अहमदाबाद की ओर जा रही साबरमती एक्सप्रेस गोधरा स्टेशन से चली ही थी कि किसी ने चेन खींचकर गाड़ी रोक दी थी और फिर पथराव के बाद एक बोगी में उन्मादी भीड़ ने आग लगा दी थी, जिसमें 59 लोगों की मौत हो गई थी। ट्रेन में सवार लोग हिंदू तीर्थयात्री थे और अयोध्या से लौट रहे थे। इस घटना के बाद दंगे भड़क गए थे।
'एक्सीडेंट ऑर कांस्पिरेंसी, गोधरा' इसी घटना को केंद्र में रखकर दिखाई गई है। यह घटना कैसे हुई, इस साजिश को रचने के पीछे क्या वजहें थीं? यह फिल्म उस मामले को लेकर गठित नानावटी शाह मेहता आयोग की जांच के जरिए इस घटना से जुड़े पहलुओं को साक्ष्यों के साथ उजागर करती है। फिल्म में इलेक्ट्रानिक मीडिया की गलत रिपोर्टिंग पर भी सवाल उठाये गये हैं।
यह फिल्म मुख्य रूप से एक अभियुक्त से साजिश रचने का जुर्म कबूल करने को कहती है, जबकि इस मामले में अदालत ने कई लोगों को दोषी ठहराया था और उन्हें कड़ी सजा दी थी।
क्या है फिल्म की कहानी?
फिल्म का आरम्भ दर्दनाक घटना के अगले दिन यानी 28 फरवरी, 2002 को 59 जले शवों को अहमदाबाद के अस्पताल में लाने से होता हैं। उन्हें लाने वाला पुलिसकर्मी भी दहल उठता है। उसके बाद कहानी आयोग की जांच पर आती है। इसमें प्रतिपक्ष का नेतृत्व वकील महमूद कुरैशी (
रणवीर शौरी) करते हैं, जबकि राज्य सरकार का पक्ष रवींद्र पांड्या (मनोज जोशी)।
इस कार्रवाई के दौरान दोनों पक्षों की दलीलें, जिरह होती हैं और सबूत पेश होते हैं। इस दौरान पहला सवाल यही उठाया जाता है कि यह घटना वाकई दुर्घटना थी या साजिश? फिर घटनाक्रम की परतें खुलती हैं। फिल्म का अंत भावुक कर जाता है।
तथ्यों और साक्ष्यों पर बात करती है गोधरा
निर्देशक एम के शिवाक्ष ने संवेदनशील और विवादास्पद विषय को संतुलित दृष्टिकोण के साथ पेश किया है। पटकथा नानावटी शाह मेहता आयोग की कार्यवाही का बारीकी से अनुसरण करती है। यह जांच के दौरान सामने आए तथ्यों और साक्ष्यों को प्रस्तुत करती है।
हालांकि, कोर्टरूम ड्रामा बहुत तनावपूर्ण और झकझोरने वाला नहीं बन पाया है। यह सपाट तरीके से आगे बढ़ता है, लेकिन जिस प्रकार से घटना के पीछे की साजिश का रहस्योद्घाटन करता है वह चौंकाता है। शिवाक्ष तथ्यात्मक जानकारी और नाटकीय कहानी के मिश्रण से बांधे रखने का प्रयास करते हैं।फिल्म में कैमरा बार-बार जस्टिस फॉर एवरीवन नामक संस्था चलाने वाली सामाजिक कार्यकर्ता की ओर जाता है, लेकिन फिल्म उस पात्र को गहराई से नहीं दिखाती है। हालांकि, उसकी सोच को एक दृश्य में बताने की कोशिश हुई है।
यह पात्र कौन है, इसे समझना उन दर्शकों के लिए आसान होगा, जिन्होंने इस घटनाक्रम के बारे में पढ़ा होगा। प्रोफेसर देशपांडे (
हितू कनोडिया) और देवकी (डेनिशा घुमरा) की निजी जिंदगी को दिखाने में फिल्म काफी समय लेती है। उसमें चुस्त एडिटिंग की आवश्यकता थी। भले ही इस घटना को 22 साल हो गए हो, लेकिन इसके पीछे के कारण झकझोर देते हैं।
मनोज जोशी चमके, रणवीर शौरी भटके
मनोज जोशी मंझे कलाकार हैं। बीते दिनों रिलीज फिल्म हमारे बारह में तेज तर्रार और भ्रष्ट वकील की भूमिका निभाने के बाद यहां पर सौम्य और शातिर दिमाग वकील की भूमिका में हैं। जांच में गहराई से शामिल उनके पात्र का चित्रण विश्वसनीय और प्रभावशाली है। उन्होंने शिद्दत से उसे आत्मसात किया है।
वकील कुरैशी की भूमिका में रणवीर शौरी को उच्चारण पर थोड़ा काम करना चाहिए था, जो उनके पात्र के लिए जरूरी था। हितू कनोडिया ने उस दर्द को गहराई से दर्शाया है, जिससे उनका किरदार गुजरता है। बाकी कलाकार सामान्य हैं। शंकर अवाटे की सिनेमैटोग्राफी उल्लेखनीय है।वह तनावपूर्ण घटनाओं और नाटकीयता को सटीकता के साथ कैप्चर करते हैं। प्रोडक्शन डिजाइन टीम ने उस समय के गुजरात के माहौल को प्रभावी ढंग से दर्शाने की कोशिश की है।
सूत्रधार की आवाज में शरद केलकर हैं। यह फिल्म गोधरा साम्प्रदायिक तनाव, न्याय और सत्य की खोज जैसे महत्वपूर्ण विषयों को सम्बोधित करती है। फिल्म मुख्य रूप से दर्शकों से गोधरा की घटना और उसके बाद की जटिलताओं पर विचार करने का आग्रह करती है।यह भी पढ़ें:
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