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'मैं जिंदगी में हर घेरे को तोड़ना चाहती हूं, अपनी इमेज में बंधी नहीं हूं', जागरण संवादी में बेबाक बोलीं कंगना

कंगना रनौत ने हिंदी सिनेमा में अपनी अदाकारी और बेबाक अंदाज से एक अलग मुकाम हासिल किया है। वह एक ऐसी अभिनेत्री हैं जो अपनी इमेज में बंधकर नहीं रहतीं। हाल ही में उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में आयोजित दैनिक जागरण के हिंदी हैं हम अभियान के अंतर्गत आयोजित जागरण संवादी के मंच पर अपनी जिंदगी के कई पहलुओं पर खुलकर बात की।

By Jagran News Edited By: Sonu Suman Updated: Sat, 14 Sep 2024 09:15 PM (IST)
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जागरण संवादी के हिंदी हैं हम में बेबाक बोलती दिखीं कंगना रनौत।

जागरण संवाददाता, नई दिल्ली। हिंदी फिल्मों की ऐसी अभिनेत्री जिसने अपनी कला और हुनर से चमकते सितारों को चुनौती दी। उनके अभिनय में वो गहराई है जो किसी भी पात्र को रूपहले पर्दे पर जीवंत कर देती है। हिमाचल प्रदेश के एक कस्बे से निकलकर मुंबई की मायानगरी में कंगना ने अपने दम जो ख्याति अर्जित की उसकी मिसाल दी जा सकती है। फिल्मी दुनिया में अपनी सफलता के झंडे गाड़कर जब वो राजनीति के मैदान में उतरी तो मंडी लोकसभा सीट से कांग्रेस के दिग्गज उम्मीदवार को पराजित कर दिया।

अपनी बेबाक बोल के लिए जानी जानेवाली कंगना के व्यक्तित्व का एक दूसरा आयाम भी है। दिल्ली में आयोजित दैनिक जागरण के हिंदी हैं हम अभियान के अंतर्गत आयोजित जागरण संवादी के मंच पर कलाविद यतीन्द्र मिश्र के साथ बातचीत में एक अलग ही कंगना दिखी, जो किसी भी मुद्दे पर संजीदगी से अपनी बात रख रही थीं।

सवाल: एक बड़े फिल्मकार ने कहा कि कैमरे के बाहर जीवन है और कैमरे के अंदर जो है वह सिनेमा है। कैमरे के अंदर की जिंदगी आपने जी। क्या आप कैमरे के बाहर की उस जिंदगी को मिस करती हैं?

कंगना: मैंने बहुत छोटी उम्र में ही घर छोड़ दिया था। खैर, वह तो बचपन था। क्या इस उम्र में उस समय को मिस करती हूं। अक्सर तो नहीं, लेकिन जब मेरी जिंदगी में बहुत उतार-चढ़ाव चल रहे होते हैं, उस समय जब मैं कुछ सहेलियों से मिलती हूं ...जो पारिवारिक जिंदगी में हैं। जिनके बच्चे हैं, पति है और वह एक सामान्य जीवन जी रही हैं। एकदम नर्चर्ड और प्रोटेक्टिव लाइफ जी रही हैं...कभी-कभी मन में विचार आता है कि क्या होता यदि मैंने यह रास्ता चयन नहीं किया होता।    

सवाल: सिनेमा में आप आईं,  शुरुआती फिल्में खासतौर पर 'गैंगस्टर', 'फैशन', 'वंस अपन अ टाइम इन मुंबई'। एक बिगड़ी-सी लड़की, नशे में...थोड़ी-सी बिगड़ी हुई थी। जिसे देखकर दर्शकों को लगा कि यह पड़ोस में एक लड़की हो, जो परेशानी में गुजर रही है, गलत सोहबत में पड़ गई...तो वह ऐसी ही होगी। क्या इन किरदारों को निभाते वक्त आपने किसी सहेली या दोस्तों को केरिकेचर किया है?  

