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Dilip Kumar News : पेशावरी पठान की मुंबई पहुंचने की दास्तां और दोस्ती की मिसाल

दिलीप कुमार के पिता भी कारोबार के सिलसिले में मुंबई आ गए थे। एक दिन बेहद दिलचस्प घटना घटी। शाम को दिलीप साहब के पिताजी मुंबई के अपोलो बंदर इलाके में टहल रहे थे। एक दिन उन्होंने देखा कि एक दंपति खूबसूरत बच्चे को प्रैम में लिटाकर टहल रहे थे।

By Priti KushwahaEdited By: Updated: Wed, 07 Jul 2021 02:05 PM (IST)
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Photo Credit - dilip kumar Midday Photo Screenshot
अनंत विजय, नई दिल्ली। दिलीप कुमार के पेशावर से मुंबई (तब बांबे) आने की भी बेहद दिलचस्प कहानी है। प्रथम विश्व युद्ध के बाद दुनिया में कई बदलाव आने लगे थे। कारोबार के अवसर कम हो गए थे और कारोबारी नए नए व्यवस्या की तलाश में इधर उधर जाने लगे थे। दिलीप कुमार के पिता भी कारोबार के सिलसिले में मुंबई आ गए थे। एक दिन बेहद दिलचस्प घटना घटी। शाम को दिलीप साहब के पिताजी मुंबई के अपोलो बंदर इलाके में टहल रहे थे। एक दिन उन्होंने देखा कि एक दंपति अपने बेहद खूबसूरत बच्चे को प्रैम में लिटाकर टहल रहे थे।

उस बच्चे के चेहरे को देखकर उनको अपने छोटे से बच्चे युसूफ की याद आ गई। वो प्रैम तक पहुंचे और बच्चे को उठाकर गले से लगा लिया। हट्टे-कट्ठे पठान को प्रैम से अपने बच्चे को उठाते देखकर दंपति शोर मचाने लगे। ये देखकर युसूफ के पिताजी ने बच्चे को प्रैम में लिटा दिया और दंपति से ये कहकर क्षमा मांगी कि बच्चे को देखर उनको अपने बेटे की याद आ गई थी इसलिए गोद में उठा लिया था। लेकिन इस घटना ने एक पिता को बेचैन कर दिया। वो पेशावर लौट गए और फिर अपनी पत्नी और सात बच्चों को लेकर मुंबई आ गए। दिलीप कुमार ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि वो अपने परिवार के साथ फ्रंटियर मेल से मुंबई के लिए रवाना हो गए।

ठीक से याद नहीं पर ये 1935 के आसपास की बात होगी। ये उनकी पहली ट्रेन यात्रा थी, इस वजह से सभी बच्चे बेहद उत्साहित थे। रास्ते में उनके रिश्तेदार और पहचान वाले उनसे मिलने आते थे और कहीं सामिष तो कहीं निरामिष भोजन मिलता था। दिलीप कुमार ने एक बेहद अजीब सी बात लिखी है अपनी आत्मकथा में। उन्होंने लिखा है कि जब ट्रेन स्टेशन पर रुकती थी तो चायवाले जोर जोर से चिल्लाते थे- हिंदू चाय, हिंदू पानी, मुस्लिम चाय, मुस्लिम पानी। दिलीप कुमार के मुताबिक उनके परिवार के लोग इस ओर ज्यादा ध्यान नहीं देकर कोई भी पानी और कोई भी चाय पी ले रहे थे। उनके डब्बे में बैठे कई लोग भी ऐसा ही कर रहे थे लेकिन कई लोग अपने धर्म के हिसाब से चाय और पानी पी रहे थे।

सुबह सुबह इनकी ट्रेन कोलाबा पहुंची और वहां से तांगा करके ये लोग किराए के घर में क्रॉफर्ड मार्केट के निकट नागदेवी रोड पर अब्दुल्ला बिल्डिंग में रहने आ गए। वहां तीन कमरों के फ्लैट में दिलीप कुमार का परिवार रहने लगा। दिलीप कुमार की पढ़ाई भी शुरु हुई और 1937 में उनके पिता ने उऩका नामांकन अंजुमन इस्लाम हाई स्कूल में पांचवीं क्लास में करवा दिया। फिर वहां से वो खालसा कॉलेज पहुंचे जहां रा कपूर से उनकी मुलाकात हुई। दोनों का पेशावर कनेक्शन था और दोनों दोस्त बन गए। दिलीप कुमार के पिता सरवर खान और राज कपूर के दादा बसेश्वरनाथ मित्र थे।

सरवर खान बहुधा बसेश्वरनाथ को कहा करते थे कि यार! तुम कैसे अपने बेटे पृथ्वीराज को नाचनेवालियों के साथ काम करने की इजाजत दे देते हो। उस दौर में फिल्मों में कई लोग पेशेवर नृत्यांगनाओं के बारे में इस शब्द का प्रयोग करते थे। जब युसूफ खान को देविका रानी ने फिल्मों में काम करने का प्रस्ताव दिया था तब दिलीप कुमार अपने पिता के रुख से परिचित थे, उनको इस बात की आशंका भी थी कि पिता उनको अनुमति नहीं देंगे। उन्होंने अपनी मां को बताया कि उनको एक नौकरी मिल गई है। मां ने जब पूछा कि क्या नौकरी मिली है तो उन्होंने ये कहकर मां को बरगला दिया कि उनकी अच्छी उर्दू की वजह से नौकरी मिली है।

बांबे टॉकीज में एक दिन अचानक उनको राज कपूर मिल गए, दोनों ने आश्चर्य से एक दूसरे को आश्चर्य से देखा और राज कपूर ने देविका रानी के सामने ही पूछ लिया कि तुम्हारे पिता जानते हैं कि तुम फिल्मों में काम करते हो। दिलीप कुमार ने फौरन बात बदल दी और खालसा कॉलेज के दौर की अपनी और राज कपूर बातें देविका रानी को बताने लगे। बाद में राज और दिलीप कुमार की दोस्ती और परवान चढ़ी। बहुत कम लोगों को मालूम है कि ‘संगम’ फिल्म के लिए राज कपूर ने दिलीप कुमार को ऑफर दिया था जिसे दिलीप साहब ने ठुकरा दिया था। तब दिलीप कुमार और राज कपूर के बीच एक खास तरह का खिंचालव रहता था, प्रतिद्वंदिता थी।

जब राज कपूर दिल्ली के एम्स के आईसीयू में भर्ती थे और जिंदगी की जंग लड़ रहे थे तो दिलीप कुमार उनसे मिलने अस्पताल पहुंचे थे। राज कपूर अचेत थे। दिलीप कुमार ने उनका हाथ अपने हाथ में लिया और कहने लगे ‘उठ जा राज! अब उठ जा, मसखरापन बंद कर। तू तो बेहतरीन कलाकार है जो हमेशा हेडलाइंस बनाता है। मैं अभी पेशावर से आया हूं और चपाली कबाब लेकर आया हूं। याद है राज हम बचपन में पेशावर की गलियों में साथ मिलकर ये स्वादिष्ट कबाब खाया करते थे।‘ बीस मिनट तक दिलीप कुमार आईसीयू में राज कपूर का हाथ अपने हाथ में लेकर बोलते रहे थे। आज दिलीप कुमार के निधन से एक युग का अंत हो गया।