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हिंदी सिनेमा में दीपावली की अभिव्‍यक्ति, जब भावों की रंगोली पर सजते थे गीतों के दीप

एक समय था जब हिंदी सिनेमा में दीपावली की अभिव्यक्ति पर्व की विविधता और परंपरा को दर्शाती थी। तब गीतों में मिट्टी के दीपकों के बीच जगमगाते चेहरों की रंगत अलग ही चमकती थी। दीपावली की उन्हीं यादों को ताजा करता आलेख

By Jagran NewsEdited By: Aarti TiwariUpdated: Sat, 22 Oct 2022 05:28 PM (IST)
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पारंपरिक अंदाज में नजर आती थी उन गीताें में दीपावली की लौ

 विनोद अनुपम

ज्योति कलश छलके/ हुए गुलाबी लाल सुनहरे रंग दल बादल के/ ज्योति कलश छलके/घर आंगन वन उपवन उपवन/करती ज्योति अमृत के सिंचन/ मंगल घट ढलके, ज्योति कलश छलके।’

पं. नरेंद्र शर्मा के ये शब्द लता मंगेशकर की आवाज में जब आज भी सुनाई देते हैं तो दीपावली की रोशनी जैसे मनप्राण आलोकित कर देती है, लेकिन वह साल 1961 था, जब दीपावली का मतलब खरीदारी नहीं, रोशनी का त्योहार होता था। बिजली की झालरें नहीं लगाई जाती थीं, दीपकों में तेल-बाती रख रोशनी की जाती थी। किसी के बताए बगैर भी हमें पता होता था कि दीपावली भगवान श्रीराम के अयोध्या लौट आने की खुशी में मनाई जाती है। वह समय था जब गांव, समाज, परिवार, रिश्ते कहानियों भर में नहीं थे। उन्हें हम जीते थे, उनसे सीखते थे। मां-बुआ से दीपावली के अवसर पर लीपना और रंगोली बनाना सीखा जाता था, तो चाचा से कंदील बनाकर रोशन करना। बहनों के साथ कच्ची मिट्टी के घरकुंडे बनाने का अलग ही सुख था। बुजुर्गों को लक्ष्मी पूजन करते देखा जाता था और उसी तरीके से उसी परंपरा का निर्वहन आगे तक करने की कोशिश की जाती थी। गांव, समाज समय के साथ छूट जाता था, लेकिन परंपराएं साथ रहती थीं, हमारे साथ चलती थीं।

वैसे यह नई सदी के पहले की बात है, अब जैसे-जैसे परिवार, समाज और गांव से दूर शहरों में सिमटते गए, हमारे त्योहार भी परंपरा से दूर होते गए। त्योहारों में क्या करना चाहिए, की बातें कम होने लगी, क्या नहीं करना चाहिए, चर्चा में वह रहने लगा। 1951 में जिस तरह देव आनंद के साथ रमोला ‘स्टेज’ में परदे पर गुनगुनाती दिखती थीं-

‘जगमगाती दीवाली की रात आ गई/ जैसे तारों की घर में बारात आ गई/ जैसे फूल के चेहरे पे रंग आ गया/ जैसे कलियों को हंसने का ढंग आ गया/जैसे दुल्हन नसीहत से शरमा गई।’

दीपावली के उत्साह में हिंदी सिनेमा ने शामिल होना ही छोड़ दिया है। दीपावली ही क्यों, बीते कई वर्षों में शायद ही कोई फिल्म हो, जिसमें त्योहार को उसके पारंपरिक अंदाज में दिखाया गया हो।