कंगना: बहुत ही हैरानी की बात है। मैंने हमेशा ही अपने साक्षात्कारों में कहा कि मैं पैदाइशी दु:खी आत्मा हूं। मैं छोटी-सी उम्र से ही गालिब को सुनती थी। मात्र नौ-दस साल की उम्र में।  मुझे पैथोस (दुखभरी गाथा)..मैलंकली (उदासी) बहुत अच्छा लगता था। मैं खुद भी कविताएं लिखती थी। मुझे सब कहते थे कि तुम्हें क्या गम है। पांचवीं-छठी कक्षा में पढ़ने वाली...मैं किशोरावस्था तक ही नहीं पहुंची थी' लेकिन दु:खी गाने पसंद आते थे। (हंसते हुए...इस पर मेरे मीम्स भी बनते हैं कि मैं दु:खी गाने सुनती हूं)।  मेरे जो डायरेक्टर थे... उस समय मेरी आंखों में होल-सोल मलंकली थी, जबकि उस समय मैं टीन एजर थी। उस वक्त मेरे साथ कोई हादसा नहीं हुआ था। (हंसते हुए... हां, उसके बाद फिल्म इंडस्ट्री में बड़े हादसे हुए)। मैं बहुत आरामदेह जिंदगी जी रही थी। हां, एक संघर्ष का दौर था। मुझे काम नहीं मिल रहा था। मैं मारी-मारी फिरती थी, लेकिन दु:खी लोग या उनका जीवन मुझ पर काफी असर डालते हैं।  यही वजह है मैं पीड़ित महिलाओं का कैरेक्टर,  सिमरन... या फिर वो लम्हें...जिसमें स्कीजोफ्रेनिक परवीन बाबी का कैरेक्टर। और फैशन में दु:खों का अंबार था। एक अकेली युवती, जो सड़क पर पहुंच जाती है... मुझे इस नोड से बहुत सिम्पैथी (सहानुभूति) है। मेरे ड्रंक कैरेक्टर (नशे में धुत किरदार) कैरिकेचर्स नहीं है। जैसे मैं अभी बात कर रही हूं, संभवतः मेरे किरदारों में एक सुर ज्यादा लगा होगा। मैंने कभी भी नशे में रहने या नशीली दवाओं के प्रभाव में रहने पर ध्यान केंद्रित नहीं किया। यहां तक ​​कि 'फैशन' की तरह वह कहां घूमती थीं, कहां ड्रग्स लेती थीं और रैंप पर वॉक करती थीं, लेकिन आप बता नहीं सकते। यह पूरा विचार है ताकि आप उन लोगों को जज न करें बल्कि उनसे आइडेंटिफाई करें।      

सवाल: जो लड़की मैलंकली में जीती है, जो गालिब को पढ़ती है। वह स्कूल-हॉस्टल लाइफ में ओशो को पढ़ती है। ओशो तो सबको लिबरेट करते हैं? ओशो तो बहुत जगह से चीजों को बटोरकर लाते हैं। ऐसा नहीं लगता है कि गालिब, ओशो और कंगना कुछ इम्बैलेंस (असंतुलित) था? 

कंगना: नहीं....ओशो ने मेरे जीवन में बहुत प्रभाव डाला। ओशो ने भी एक व्यक्ति के रूप में मेरी जागृति में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वह जो चीजों को लेकर डिसइल्यूशनमेंट है। जो भी सांसारिक चीजें हैं, उनको लेकर वह ब्लेटेंट है। वह आपको जस का तस बता देते हैं कि क्या है दुनिया की सच्चाई है? क्या है रिश्तों की सच्चाई? क्या है जीवन की परिवर्तनशील प्रकृति? कैसा हर चीज में लेन-देन है...चाहे वह परिवार है, भाई-बहन है, चाहे रिश्ते हैं या फिर अभिभावक हैं?...आप परफार्म नहीं करेंगे, आप कमा नहीं पाएंगे, तो चीजें बदल जाएंगी। शायद प्यार नहीं बदलता। लोगों का आपके साथ व्यवहार करने का तरीका... बदल गया। यदि कोई बच्चा उनको बचपन से यह सब पढ़ ले, समझ ले तो मैलंकली उसकी जिंदगी का हिस्सा बन ही जाएगा। जैसे दुनिया की सच्चाई आपको समझ आ जाए तो वह ऐसा ही हो जाएगा। जैसे उदाहरण के लिए मेरी पसंदीदा फिल्म है 'प्यासा'... यह फिल्म वैसी ही है, जैसा मेरा बचपन है, जिसे मैं ठीक से शब्द नहीं दे पाई। मैं जिंदगी की सच्चाई को कुछ समझ रही थी और कुछ चीजें नहीं समझ पा रही थी...यह वह मैलंकली थी। मैं कुछ-कुछ थिंकर टाइप थी।  

सवाल: आपने बताया कि आपकी पसंदीदा फिल्म है 'प्यासा'। 'प्यासा' रीमेक हो तो आप माला सिन्हा जी या वहीदा रहमान जी का रोल प्ले करना चाहेंगी?

कंगना: निश्चित रूप से वहीदा रहमान जी।  

सवाल: आप एक तरफ वैसी फिल्में कर रही थीं, जिसमें सफलता की सीढ़ी चढ़ रही थीं? फिर 'मणिकर्णिका' क्यों? सेफ जोन में रहने के बाद यह शिफ्ट क्यों? आप क्या साबित करना चाहती थीं?

