पश्चिम बंगाल से सुलगी थी चिंगारी, विदेशों तक फिल्मों का रहा दबदबा, फिर क्यों खत्म हो गया पैरेलल सिनेमा?
Parallel cinema के बारे में आपने सुना तो बहुत होगा लेकिन क्या आपको पता है कि यह क्या है और इसकी शुरुआत कब और किसने की थी। कैसे इसका नाम पैरेलल पड़ा और कौन सी फिल्में हैं जो इस सिनेमा के फिल्ममेकर्स ने बनाई हैं। कुछ फिल्मों ने दुनियाभर में नाम भी कमाया है। आज हम आपको पैरेलल सिनेमा से जुड़े सभी सवालों के जवाब बताने जा रहे हैं।
एंटरटेनमेंट डेस्क, नई दिल्ली। जब हिंदी सिनेमा में तेजी से कमर्शियल फिल्में बन रही थीं और निर्माता-निर्देशक जमकर पैसे छाप रहे थे, तभी कुछ फिल्ममेकर्स आये और अपनी नई सोच से सिनेमा का विस्तार किया। उन्होंने फिल्मों को नई धारा देने के लिए एक नया सिनेमा शुरू किया, जिसकी पहुंच सिर्फ देश ही नहीं विदेशों में भी रही। हम बात कर रहे हैं पैरेलल या समानांतर सिनेमा (Parallel Cinema) की।
हाल ही में एक खबर सामने आई थी कि स्मिता पाटिल स्टारर फिल्म 'मंथन' (Manthan) की कान्स 2024 (Cannes 2024) में स्क्रीनिंग होने वाली हैं। ये फिल्म पैरेलल सिनेमा की थी। इससे पहले भी इसी तरह की फिल्मों की कान्स समेत अन्य इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में प्रीमियर और स्क्रीनिंग हुई है। ऐसे में चलिये आज आपको बताते हैं कि आखिर ये पैरेलल सिनेमा है क्या और इसकी शुरुआत किसने की थी।
कब शुरू हुआ था पैरेलल सिनेमा?
पैरेलल सिनेमा की 1940s शुरुआत इटली से हुई थी। मगर इसे दुनियाभर में पहचान भारत में शुरू होने के बाद मिली। इटली के बाद देश में पैरेलल सिनेमा की चिंगारी 1940s में पश्चिम बंगाल से सुलगी। सत्यजीत रे, रित्विक घटक, बिमल रॉय, मृणाल सेन, तपन सिन्हा, ख्वाजा अहमद अब्बास, चेतन आनंद, गुरु दत्त और वी. शांताराम जैसे दिग्गज फिल्ममेकर्स ने फिल्म इंडस्ट्री में पैरेलल सिनेमा का आंदोलन शुरू किया।यह भी पढ़ें- सिर्फ एक सीन की खातिर Satyajit Ray ने साल भर रोक दी थी शूटिंग, इतनी मुश्किल के बाद बनी पहली फिल्म
कान्स में प्राइज जीतने वाली पहली भारतीय फिल्म
पश्चिम बंगाल से से शुरुआत के बाद पैरेलल सिनेमा का विस्तार हिंदी सिनेमा में भी हुआ। ख्वाजा अहमद अब्बास निर्देशित धरती के लाल और चेतन आनंद निर्देशित नीचा नगर वो फिल्में थीं, जिनका दुनियाभर में डंका बजा। नीचा नगर पहली फिल्म थी, जिसने कान्स फिल्म फेस्टिवल में ग्रैंड प्राइज (First Indian Movie Won Grand Prize at Cannes) जीता था।कमर्शियल फिल्मों से ऊब गये थे फिल्ममेकर्स