अभिव्यक्ति के रूप अनेक

‘कभी खुशी कभी गम’ जैसी बाजार को समर्पित फिल्मों ने हमें दीपावली का एक नया तरीका समझाया। स्टाइलिश कपड़े पहनो, स्टाइलिश जेवर पहनो, स्टाइलिश मोमबत्ती जलाओ, स्टाइल से खडे़ हो जाओ, स्टाइल से पूजा कर लो, बस हो गई ‘सभ्य’ लोगों की दीपावली। कश्मीर से कन्याकुमारी और कच्छ से कामरूप तक ‘एलिट’ में शामिल होना चाहते हैं तो बस यही तरीका स्वीकार करना होगा दीपावली का। जबकि हमारे त्योहारों की विशेषता ही विविधता में रही है, कोई दीपावली ‘लुक्का पाती’ खेलकर मना रहा है तो कोई सिर्फ दीपक जलाकर। कोई लड्डू खा रहा है तो कोई चीनी-गुड़ के रंग-बिरंगे खिलौने। तब हिंदी सिनेमा में दीपावली की अभिव्यक्ति भी उतने ही रूपों में होती थी। 1944 में आई फिल्म ‘रतन’ में स्वर्णकांता के लिए जोहरबाई अंबालेवाली इन शब्दों के साथ दीपावली अभिव्यक्त करती हैं-

‘आई दीवाली, आई दीवाली / दीपक संग नाचे पतंगा/ मैं किसके संग नाचूं बता जा।’

कुछ ऐसी ही अभिव्यक्ति 1946 में महाराणा प्रताप के जीवन पर बनी फिल्म ‘महाराणा प्रताप’ में खुर्शीद की आवाज में स्वामी रामानंद के शब्दों से होती है-

‘आई दीवाली दीपों वाली/ गाए सखियां, गाए सखियां/ ओ परदेसी मेरी नीर भरी अंखियां।’

हर्ष का चरम उत्सव

वास्तव में दीपावली जैसे त्योहार भारतीय जीवन में इस तरह गुंथे रहे कि उसके बगैर हमारे सुख-दुख की अभिव्यक्ति ही संभव नहीं थी। ये त्योहार किसी न किसी रूप में हमारी संवेदना, हमारी सामाजिकता को प्रदर्शित करते थे। यदि बड़े पर्दे पर हर्ष का चरम दिखाना था, तो दीपावली जैसे त्योहार ही बहाने बनते थे, चाहे वह ‘खजांची’ में राजेंद्र कृष्ण के शब्द में कुछ ऐसे सुनाई दे-

‘आई दीवाली आई, कैसे उजाले लाई/ घर-घर खुशियों के दीप जले/ सूरज को शरमाए ये, चरागों की कतारें/रोज रोज कब आती हैं, उजाले की ये बहारें।’

या 1957 की फिल्म ‘पैसा’ में गीता दत्त की आवाज में यह कुछ ऐसे आती है-

‘आ रही है मन वीणा के तार हिलाने वाली/ आ रही प्रिया प्रेम आलाप सुनने वाली/ झननन झननन बाज रही है नूपुर की शहनाई/ दीप जलेंगे दीप दीवाली आई हो।’

भारतीय संस्कृति के प्रतीक

किस तरह त्योहार भारतीय संस्कृति के लिए उत्प्रेरक की भूमिका निभाते रहे हैं, उसकी प्यारी सी अभिव्यक्ति 1976 में आई फिल्म ‘जीवन ज्योति’ में लता मंगेशकर की आवाज में सुनाई देती है। अद्भुत है यह गीत, जिसमें गाय, तुलसी, मंदिर, रंगोली, परिवार भारतीय संस्कृति के तमाम प्रतीक खूबसूरती से झलकते हैं-

‘जिस गैया घर की बहू यूं तिलक लगाती है/ वो गैया घर की मां बनकर/दूध पिलाती है।/जिस द्वारे घर की बहू/रंगोली सजाती है/उस द्वारे घर के/ अंदर लक्ष्मी आती है।’

दीपावली जैसे यह याद करने का भी अवसर देती है कि इस हासिल के लिए हमने क्या-क्या खोया। यहां भी मुकेश की आवाज सुनाई देती है-

‘एक वो भी दीवाली थी/ एक ये भी दीवाली है/ उजड़ा हुआ गुलशन है,/रोता हुआ माली है।’

लेकिन रोकर हम निश्चिंत नहीं हो सकते, यदि अपनी पहचान, अपनी संस्कृति, अपने परिवार और अपने आपको बचाना है तो अपनी दीपावली भी वापस लानी ही होगी।

‘रह-रह के फूटी फुलझड़ियां, लागे मेले रंगों के/ आ री सखी, आज रात को खुल के खेलें/हम भी खेल उमंगों के/ आई दीवाली आई।’

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