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सिनेमा के दिग्गजों ने विभाजन के बाद मुंबई को बनाया अपनी कर्मभूमि, दंगों के कारण छोड़ना पड़ा था घर

एक बार फिर 15 अगस्त के साथ भारत अपनी आदाजी का जश्न मनाएगा। इसके साथ ही कुछ कड़वी यादें भी ताजा हो जाएगी। इनमें भारत का विभाजन भी शामिल है। इस घटना ने देश को दो हिस्सों में बांट दिया था जिसकी आंच हिंदी सिनेमा जगत पर भी पड़ी। कई नामी सितारे और संगीतकारों को पाकिस्तान में अपना घर छोड़ भारत आना पड़ा।

By Vaishali Chandra Edited By: Vaishali Chandra Updated: Fri, 09 Aug 2024 06:30 AM (IST)
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विभाजन ने बदली सिनेमा की तस्वीर, (X Image)
जागरण न्यूज नेटवर्क, मुंबई। एक ओर जहां भारतवासियों के चेहरों पर स्वतंत्रता की खुशी थी तो वहीं विभाजन का दंश भी था। लाखों लोगों को अपनी जड़ों को छोड़ना पड़ा था तो वहीं भारतीय सिनेमा पर भी इसका असर पड़ा। गायिका नूर जहां, संगीतकार गुलाम हैदर सहित कई कलाकारों ने पाकिस्तान में बसने का निर्णय लिया जबकि दिलीप कुमार, पृथ्वीराज कपूर जैसे कलाकारों की जड़ें अविभाजित हिंदुस्तान के पेशावर शहर से गहरी जुड़ी थीं, पर भारत को उन्होंने कर्मभूमि के रूप में चुना। संगीतकार साहिर लुधियानवी जैसी कुछ हस्तियां भी रहीं जिन्होंने पाकिस्तान जाने का निर्णय लिया लेकिन वहां के बदतर हालात देखकर उन्हें भारत लौटना पड़ा। कीर्ति सिंह का आलेख...

सुनो सुनो ऐ दुनिया वालों बापू की अमर कहानी... मोहम्मद रफी ने जब विभाजन के उपरांत महात्मा गांधी की हत्या को लेकर आहत मन से यह गाना गाया तो वह चर्चा में आ गए। विभाजन की पीड़ा मन में थी तो सांप्रदायिक शांति के लिए बापू की अपील भी मन में भीतर उतर गई। फिल्म ‘धूल का फूल’ में वह गाते हैं तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा... कुदरत ने तो हमको बख्शी थी एक ही धरती हमने उसको कहीं भारत कहीं ईरान बनाया...।

मोहम्मद रफी की जड़ें

मोहम्मद रफी की जड़ें पाकिस्तान से जुड़ी थीं, लाहौर में उन्होंने बतौर गायक पहली प्रस्तुति दी थी, पर भारतभूमि में बसने का निर्णय लिया। ये सच है कि सिनेमा और कलाकारों की कला किसी देश की सीमाओं में बंधी नहीं होती, लेकिन विभाजन ने उन्हें निजी जीवन में कुछ निर्णय लेने के लिए बाध्य कर दिया। दिलीप कुमार की जन्मस्थली अविभाजित हिंदुस्तान का पेशावर था तो पृथ्वीराज कपूर की स्नातक शिक्षा वहीं हुई थी।

राज कपूर का जन्म भी पेशावर में हुआ था, पर पंथ निरपेक्षता के भारतीय आदर्श, कला के लिए अनुकूल महौल व भारतभूमि से लगाव ने उन्हें भारत में बसने के लिए प्रेरित किया। सिनेमा का वह आरंभिक काल था, पर रचनात्मक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी थी। यही वजह रही कि धार्मिक पहचान से ऊपर उठकर मोहम्मद रफी, दिलीप कुमार, पृथ्वीराज कपूर जैसे कलाकार हर वर्ग के सिनेप्रेमियों के हृदय में बस गए।

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लाहौर में पत्रकार थी ये हस्तियां

