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Yash Chopra: जानें, किसकी सलाह पर यश चोपड़ा बने थे निर्देशक, क्लासिक फ़िल्मों से रचा इतिहास

Yash Chopra ने जिन 22 फ़िल्मों का निर्देशन किया उनमें कम से कम 12 फ़िल्मों को भारतीय सिनेमा की क्लासिक फ़िल्में माना जाता है जिन्होंने सिनेमा के सफ़र की रहनुमाई की और फ़िल्मों को मनोरंजन के साथ सरोकार से जोड़ने का सबक आने वाली नस्लों को सिखाया।

By Manoj VashisthEdited By: Updated: Tue, 20 Oct 2020 09:22 PM (IST)
यश चोपड़ा को किंग ऑफ़ रोमांस कहा जाता है। (Photo- Mid-Day)
नई दिल्ली, जेएनएन। 53 साल... 22 फ़िल्में... कम से कम 12 क्लासिक। यश चोपड़ा को जानने के लिए पहले इस आंकड़े को समझना होगा। 53 साल के निर्देशकीय करियर में यश चोपड़ा ने सिर्फ़ 22 फ़िल्मों का निर्देशन किया। इसका औसत निकालें तो उन्होंने एक साल में एक से कम फ़िल्म बनायी।

सवाल उठता है कि ख़ुद निर्माता-निर्देशक होते हुए यह संख्या इतनी कम क्यों है? तो इसका जवाब है, उनके द्वारा निर्देशित फ़िल्मों की विरासत। यश चोपड़ा ने जिन 22 फ़िल्मों का निर्देशन किया, उनमें कम से कम 12 फ़िल्मों को भारतीय सिनेमा की क्लासिक फ़िल्में माना जाता है, जिन्होंने सिनेमा के सफ़र की रहनुमाई की और फ़िल्मों को मनोरंजन के साथ सरोकार से जोड़ने का सबक आने वाली नस्लों को सिखाया। 

अपने भाई बीआर चोपड़ा की कम्पनी में बतौर असिस्टेंट करियर शुरू करने वाले यश चोपड़ा के फ़िल्मों के लिए जज़्बे को उनकी एक बात से समझा जा सकता है, जो उन्होंने एक इंटरव्यू में कही थी- ''मैंने आज तक एक भी फ़िल्म ऐसी नहीं बनायी, जिसमें मुझे यक़ीन ना हो। मुझे अपनी सभी फ़िल्में प्रिय हैं, मगर जो सफल रहती हैं, उनसे जुड़ाव स्वाभाविक है। लेकिन, जिन फ़िल्मों ने बॉक्स ऑफ़िस पर अच्छा प्रदर्शन नहीं किया, उनसे भी कोई मलाल नहीं है।''

21 अक्टूबर को इस महान फ़िल्ममेकर को याद करने का दिन है। ठीक आठ साल पहले 2012 में 80 साल की उम्र में यश जी ने इस दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया था। उनका निधन डेंगू से हुआ था। यश चोपड़ा को भले ही 'लार्जर दैन लाइफ' रोमांस रचने के लिए उन्हें याद किया जाता हो, पर सच तो यह है कि उनकी फ़िल्में दिलों को छू लेती हैं। उनके क्लासिक होने की यही प्रमुख वजह भी है।

यश चोपड़ा का जन्म 27 सितंबर 1932 को लाहौर में हुआ था। वे अपने माता-पिता की आठ संतानों में सबसे छोटे थे। उनकी पढ़ाई लाहौर में ही हुई। 1945 में उनका परिवार पंजाब के लुधियाना में बस गया। यश चोपड़ा इंजीनियर बनने की ख्वाहिश लेकर बंबई (मुंबई) आए थे। लेकिन, पढ़ाई के लिए लंदन जाने से पहले ही यश चोपड़ा बतौर सहायक निर्देशक बड़े भाई बीआर चोपड़ा के साथ जुड़ गये। उसके बाद वो जैसे सिनेमा के ही होकर रह गए।

यश जी ने अपने आखिरी इंटरव्‍यू में बताया था कि बड़े भाई बी आर चोपड़ा के साथ 1958 में 'साधना' फ़िल्म में काम करने के दौरान उनकी पहचान वैजयंतीमाला से हुई और उन्होंने कहा कि निर्देशन के क्षेत्र में मुझे ध्यान लगाना चाहिए। साल 1959 में उन्होंने पहली फ़िल्म धूल का फूल का निर्देशन किया।

1961 में 'धर्मपुत्र' और 1965 में मल्टीस्टारर फ़िल्म 'वक्त' बनाई। तब तक उन्होंने यह साबित कर दिया था कि वो इस इंडस्ट्री को कुछ देने के लिए आये हैं। 1973 में उन्होंने अपनी प्रोडक्शन कंपनी 'यशराज फ़िल्म्स' की नींव रखी। यश चोपड़ा को किंग ऑफ़ रोमांस कहा जाता है, लेकिन उन्होंने कभी घिसी-पिटी लव स्टोरी नहीं बनायीं। दाग़ और 'लम्हे' जैसी वक़्त से आगे की प्रयोगधर्मी फ़िल्मों से लेकर उन्माद से भरी दीवानगी वाली 'डर' और सरहद पार की प्रेम कहानी 'वीर ज़ारा' यश जी के साहस को दर्शाती हैं। दाग़ फ़िल्म से वो निर्माता भी बन गये थे। 

यश चोपड़ा को सिर्फ़ रोमांस की हदों में समेट देना भी नाइंसाफ़ी होगी। जितनी शिद्दत से उन्होंने अपने नायक को रूमानी बनाया, उतने ही तेवरों के साथ उसे एंग्री मैन बनाया। दीवार, त्रिशूल, काला पत्थर और मशाल जैसी फ़िल्में सिस्टम और परिस्थितियों के आगे बेबस नायक की छटपटाहट के गुबार को पर्दे पर लेकर आयीं। 

अमिताभ बच्चन के करियर को विविधता देने में यश जी की अहम भूमिका रही। दीवार, त्रिशूल और काला पत्थर से अलग अमिताभ को उन्होंने 'कभी-कभी' में "मैं पल दो पल का शायर हूं" गाते हुए दिखाया तो 'सिलसिला' में उन्हें एक मैच्योर प्रेमी के रूप में सामने लेकर आए। 

इसी तरह नब्बे दशक से आख़िरी सालों तक उन्होंने शाह रुख़ ख़ान को उनके करियर की यादगार फ़िल्में दीं। 1993 में आयी डर, 1997 की दिल तो पागल है, 2004 की वीर ज़ारा और 2012 की आख़िरी फ़िल्म जब तक है जान, किंग ख़ान के करियर की बेहतरीन फ़िल्में मानी जाती हैं। 

हिंदी सिनेमा में उनके शानदार योगदान के लिए 2001 में उन्हें भारत के सर्वोच्च सिनेमा सम्मान दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। फ़िल्मों की शूटिंग के लिए यश चोपड़ा का स्विट्‍जरलैंड फेवरेट डेस्टिनेशन था। अक्टूबर 2010 में स्विट्‍जरलैंड में उन्हें स्विस एम्बेस्डर अवॉर्ड से भी नवाजा गया था। स्विट्‍जरलैंड में उनके नाम पर एक सड़क भी है और वहां पर उनके नाम से एक ट्रेन भी चलाई गई है।