कंगना: बहुत लोग यह नोटिस नहीं करते हैं कि मैं एक मात्र ऐसी कलाकार हूं, जो अपनी इमेज में बंधी हुई नहीं हूं। मैं कभी भी जिंदगी में सर्कल में नहीं जाऊं। उस सर्कल को तोडूं। स्पॉट रनिंग न करूं। 'मणिकर्णिका' के बाद मैंने फिल्में डायरेक्ट की।  मैंने अलग-अलग रोल किए। मैं हमेशा खुद को चुनौती देती रहूंगी।

सवाल: आपकी जिंदगी में ऐसे बहुत से पक्ष हैं, जैसे घर से भागना, रिबेलनेस...। आपके बारे में ऐसी बहुत-सी जानकारियां इंटरनेट मीडिया पर हैं?  

कंगना: मैं बच्चों से कहना चाहती हूं कि मैं घर से भागी नहीं थी। मैं, बस पकड़कर मुंबई पहुंची थी। मेरे पापा से मेरी बहुत लंबी बातचीत हुई थी। उनको बताकर फिर मैं घर से निकली थी। यहां जो बच्चे बैठे हैं, मेरा परिवार भी ऐसा ही है। जहां एक साल ड्रापआउट करना... कम्पार्टमेंट आना स्वीकार्य ही नहीं है। बहुत बड़ी आफत होती है। मां-बाप कहीं के नहीं रहते हैं। यहां बच्चा कह रहा है कि मुझे स्कूल जाना ही नहीं है। स्कूल-कालेज भेजकर तो दिखाओ....। मेरे इस तरह के ढीठ व्यवहार पर थोड़ी बहुत डांट-फटकार भी पड़ी, लेकिन फिर मेरे पापा ने सोचा कि बेटी बड़ी हो गई है। एक हद से दबाव डालने से कहीं कोई गलत कदम नहीं उठा ले तो उन्होंने कहा...तुम अपने हिसाब से करो...मेरे और भी बच्चे हैं। मेरे पास आपकी सनक और पसंद के लिए पैसे नहीं हैं। तुम अपना ख्याल रखना। तो मैंने उनको कहा कि बहुत बढ़िया। इससे अच्छा तो कुछ हो नहीं सकता। उस समय मेरे पापा को लगा था कि भटककर एक महीने बाद लौट आएगी, पर उसके बाद मैं लौटकर नहीं गई। (घर तो जाती हूं, लेकिन उस तरह से नहीं लौटी)।          

सवाल: आप बहुत आज्ञाकारी बेटी थीं, फिर आप ऐसी रिबेल क्यों हो गईं। यह पैराडाइम शिफ्ट यानी आमूल-चूल परिवर्तन कैसे हुआ?

कंगना: मैं शायद ठीक से इसकी व्याख्या नहीं कर पाऊंगी...। मेरे अंदर और बाहरी दुनिया... मेरे ऊपर बहुत सारे दबाव थे। मैं घर में स्टार चाइल्ड थी, लेकिन जब मैं बाहर पढ़ने गई तो मैं अच्छा परफार्म नहीं कर पाई। तब मेरे माता-पिता मेरा बहुत अपमान करते थे... कहते थे कि बड़ी-बड़ी बातें करना, लेकिन कुछ। कई बार माता-पिता अनजाने में ऐसा कर जाते हैं। वह भूल जाते हैं कि बच्चों का अपना संघर्ष होता है। हिंदी से इंग्लिश मीडियम में शिफ्ट हुई। बहुत बड़ा परिसर था, वहां भी मैं खुद को फिट नहीं पाती थी। मेरी बहन भी बड़े स्कूल में शिफ्ट हो गई। उसे भी परेशानी हुई तो उसने घर जाकर बता दिया, लेकिन मैं यह कभी नहीं कहती थी। मैं, गांव नहीं जाना चाहती थी। हमेशा बैक बेंचर बनकर रहना। एक 'प्रामिसिंग अपब्रिगिंग' के बीच मैं हर जगह से जलील हो रही थी। इसी बीच मैं अपनी रूम मेट बोंडिना (वर्तमान में मणिपुर की ख्यात कलाकार) से बहुत प्रभावित थी। वह कला संकाय लेकर पढ़ाई कर रही थी। उनको देखकर मुझे ऐसा कुछ करने का उत्साह जागता था। मैंने पापा से भी कहा कि मुझे आर्ट्स में शिफ्ट कर दें, लेकिन तब मेरे पिताजी ने कहा कि इतने पैसे खर्च करके सिलाई-बुनाई करना है तो लोकल टेलर के पास चली जाओ। इन सब चीजों के बीच मेरे पास कुछ खोने को नहीं था। यही मैंने मेरे परिवार को समझाया। जिंदगी में कुछ करने का उत्साह ओर से मिल रही जलालत की वजह से मेरे भीतर जिस द्वंद ने जन्म लिया था, उसकी वजह से ही मैंने घर से बाहर निकलकर अपने लिए रास्ता तलाशने का निर्णय लिया। मेरे पास अपने परिवार के साथ खोने के लिए कुछ भी नहीं है....इसलिए मैं अपने परिवार से हमेशा यह कहती हूं कि आप बच्चों को इतना भी मत गिरा दो ...। तो फिर कोई बात नहीं... आप किसी भी तरह मेरी इज्जत नहीं करते...तो वह मेरे लिए एक ट्रिगर बन गया कि घर छोड़कर जाना है। यहां नहीं रहना है।  

