200 Halla Ho Review: अन्याय के ख़िलाफ़ दबे हुए गुस्से की झकझोरने वाली प्रतिक्रिया, वेटरन एक्टर अमोल पालेकर की सार्थक वापसी
दमन जब हदों से गुज़र जाता है और व्यवस्था न्याय दिलाने में विफल रहती है तो सालों से दबा गुस्सा हल्ला हो जैसी सनसनीखेज़ घटना के रूप में सामने आता है। 200 हल्ला हो नागपुर में साल 2004 में हुई एक ऐसी ही घटना पर आधारित है।
By Manoj VashisthEdited By: Updated: Sat, 21 Aug 2021 07:19 AM (IST)
मनोज वशिष्ठ, नई दिल्ली। समाज में बहुत कुछ ऐसा हो जाता है, जिस पर अक्सर नज़र नहीं पड़ती। अगर पड़ती भी है तो उसको सामान्य मानकर नज़रअंदाज़ करने की आदत हो गयी है और यही आदत अन्याय के एक सिलसिले को जन्म देती है।
ज़ी5 पर रिलीज़ हुई '200 हल्ला हो' एक झकझोरने वाली फ़िल्म है, जिसे देखते हुए मन खिन्न भी होता है और हैरानी भी होती है कि नई सदी जब अंगड़ाई ले रही थी तो देश के एक नामी शहर के बीचों-बीच दमन और अन्याय का ऐसा खेल चल रहा था, जो समानता और समरसता का दावा करने वाले समाज के मुंह पर कालिख से कम नहीं। दमन जब हदों से गुज़र जाता है और व्यवस्था न्याय दिलाने में विफल रहती है तो सालों से दबा गुस्सा हल्ला हो जैसी सनसनीखेज़ घटना के रूप में सामने आता है।'200 हल्ला' हो नागपुर में साल 2004 में हुई एक ऐसी ही घटना पर आधारित है, जिसकी पृष्ठभूमि में दलित महिलाओं के शारीरिक शोषण की लम्बी कहानी और इसके ख़िलाफ़ फूटा गुस्सा है। इस घटना पर अधिक जानकारी इंटरनेट पर उपलब्ध है।
नागपुर की एक बस्ती में रहने वाली दलित महिलाओं ने अदालत में पेशी पर गये एक क्रूर और सिलसिलेवार दुष्कर्मी को बेहरमी के साथ मौत के घाट उतार दिया था। उसके शरीर पर मिले ज़ख़्मों के निशान मरने वाले के ख़िलाफ़ घृणा की इंतेहा की बानगीभर थे। मगर, सवाल यह है कि नौबत यहां तक कैसे पहुंची कि गिरफ़्तारी के बावजूद 200 घरेलू महिलाएं क़ानून अपने हाथ में लेने के लिए आमादा हो गयीं? वहीं, मॉब लिंचिंग की इस घटना को आख़िर सही कैसे ठहराया जा सकता है? अभिजीत दास और सौम्यजीत रॉय लिखित 200 हल्ला हो ऐसे ही सवालों के जवाब की एक सार्थक खोजबीन है, जिसका निर्देशक सार्थक दासगुप्ता ने किया है। फ़िल्म की अच्छी बात यह है कि यह दलित महिलाओं के दमन और शोषण की बात करती है, मगर इसकी आड़ में किसी दूसरी जाति या वर्ग पर ग़ैरज़रूरी टिप्पणी नहीं करती, जिससे फ़िल्म भटकती नहीं है।
फ़िल्म वैसे तो सच्ची घटना से प्रेरित है, मगर सभी किरदारों और दलित बस्ती का नाम बदल दिया गया है। शुरुआत नागपुर के विकास नगर पुलिस स्टेशन के तहत आने वाली दलित बस्ती राही नगर की महिलाओं की हिंसक भीड़ द्वारा बल्ली चौधरी पर अदालत में हमले से होती है।
दिन-दहाड़े हुई यह वारदात पुलिस की छवि और क़ानून व्यवस्था पर बट्टा लगाती हैं और इस केस को जल्द ख़त्म करने के लिए कमिश्नर के दबाव के चलते राही नगर की पांच महिलाओं को पुलिस पकड़ लेती है और उनसे बल्ली चौधरी को मारने की वजह पूछती है, ताकि उन्हें इसके लिए ज़िम्मेदार ठहराकर फाइल बंद कर दी जाए। मगर, महिलाएं कुछ नहीं बोलतीं। विधानसभा चुनाव सिर पर हैं। लिहाज़ा राजनीतिक दल इसका फ़ायदा उठाने में जुट जाते हैं।
महिला अधिकार आयोग (WRC) एक कमेटी गठित करती है, जिसका अध्यक्ष रिटायर्ड जज विट्ठल दांगड़े को बनाया जाता है। कमेटी को सदस्य के रूप में एक वक़ील, एक पत्रकार और एक प्रोफेसर ज्वाइन करते हैं। कमेटी को बल्ली चौधरी केस में तथ्यों का पता लगाने का काम सौंपा जाता है, ताकि पांचों महिलाओं के केस की तथ्यों के आधार पर सुनवाई हो सके।
