ऐसे शुरू हुआ था भारतीय सिनेमा का सफर
राजा हरिश्चंद्र’ बनाने के लिए दादासाहब के पास ऋण के बदले में कुछ भी गिरवी रखने को नहीं था। तब सरस्वती ने मंगलसूत्र छोड़कर अपने सारे जेवर खुशी-खुशी दे दिए। ऐसे 109 साल पहले शुरू हुआ था भारतीय सिनेमा का सफर।
By Ruchi VajpayeeEdited By: Updated: Sat, 30 Apr 2022 08:19 AM (IST)
स्मिता श्रीवास्तव,मुंबई। जिन्होंने बोए स्वदेशी सिनेमा के बीज विदेशी फिल्मों के दौर में विशाल भारतीय सिनेमा की नींव रखी थी दादासाहब फाल्के ने । वर्ष 1913 में उन्होंने पहली भारतीय फीचर फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ बनाकर साबित कर दिया था कि संसाधनों की कमी स्वावलंबन के आड़े नहीं आ सकती।
30 अप्रैल, 1870 को नाशिक से करीब 29 किमी दूर त्र्यंबकेश्वर में एक मराठी परिवार में जन्मे दादासाहब फाल्के का असल नाम धुंडीराज गोविंद फाल्के था। कला के प्रति रुझान देखते हुए पिता ने उन्हें साल 1885 में मुंबई के जे. जे. स्कूल आफ आट्र्स कालेज में प्रवेश की अनुमति दे दी। पाठ्यक्रम पूरा करने के बाद दादासाहब से उम्र में 12 साल बड़े भाई शिवरामपंत फाल्के उन्हें साल 1886 की शुरुआत में तत्कालीन बड़ौदा के कला भवन ले आए। दादासाहब ने बड़ौदा प्रवास के दौरान फिल्म निर्माण के विषय में ज्ञान अर्जित किया। 1886 में उनका विवाह मराठी महिला से हुआ। 1890 में उन्होंने फिल्म कैमरा खरीदा और फोटोग्राफी में प्रयोग करने लगे। तमाम कलाओं में पारंगत होने के बावजूद उनके लिए जीविकोपार्जन आसान नहीं था। इसी दौरान वर्ष 1900 में गोधरा में प्लेग फैलने से उनकी पत्नी का निधन हो गया। यह उनके लिए बड़ा झटका था।
जादूगर का जादू
दादासाहब में नई कला सीखने की ललक रहती थी। एक बार एक जर्मन जादूगर बड़ौदा आया। उससे दोस्ती कर दादासाहब ने रासायनिक प्रतिक्रियाओं, तकनीकी विचारों, भ्रम, ताश खेलने की ट्रिक्स के जरिए जादू करना सीखा। इससे उन्हें फिल्ममेकिंग में ट्रिक्स फोटोग्राफी में मदद मिली। साल 1901 के अंत में दादासाहब ने जादू के सार्वजनिक कार्यक्रमों का आयोजन प्रो. केल्फा (उनके उपनाम के अक्षर उल्टे क्रम में) के नाम से किया और जादूगर के रूप में लोकप्रिय हुए। साल 1902 में उनकी दूसरी शादी सरस्वतीबाई से हुई। उसी साल आर्कियोलाजिकल सर्वे डिपार्टमेंट में बतौर फोटोग्राफर और ड्राफ्टमैन उनकी नौकरी लगी। बंगाल विभाजन के खिलाफ आंदोलन का उन पर गहरा प्रभाव था। परिणामस्वरूप उन्होंने 1906 में नौकरी से इस्तीफा दे दिया।
कारोबार चलती-फिरती तस्वीरों का