सवाल: आप दिल्ली विश्वविद्यालय के बच्चों के सामने यह कह रही हैं कि मुझे कॉलेज भेजकर तो दिखाओ....तो इन्हें बताइए, अपने इस कदम को लेकर क्या सोचती हैं?

कंगना: मैं सब बच्चों से कहना चाहूंगी कि मुझे सचमुच अफसोस है, मैं कॉलेज न जा पाने की भरपाई करती हूं। मैं इसकी इतनी भरपाई करती हूं कि आप मेरे भाषण, मेरी अभिव्यक्ति में देख सकते हैं, चाहे वह स्पिरिच्युअल एजुकेशन हो या साइंस या आर्ट्स एजुकेशन हो या फिर न्यूयार्क फिल्म अकादमी में स्क्रीन राइटिंग किया हो या फिर बांद्रा में मेरे घर के पास स्थित रामकृष्ण मिशन की लाइब्रेरी में जाकर क्वांटम फिजिक्स, बायोलॉजी की ढेरों किताबें पढ़ी हैं। खुद को अपग्रेड करने के लिए मुझे दस साल में इतना पढ़ना पढ़ा कि ग्रेजुएशन में इतना नहीं पढ़ना पड़ता। कंगना तो दसवीं तक पास है और यहां पहुंची है। ऐसा नहीं है। यहां तक पहुंचने के लिए मुझे खुद को बहुत अपग्रेड करना पड़ा। जिंदगी में नॉलेज (ज्ञान) बहुत जरूरी है।

सवाल: आपने 'मणिकर्णिका' डायरेक्ट की। 1933 में सोहराब मोदी 'झांसी की रानी' फिल्म बना चुके थे। अन्य प्लेटफार्म पर भी इस पर कई फिल्में बन चुकी थीं। क्या वजह थी कि आपने फिर यही विषय चुना?

कंगना: अपने समय की वह सभी फिल्में बहुत चर्चित होगीं। हर जेनरनेशन को अपनी एक कहानी चाहिए होती है। 10-12 साल बाद मणिकर्णिका फिल्म शायद अच्छी न लगे। उनको फिर इसी विषय पर फिर फिल्म की जरूरत हो। मुझे लगता है कि हमारी पीढ़ी को हमारी इतिहास याद दिलाने के लिए इस तरह के रिमाइंडर की जरूरत होती है। मुझे लगता है कि देश को कोई बचा सकता है तो हिंदीभाषी बच्चे ही बचा सकते हैं। अंग्रेजी कल्चर में पले-बढ़े बच्चों को तो ओक वायरस (ऐसा वायरस, जो पेड़ों को जड़ से खत्म कर देता है ) लग चुका है। यदि हमारी भाषा. धर्म, संस्कार को कोई बचा सकता है तो सिर्फ हिंदी भाषी क्षेत्र के बच्चे हैं। उनको जड़ों से जोड़ने रखने के लिए इस तरह की फिल्में बनते रहना चाहिए।      

सवाल: कौन सी फिल्म रीक्रिएट करना चाहेंगी?

कंगना: यदि रीक्रिएट करने को मिले तो गाइड फिल्म दोबारा बनाना चाहूंगी। दरअसल आज की युवा पीढ़ी गाइड की रोजी की तरह जीना चाहती है। मैं क्रिएटिव पोवर्टी (रचनात्मक गिरावट)। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को अभी नए टैलेंट, नए माइंड की जरूरत है। मैंने तो अपना घर गिरवी रखकर फिल्म बनाई है। यदि अच्छे डायरेक्टर और प्रोड्यूसर मिलते, तो मैं यह काम नहीं करती।

सवाल: एक दिन के लिए आपको आम इंसान बना दिया जाए तो क्या करेंगी?

कंगना: पुरानी दिल्ली में बहुत दूर तक पैदल चलना चाहूंगी...और कोई मुझे परेशान न करे।  

सवाल: आपकी आत्मकथा का शीर्षक क्या होगा?   

कंगना: शायद माउंटेन गर्ल।

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