फिल्मों को सरदार ने दी थी जीवनी शक्ति, क्या था पटेल का ऐतिहासिक आश्वासन
स्वाधीनता के सालों बाद जब भारतीय फिल्म उद्गोय परिपक्व हुआ विश्व सिनेमा की बराबरी पर खड़ा होने लगा तब जाकर यहां विदेशी स्टूडियो को खोलने की अनुमति दी गई। भारतीय फिल्म जगत की वैश्विक सफलता के पीछे सरदार पटेल का सोच भी था।
By Anant VijayEdited By: Sanjay PokhriyalUpdated: Sat, 29 Oct 2022 10:23 PM (IST)
अनंत विजय। सरदार पटेल और फिल्म। सधारणतया इस ओर किसी का ध्यान नहीं जाता है। ऐसा कहने पर लोग चौंकते भी हैं। सरदार पटेल को स्वाधीनता के लिए संघर्ष करनेवाले अग्रिम पंक्ति के नेता, आधुनिक भारत के निर्माता,सख्त निर्णय लेनेवाले कुशल प्रशासक, राष्ट्रवाद के सजग प्रहरी आदि के तौर पर याद किया जाता है। लेकिन सरदार पटेल और फिल्म का बेहद गहरा नाता रहा है। स्वाधीनता आंदोलन के समय सरदार पटेल ने भारतीय फिल्मों के लिए एक ऐसा कार्य किया जिसने फिल्म जगत को लंबे समय तक प्रभावित ही नहीं किया बल्कि उसके विस्तार की जमीन भी तैयार कर दी। फिल्म को लेकर उनके योगदान की चर्चा करने से पूर्व यह जान लें कि उस समय फिल्मों को लेकर किस तरह का वातावरण था।
स्वाधीनता संग्राम के दौरान तिलक भारतीय फिल्मों के प्रबल समर्थक थे। कई पुस्तकों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि तिलक ने दादा साहब फाल्के की फिल्म राजा हरिश्चंद्र के समर्थन में लेख लिखा था। बाबू राव पेंटर का उनकी फिल्म ‘सैरंध्री’ के लिए सार्वजनिक अभिनंदन किया था। जवाहरलाल नेहरू भी फिल्मों के शौकीन थे। जब स्वाधीनता संग्राम में गांधी का प्रभाव बढ़ा तो अग्रिम पंक्ति के नेताओं के बीच फिल्मों को लेकर उदासीनता का भाव उत्पन्न हो गया। गांधी जी फिल्मों को पसंद नहीं करते थे। वो फिल्मों को समाज में बुराई फैलाने वाला माध्यम और नैतिकता विरोधी मानते थे। गांधी के इस सोच का असर कांग्रेस पर भी पड़ा था। उस दौर में हिंदी फिल्म जगत अपने पैरों पर खड़ा हो रहा था। कई फिल्मकार अपने पुरुषार्थ के बल पर भारतीय सिनेमा को मजबूती देने में लगे थे।
स्वाधीनता आंदोलन अपने अंतिम चरण में पहुंच चुका था। इस बीच एक बेहद दिलचस्प घटना घटी। 1945 में फिल्मकार और अभिनेता किशोर साहू ने अपनी फिल्म वीर कुणाल पूरी कर ली थी। किशोर साहू चाहते थे कि इस फिल्म का जब प्रदर्शन हो तो उस अवसर पर कोई बड़ा नेता उपस्थित रहे। मुश्किल ये थी कि कांग्रेस के नेता फिल्मों को लेकर या फिल्मों से जुड़े समारोह को लेकर बिल्कुल उत्साहित नहीं रहा करते थे। उनके अंदर की इस झिझक के बारे में किशोर साहू को पता था, लेकिन उन्होंने ठाना कि कांग्रेस के नेताओं और फिल्मों के बीच जो एक खाई बनती जा रही है उसको रोका जाए। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि ‘मन करने लगा कि कांग्रेस और कला के बीच की खाई को पाटने की कोशिश करूं। फिल्मों के प्रति कांग्रेसी नेताओँ के मन की झिझक को निकाल दूं।यह काम शेर की गुफा में जाकर शेर को नत्थी करने के समान था। पर मैंने कमर कस ली। उन दिनों कांग्रेस में कई शेर थे। मगर बब्बरशेर एक ही था- सरदार वल्लभभाई पटेल। मैंने तवज्जो इन पर दी।‘ फिल्म उद्योग से चंदा आदि जमा करने के सिलसिले में किशोर साहू का परिचय पुरुषोत्तमदास टंडन से था। टंडन जी जब बांबे (अब मुंबई) आते थे तो वो किशोर साहू को मिलने के लिए कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी के आवास पर बुलाया करते थे। इस तरह से किशोर साहू का मुंशी और श्रीमती लीलावती मुंशी से परिचय था।