धर्म, न्याय और कर्म के आदर्शों को सामने रखने वाले धारावाहिकों ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ बनाने वाले क्रमश: रामानंद सागर और बीआर चोपड़ा लाहौर में बतौर पत्रकार सक्रिय थे, लेकिन विभाजन के बाद जब सांप्रदायिक दंगे भड़के तो उन्हें परिवार सहित भागकर भारत आना पड़ा। अपनी फिल्मों में सामाजिक समस्याओं को उकेरने वाले बीआर चोपड़ा ने जब ‘नया दौर’ बनाई तो मानव श्रम और मशीन के मध्य संघर्ष को कथानक बनाया। मोहम्मद रफी के स्वर व ओपी नैयर के संगीत से सजे गाने, ये देश है वीर जवानों का... साथी हाथ बढ़ाना, एक अकेला थक जाएगा मिलकर बोझ उठाना... में मिलकर देश को आगे बढ़ाने का जज्बा दिखता है।

रामानंद सागर ने चुना भारत

रामानंद सागर लाहौर के निकट असल गुरु नामक स्थान पर जन्मे थे, जब वह भारत आए तो सारी धन संपत्ति वहीं छूट गई, पर कर्म पर विश्वास के साथ वह आगे बढ़े। बलराज साहनी, ए.के. हंगल भी पाकिस्तान से भारत आए। फिल्में समाज का प्रतिबिंब होती हैं, किंतु विभाजन का दर्द इतना तीक्ष्ण था कि लंबे समय तक फिल्मकार उसे फिल्मों का कथानक बनाने से हिचकते रहे। स्वतंत्रता के करीब 25 वर्ष बाद 1973 में विभाजन के दंश को उकेरती फिल्म बनी ‘गर्म हवा’ (1973)। बलराज साहनी अभिनीत इस फिल्म का प्रस्तुतिकरण इतना प्रभावशाली था कि राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित किए जाने के साथ ही कान और ऑस्कर पुरस्कारों के लिए भी नामांकन मिला।

हालात देख लौटना पड़ा भारत

गीतकार साहिर लुधियानवी आत्मकथा मैं साहिर हूं में लिखते हैं कि मैं स्वयं को असुरक्षित और अकेला महसूस कर रहा था। अंतत: जून 1948 में मैं लाहौर से भारत आने के लिए निकल पड़ा। लाहौर में जन्मे अब्दुल रशीद कारदार और निर्देशक महबूब खान ने भी पाकिस्तान का रुख किया, पर वहां के हालात देखकर भारत लौट आए। कारदार ने 1940 में ‘होली’ फिल्म बनाई थी। यह फिल्म श्वेत श्याम थी, पर भेद-भाव मिटाते होली के रंगों के माध्यम से उन्होंने से अमीरी-गरीबी की खाई पाटने का संदेश दिया था। भारतीय फिल्म इंडस्ट्री की सकारात्मकता का ही प्रभाव था कि महबूब खान प्रतिभावान कलाकारों नरगिस, राज कुमार, सुनील दत्त संग मिलकर ‘मदर इंडिया’ जैसी फिल्म का निर्माण कर सके, जो प्रतिष्ठित आस्कर पुरस्कार में प्रथम भारतीय प्रविष्टि बनी।

विभाजन ने किया मजबूर

देश विभाजन से पूर्व फिल्म निर्माण का केंद्र थे लाहौर और बंबई (अब मुंबई)। यह वह दौर था जब अभिनेत्रियों में गायन के हुनर को महत्व दिया जाता था। नूर जहां की गायकी इतनी लोकप्रिय थी कि उन्हें मलिका ए तरन्नुम संबोधित किया जाता था। वर्ष 1942 में शौकत हुसैन रिजवी निर्देशित ‘खानदान’ फिल्म में वह नायक प्राण संग मुख्य भूमिका में आईं और दर्शकों के दिलों में बस गईं। वर्ष 1947 में दिलीप कुमार संग उन्होंने हिट फिल्म ‘जुगनू’ दी। भारतीय फिल्म इंडस्ट्री की वह शीर्ष नायिका थीं, पर उनके पति शौकत रिजवी जिन्ना समर्थक थे, इसलिए दोनों लाहौर चले गए। लेखक मंटो ने 1948 में मुंबई छोड़ दिया। उनकी कृतियों पर ‘काली सलवार’ सहित कई फिल्में बनीं। फिल्मकार नजीर और उनकी पत्नी व अभिनेत्री स्वर्णलता, संगीतकार गुलाम हैदर और खुर्शीद अनवर भी पाकिस्तान चले गए। सुरैया का जन्म भी लाहौर में हुआ था। विभाजन के बाद वह और उनकी दादी मुंबई में बस गईं जबकि संबंधी पाकिस्तान जा बसे।

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