इन फिल्मों की अपार सफलता के बाद पैरेलल सिनेमा का दौर शुरू हुआ। कुछ बुद्धिजीवी फिल्ममेकर्स और स्टोरी राइटर्स धीरे-धीरे म्यूजिक फिल्मों से ऊब गये और उन्होंने दर्शकों को समाज की असलियत दिखाने का फैसला किया। पैरेलल सिनेमा का क्रेज मेकर्स के बीच बढ़ता गया और ऑडियंस को इतना भाने लगा कि बॉक्स ऑफिस पर सफलता मिलने लगी। बिमल रॉय की फिल्म दो बीघा जमीन (1953) इसका सबसे बड़ा उदाहरण था।इस फिल्म का भी कान्स में रहा बोलबाला
एक अमीर जमींदार के चंगुल से जमीन बचाने के लिए शहर जाकर मजदूरी करने वाले एक गरीब किसान पर आधारित दो बीघा जमीन को न केवल क्रिटिक्स की तरफ से प्यार मिला, बल्कि यह बॉक्स ऑफिस पर सफल भी रहा। इस फिल्म को कान्स फिल्म फेस्टिवल 1954 में इंटरनेशनल प्राइज मिला था। बस फिर क्या था, पैरेलल सिनेमा का जादू पूरे देश में छा गया।पैरेलल सिनेमा का गोल्डन एरा
70 और 80 का दशक पैरेलल सिनेमा के लिए गोल्डन एरा (Golden Era of Parallel Cinema) था। इस दौर में गुलजार, श्याम बेनेगल, मणि कौल, रजिंदर सिंह बेदी, सईद अख्तर मीर्जा और गोविंद निहलानी जैसे फिल्ममेकर्स ने मसाला फिल्मों को बनाने की बजाय समाज की सच्ची कहानियों को दिखाया।क्या होता पैरेलल सिनेमा?
पैरलल सिनेमा का मतलब उन फिल्मों से है, जिसमें कोई मसाला, ड्रामा या नाच-गाना नहीं होता है। समाज से जुड़ी कहानी को उसी तरह दिखाया जाता है, जैसी वह हैं। पैरलल सिनेमा की फिल्मों में गंभीर मुद्दे, रियलिज्म और नेचुरलिज्म कंटेंट मिलता था। 70 और 80 दशक तक तो यह आंदोलन अपने चरम पर था, मगर फिर इसका पतन भी शुरू होगा।क्यों डूबा पैरेलल सिनेमा?
इसकी सबसे बड़ी वजह है, रिस्क। कहानियों में चटखारे वाले मसाले ना होने की वजह से पैरेलल सिनेमा की फिल्मों के चलने की कोई गारंटी नहीं हुआ करती थी। ये फिल्में क्रिटिक्स और अवॉर्ड समारोहों में तो खूब तारीफें पाती थीं, मगर बॉक्स ऑफिस पर इनका चलना बेहद मुश्किल होता था। ऐसे में फिल्मों पर जो पैसा लगाया जाता था, उसका रिटर्न मिलने की कोई गारंटी नहीं हुआ करती थी। इसी वजह से प्रोड्यूसर्स आर्ट फिल्मों पर ध्यान नहीं देते थे। धीरे-धीरे इनको लेकर मेकर्स की दिलचस्पी कम होने लगी। नेशनल फिल्म डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया ने कुछ फिल्मों के निर्माण में सहयोग किया, मगर समानांतर सिनेमा की उम्र लम्बी करने के लिए इतना काफी नहीं था।ये सितारे थे पैरेलल सिनेमा का चेहरा
शबाना आजमी, स्मिता पाटिल (Smita Patil), अमोल पालेकर, ओम पुरी, नसीरुद्दीन शाह, कुलभूषण खरबंदा, पंकज कपूर, दीप्ति नवल और फारूख शेख जैसे कलाकार पैरेलल सिनेमा का चेहरा रहे। इनके अलावा कमर्शियल फिल्मों की हीरोइंस हेमा मालिनी, राखी और रेखा ने भी मसाला फिल्मों के साथ आर्ट फिल्मों में काम किया है।पैरेलल सिनेमा की बेस्ट फिल्में
- अर्ध सत्य
- बाजार
- मंडी
- एक डॉक्टर की मौत
- निशांत
- मासूम
- स्पर्श
- आक्रोश
- रुई का बोझ
- मंथन