कमेटी के सदस्य राही नगर के निवासियों से मिलते हैं, मगर कोई मुंह नहीं खोलता। कमेटी कोई रिपोर्ट बना पाती, इससे पहले ही पुलिस एक फ़र्ज़ी गवाह बनाकर पांचों महिलाओं को कसूरवार ठहरा देती है और बल्ली चौधरी के क़त्ल के आरोप में अदालत से उन्हें उम्रकैद की सज़ा हो जाती है। राही नगर में रहने वाली आशा सुर्वे इन महिलाओं के लिए लड़ती है, जिसमें उसकी मदद उमेश जोशी नाम का वक़ील करता है, जो आर्थिक रूप से कमज़ोर लोगों के केस लड़ता है। आगे की कहानी न्याय के लिए आशा की लड़ाई और जज दांगड़े की इसमें अहम भूमिका पर केंद्रित है, जो महिलाओं को न्याय दिलवाने के लिए हाई कोर्ट में उनका केस लड़ते हैं।
'200 हल्ला हो' की पटकथा इस पूरे घटनाक्रम को बेहद असरदार ढंग से पेश करती है, जिसकी शुरुआत पहले ही सीन से हो जाती है, जब क्रेडिट रोल में रसोई में काम आने वाला चाकू, शेव करने का उस्तरा, कपड़े धोने की थपकी, मिर्च जैसे सामानों का मोंटाज दिखाया जाता है। यह सब वही मर्डर वेपन हैं, जिनका इस्तेमाल महिलाएं बल्ली चौधरी को मारने में करती हैं। हालांकि, कुछ दृश्य रक्त-रंजित हैं।
जज दांगड़े के सामने आशा सुर्वे का दलित होने की व्यथा और रोष व्यक्त करना और क्लाइमैक्स में हाई कोर्ट के जज दांगड़े की दलील, दृश्य ख़ासतौर पर प्रभावित करते हैं। बल्ली चौधरी के महिलाओं के शोषण वाले दृश्य उसके प्रति एक नफ़रत का भाव पैदा करते हैं और फ़िल्म में दिखायी जा रही घटनाओं के प्रति एक नज़रिया बनाने में मदद करते हैं।अभिनय पक्ष की बात करें तो क़रीब एक दशक बाद अमोल पालेकर को इस किरदार में देखना सुखद एहसास है। दलित रिटायर्ड जज विट्ठल दांगड़े के किरदार की व्यावसायिक ज़िम्मेदारियों के बीच निजी कशमकश को उन्होंने जो अभिव्यक्ति दी है, उसे कमाल ही कहा जा सकता है। शहरी की बेहतरीन नौकरी छोड़कर बस्ती की महिलाओं को न्याय दिलवाने के लिए लड़ रही मजबूत इरादों वाली लड़की आशा सुर्वे के किरदार में रिंकू राजगुरु ने जान फूंक दी है।
अमोल पालेकर जैसे वेटरन एक्टर के सामने रिंकू की बेतकल्लुफ़ अदाकारी काबिले-तारीफ़ है।एक्टिविस्ट लॉयर उमेश जोशी के किरदार में बरुण सोबती को ज़्यादा स्क्रीन टाइम नहीं मिला, मगर जितना मिला उसमें वो जमे हैं। आशा के साथ उमेश के लव एंगल से वर्ण व्यवस्था को लेकर संतुलन बैठाने की कोशिश की गयी है। मगर, इस कहानी के सबसे असरदार एक्टर साहिल खट्टर हैं, जिन्होंने बल्ली चौधरी के किरदार की बेहयाई और क्रूरता को इतनी कामयाबी के साथ पेश किया है कि उस किरदार से नफ़रत होने लगती है और यही साहिल की बतौर कलाकार जीत है। साहिल का यह फ़िल्म डेब्यू है।
सीनियर इंस्पेक्टर और जांच अधिकारी सुरेश पाटिल के किरदार को उपेंद्र लिमये ने बेहतरीन ढंग से जीया है। वहीं, एसीपी समीर देशपांडे के किरदार में इंद्रनील सेनगुप्ता, पत्रकार के रोल में सलोनी बत्रा, वकील के रोल में प्रद्युम्न सिंह और प्रोफेसर के किरदार में इश्तियाक ख़ान ठीक लगे हैं। बल्ली चौधरी के क़त्ल की आरोपी वयोवृद्ध महिला के किरदार में सुषमा देशपांडे ने किरदार की पीड़ा को कायमाबी के साथ पेश किया है। फ़िल्म के संवाद इसका मजबूत पक्ष हैं, जिन्हें गौरव शर्मा ने लिखा है।
संवाद व्यवहारिक हैं और उन्हें किरदार की सामाजिक और व्यावसायिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखकर लिखा गया है। मसलन, आशा सुर्वे महिलाओं की लड़ाई लड़ने के लिए नौकरी छोड़ने के फ़ैसले पर उमेश जोशी से कहती है- वो शहर अच्छा है, मगर मुझे अपने सच को अच्छा बनाना है। क्लाइमैक्स की जिरह में जज दांगड़े अपनी पृष्ठभूमि के लिहाज़ अंग्रेज़ी में कहते हैं कि दुष्कर्म वो नहीं करता, ऐसी घटनाओं के प्रति हमारी भावनात्मक शून्यता भी दुष्कर्म करती है। दीप मेटकर की सिनेमैटोग्राफी इस सच्ची कहानी को एक गहराई प्रदान करती है। अगर आप रियलिस्टिक और मुद्दा-प्रधान सिनेमा को पसंद करते हैं तो '200 हल्ला' हो देखी जा सकती है। फ़िल्म के कथ्य, दृश्य और वैचारिक धरातल के मद्देनज़र यह फ़िल्म सिर्फ़ वयस्कों के लिए है।