फिल्मों में दादासाहब के आने का दिलचस्प वाकया है। उस समय खुले में थिएटर चलता था। एक बार दादासाहब पत्नी सरस्वतीबाई को फिल्म दिखाने ले गए। ईस्टर का दिन था तो ईसा मसीह के जीवन पर फिल्म दिखाई जा रही थी। तब दादासाहब ने सोचा कि भारतीय लोग अपनी संस्कृति कैसे देख पाएंगे? उसके लिए अवश्य कुछ करना चाहिए। उन्होंने सोचा कि किसी को तो यह पहल करनी ही होगी तो क्यों न मैं ही करूं। तब उन्होंने पत्नी से कहा, ‘मैं ऐसी चलती-फिरती तस्वीरों का कारोबार शुरू करने जा रहा हूं।’
दे आए खुली चुनौतीतकनीकी ज्ञान के लिए दादासाहब लंदन जाना चाहते थे, लेकिन उनके पास पैसे नहीं थे। उन्होंने अपने मित्र और नाडकर्णी एंड कंपनी के मालिक यशवंतराव नाडकर्णी के पास इंश्योरेंस पालिसी गिरवी रखकर 10 हजार रुपए का ऋण लिया और लंदन आ गए। यहां वे पिकाडिली सर्कस क्षेत्र में ‘बायोस्कोप सिने-वीकली’ के दफ्तर गए और संपादक केपबर्न से मुलाकात की। जब दादासाहब ने उन्हें अपनी यात्रा का उद्देश्य बताया तो केपबर्न ने दादासाहब को फिल्म निर्माण में न उतरने की सलाह दी। किताब ‘दादासाहब फाल्के: द फादर आफ इंडियन सिनेमा’ के लेखक बापू वाटवे के मुताबिक, ‘दादासाहब ने दृढ़ता से कहा कि मेरे पास सभी कठिनाइयों को पार करने के लिए आत्मविश्वास और दृढ़ता है।’ दादासाहब के व्यक्तित्व से केपबर्न काफी प्रभावित हुए और मशहूर फिल्म निर्माता सेसिल हेपवर्थ से दादासाहब फाल्के को मार्गदर्शन देने का अनुरोध किया। दादासाहब स्टूडियो के सभी विभाग और काम को देख सकते थे। तब दादासाहब ने आवश्यक उपकरण खरीदे। इसी दौरान वह लंदन के सेलिंग कारपोरेशन द्वारा निर्मित फिल्म ‘ए डाटर आफ भारत’ देखने गए। इसमें भारतीय जीवन को जिस प्रकार चित्रित किया गया था, उसे देखकर दादासाहब ने कड़ा विरोध दर्ज कराया और कहा, ‘मैं अगले साल अपनी फिल्म के साथ यहां आऊंगा, तब आप असली भारत देखेंगे।’ दो सप्ताह तक लंदन में रहने के बाद दादासाहब भारत लौट आए।
यूं पनपी सिनेमा की बेलमई 1912 में लंदन से मशीनरी मुंबई पहुंची। दादासाहब ने इसके साथ आए स्केच की मदद से इसे लगभग चार दिन के भीतर घर में ही सेट किया। साथ ही सरस्वतीबाई को फिल्म संबंधी जटिल काम सिखाया। दादासाहब ने फिल्म बनाने के लिए राजा हरिश्चंद्र की कहानी का उपयोग करने का निर्णय लिया, क्योंकि उस विषय पर मराठी और उर्दू मंच पर वैसा ही एक नाटक बहुत ज्यादा लोकप्रिय था, पर दिक्कत अभी भी पैसे की थी। निवेशकों का विश्वास अर्जित करने के लिए दादासाहब ने एक गमले में मटर का बीज बोया और उसके सामने कैमरा रख दिया। करीब सवा महीने तक कैमरा एक ही जगह रहा। प्रोजेक्टर की मदद से उन्होंने बीजों के पनपने और बेल के ऊपर तक पहुंचने को दिखाया। इसे देखकर बच्चे बहुत खुश हुए। फिर उन्होंने चुनिंदा लोगों को भी दिखाया। इनमें दादासाहब के सपने में यकीन करने वाले और उन्हें आर्थिक मदद देने वाले यशवंतराव नाडकर्णी भी थे। दादासाहब के जादू को देखकर वह बोले, ‘दादासाहब, आपने मटर के बीज बोकर आज एक स्वदेशी सिनेमा के बीज बोए हैं।’