किशोर साहू मुंशी जी के घर पहुंचे और लीलावती जी से पटेल से मिलवाने का अनुरोध किया। लीलावती जी ने किशोर साहू की सरदार पटेल से भेंट तय करवा दी। किशोर साहू नियत समय पर पटेल के मुंबई के घर पर पहुंच गए। पटेल की बेटी मणिबेन ने किशोर साहू को हिदायत दी कि पटेल साहब की तबीयत ठीक नहीं है इसलिए पांच मिनट में बात समाप्त कर वो निकल जाएं। जब किशोर साहू पटेल के कमरे में पहुंचे तो वो सोफे पर लेटे हुए थे। बातचीत आरंभ हुई। किशोर साहू ने कांग्रेस पार्टी पर फिल्मवालों की अवहेलना का आरोप जड़ा। साथ ही फिल्म जगत की समस्याएं भी बताईं। इस बीच पांच मिनट खत्म हो गए थे। मणिबेन ने कमरे में घुसकर किशोर साहू को बातचीत समाप्त करने का संकेत दिया। जब दो तीन बार मणिबेन कमरे में आई तो पटेल समझ गए। उन्होंने मणिबेन को कहा कि इस व्यक्ति को बैठने दिया जाए। तब किशोर साहू ने अन्य समस्याओं के साथ पटेल के सामने विदेशी स्टूडियो के भारत में कारोबार आरंभ करने की योजना के बारे में बताया । उनको ये भी बताया कि विदेशी कंपनियों के पास इतनी अधिक पूंजी है कि वो भारतीय फिल्मों की व्यवस्या को खत्म कर सकती है। करीब घंटे भर बाद पटेल ने पूछा कि आप क्या चाहते हैं? किशोर साहू ने उनसे कहा कि आप 1 दिसंबर (1945) को बांबे के नावेल्टी सिनेमा में मेरी फिल्म वीर कुणाल के प्रीमियर पर आएं और वहां से फिल्म जगत को आश्वासन दें कि कांग्रेस उनके साथ है।
सरदार पटेल ने किशोर साहू को वचन दिया कि वो अवश्य आएंगे। जब उन्हें पता चला कि एक दिसंबर को कलकत्ता (अब कोलकाता) में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक है। अब दुविधा में थे लेकिन फिल्म के प्रीमियर में जाने के अपने वादे पर अटल थे। उन्होंने इसका हल निकाला। अपने सहयोगी को चार्टर प्लेन की व्यवस्था करने को कहा। जिससे वो प्रीमियर के बाद कलकत्ता जा सकें। किशोर साहू ने अपनी फिल्म के प्रीमियर को खूब प्रचारित किया। लोगों में आश्चर्य का भाव था कि कांग्रेस के नेता कैसे फिल्म के प्रीमियर पर पहुंच रहे हैं। उत्सकुकता सरदार पटेल के वक्तव्य को लेकर भी थी कि वो क्या बोलेंगे। एक दिसंबर को सिनेमाघर के बाहर हजारों की भीड़ जमा थी। समय पर सरदार सिनेमा हाल पहुंचे। फिल्म आरंभ होने के पहले उनको मंच पर ले जाया गया। किशोर साहू ने फिल्म जगत की समस्या उनके सामने रखी। अब बोलने की बारी सरदार की थी। उन्होंने सबसे पहले फिल्म की सफलता की शुभकामनाएं दीं लेकिन उसके बाद जो कहा उसका दूरगामी असर पड़ा। सरदार ने लंबा भाषण दिया और पहली बार फिल्मों से जुड़े लोगों को आश्वस्त भी किया कि कांग्रेस फिल्म विरोधी नहीं है। अंत में उन्होंने चेतावनी के स्वर में कहा, जिस दिन विदेशी पूंजीपतियों ने हमारे देश आकर स्टूडियो खोलने की कोशिश की, तो याद रखें वो विदेशी, और याद रखे ये बरतानवी सरकार, उस दिन कांग्रेस अपनी पूरी ताकत के साथ इसका विरोध करेगी। जिस तरह नमक सत्याग्रह हुआ था, उसी तरह इन विदेशी पूंजीपतियों के स्टूडियो पर सत्याग्रह होगा और इस सत्याग्रह का नेतृत्व मैं खुद करूंगा।‘ किशोर साहू ने विस्तार से इस पूरे प्रसंग को अपनी आत्मकथा में लिखा है। भाषण के बाद सरदार पटेल ने मध्यांतर तक फिल्म देखी। उसके बाद कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में भाग लेने के लिए कलकत्ता चले गए। सरदार पटेल की इस चेतावनी के बाद विदेशी कंपनियों ने स्टूडियो खोलने की योजना रोक दी थी।
सरदार पटेल का वीर कुणाल के प्रीमियर पर दिया गया वक्तव्य फिल्मी के लिए एक बड़ी राहत लेकर आया था। उस दौर में जब गांधी फिल्मों का विरोध कर रहे थे, सरदार पटेल ने फिल्मों का ना केवल समर्थन किया बल्कि उसको आगे बढ़ाने के लिए हर संभव मदद का भरोसा भी दिया। गांधी के मत के खिलाफ जाकर कदम उठाने का साहस पटेल ने दिखाया था। अगर सरदार पटेल भारतीय फिल्मों के समर्थन में खड़े नहीं होते तो आज भारतीय फिल्म जगत किस स्थिति में होती, कहना कठिन है। स्वाधीनता के पहले ही हमारे देश में विदेशी स्टूडियो खुल गए होते और स्वदेशी फिल्मों पर विदेशी पूंजी का ग्रहण लग चुका होता। स्वाधीनता के सालों बाद जब भारतीय फिल्म उद्गोय परिपक्व हुआ, विश्व सिनेमा की बराबरी पर खड़ा होने लगा, तब जाकर यहां विदेशी स्टूडियो को खोलने की अनुमति दी गई। भारतीय फिल्म जगत की वैश्विक सफलता के पीछे सरदार पटेल का सोच भी था।