जुड़ने लगे तारफिल्म बनाने के लिए दादासाहब के पास ऋण के बदले में कुछ भी गिरवी रखने को नहीं था। तब सरस्वती ने मंगलसूत्र छोड़कर अपने सारे जेवर खुशी-खुशी दे दिए। मुंबई में ‘नाट्यकला’ नामक थिएटर कंपनी से पांडुरंग गदाधर, गजानन वासुदेव साने के परिचित दत्तात्रेय दामोदर उर्फ दादासाहब डाबके उनके साथ जुड़ गए। राजा हरिश्चंद्र और रानी तारामती के बेटे रोहिताश के किरदार के लिए दादासाहब ने अपने बेटे भालचंद्र को चुना। अब दिक्कत तारामती को लेकर थी। उस समय संभ्रांत परिवार की महिलाओं का फिल्मों में काम करना अच्छा नहीं माना जाता था। तब इस किरदार के लिए अन्ना हरि सालुंके को चुना गया। मुश्किल यह थी कि वह धार्मिक कारणों से अपनी मूंछ कटवाने को तैयार नहीं थे। तब दादासाहब ने उन्हें और उनके पिता को मनाया और इस प्रकार कृष्णा हरि उर्फ अन्ना सालुंके भारतीय फिल्म जगत की पहली नायिका बने। तमाम मुश्किलों को झेलते हुए छह महीने और 27 दिन में पहली भारतीय फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ बनी थी।
मिल गई मंजिलदादासाहब ने किसी तरह 21 अप्रैल, 1913 को ओलंपिया थिएटर में फिल्म दिखाने के लिए रात नौ बजे का समय तय किया। फिल्म को काफी सराहना मिली। यह सराहना मुंबई के कोरोनेशन सिनेमा के मैनेजर नानासाहेब चित्रे तक भी पहुंची। उन्होंने फिल्म प्रदर्शित करने की इच्छा जताई। मुंबई में तीन मई, 1913 को पहली भारतीय फिल्म दिखाई गई। ‘राजा हरिश्चंद्र’ की सफलता के बाद दादासाहब फाल्के ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। जिसके बाद दादासाहब ने देश की पहली फिल्म कंपनी ‘हिंदुस्तान फिल्म्स’ बनाई। इस तरह भारतीय सिनेमा के विस्तार का आधार निर्मित हळ्आ।
राजा हरिश्चंद्र से शुरू हुआ दादासाहब का करियर 19 वर्ष तक चला। इस दौरान उन्होंने 95 फिल्में और 26 शार्ट फिल्में बनाईं। इनमें ‘मोहिनी भस्मासुर’ (1913), ‘सत्यवान सावित्री’ (1914), ‘लंका दहन’ (1917), ‘श्री कृष्ण जन्म’ (1918) और ‘कालिया मर्दन (1919) शामिल हैं। उनकी आखिरी मूक फिल्म ‘सेतुबंधन’ और आखिरी फिल्म ‘गंगावतरण’ थी। ‘गंगावतरण’ एकमात्र बोलती फिल्म थी जिसका निर्देशन दादासाहब ने रिटायरमेंट से पहले किया था।
एक फरवरी, 1912 को दादासाहब लंदन जाने के लिए जहाज पर सवार हुए। उसके दो दिन बाद उनकी बड़ी बेटी मंदाकिनी का जन्म हुआ। बेटी के जन्म का पता चलने पर उन्होंने कहा पहली बेटी यानी लक्ष्मी आई। मंदाकिनी भारतीय फिल्म जगत की पहली बाल नायिका थीं।