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Bandaa Singh Chaudhary Review: मुद्दा संवेदनशील पर बंदा दमदार नहीं, अरशद वारसी को देख याद आएगा 'सर्किट'

अरशद वारसी पिछले काफी समय से फिल्म बंदा सिंह चौधरी को लेकर चर्चा में थे। अब उनकी ये फिल्म दर्शकों के हवाले हो गई है। अभिषेक सक्सेना के निर्देशन में बनी ये फिल्म उस वक्त के समय को दर्शाती है जब पंजाब में उग्रवाद का माहौल था। फिल्म का ट्रेलर तो काफी दमदार था लेकिन क्या मूवी भी शानदार है या नहीं यहां पर पढ़ें पूरा रिव्यू

By Smita Srivastava Edited By: Tanya Arora Updated: Fri, 25 Oct 2024 04:21 PM (IST)
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बंदा सिंह चौधरी रिव्यू/ Photo- Jagran Graphics
स्मिता श्रीवास्तव, मुंबई।  साल 1980 का दौर जब पंजाब गुरुवाणी और बुल्‍ले शाह की बोलियों के बजाए उग्रवाद की गोलियों से धधक रहा था। पाकिस्‍तानी खुफिया एजेंसी आइएसआई पंजाब और पंजाबियत को खोखला करने में लगी थी। फिल्‍म की कहानी उसी दौर की है। सच्ची घटनाओं पर आधारित है यह फिल्म पिछली सदी के आठवें दशक में पंजाब में फैले हिंदू नरसंहार और सांप्रदायिक वैमनस्य के बारे में बात करती है।

क्या है बंदा सिंह चौधरी की कहानी? 

कहानी बंदा सिंह (अरशद वारसी) के इर्दगिर्द बुनी गई है, जिसकी तजेंद्र (जीवेशु अहलूवालिया) के साथ जिगरी दोस्‍ती है। सरदारिन लल्‍ली (मेहर विज) को देखते ही बंदा उसे दिल दे बैठता है। थोड़ी लुकाछिपी और नोकझोंक के बाद दोनों की शादी और एक बेटी हो जाती है।

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उनकी खुशहाल जिंदगी में तूफान की दस्‍तक होती है जब उग्रवादी हिंदुओं से पंजाब छोड़ने को कहते हैं। तजेंद्र के समझाने के बावजूद बंदा अपना पिंड छोड़ने से इनकार कर देता है। उग्रवादियों का सरगना बग्‍गा (शताफ फिगर) धमकी देता है कि बंदा का सहयोग करने वाले को जान से मार दिया जाएगा। तजेंद्र को अपनी जान देकर दोस्‍ती की कीमत चुकानी पड़ती है।

तजेंद्र की पत्‍नी (शिल्‍पी मारवाह) भी बंदा के खिलाफ हो जाती है। बंदा गांववासियों की बेरुखी, उग्रवादियों की धमकियों से लल्‍ली के सहयोग से कैसे निपटता है कहानी इस संबंध में हैं।

सच्ची घटना पर आधारित फिल्म में आंदोलन का कोई जिक्र नहीं

पिछली सदीं के सातवें दशक के अंत से लेकर नौवें दशक में पाकिस्तान समर्थित एक अलग खालिस्तान के लिए चले हिंसक अभियान से इस राज्य में अशांति व्‍याप्‍त हो गई थी। हालांकि यह फिल्‍म आंदोलन का जिक्र नहीं करती। दिक्‍कत यह है कि शाहीन इकबाल और अभिषेक सक्‍सेना लिखित कहानी इतने संवेदनशील विषय के बावजूद मर्मस्‍पर्शी नहीं बन पाई है। कहीं भी भावनाओं का ज्‍वार नहीं फूटता।

उग्रवादी जब पहली बार पोस्‍टर चिपकाते हैं तो गांववाले चौंकते नहीं है। वह आसानी से कहते हैं यह उग्रवादियों की हरकत है जैसे वह इससे परिचित हैं। उग्रवाद का वह दौर किताबों में डरावने अध्‍याय के तौर पर दर्ज है। वह डर बड़े परदे पर संगीत से पैदा करने की कोशिश है, लेकिन फिल्‍मांकन, स्‍क्रीनप्‍ले में वह कमी साफ झलकती है। युवाओं को गुमराह करने वाले दृश्‍य बेहद कमजोर हैं। पात्रों का चित्रण भी अधूरा है।

बंदा सिंह चौधरी- Imdb

अरशद वारसी नहीं कर पाए किरदार के साथ न्याय? 

बंदा सिंह की चार पुश्‍ते बिहार से आकर गांव में बसी है, लेकिन बंदा के किरदार में अरशद वारसी बिल्‍कुल फिट नहीं लगते हैं। वह उस परिवेश में बाकी पात्रों से बेहद अलग नजर आते हैं। उन्‍हें अपनी भाषा, उच्‍चारण के साथ भावों पर काम करने की बहुत जरूरत थी। उन्‍हें देखकर सर्किट (मुन्‍नाभाई एमबीबीएस में निभाया पात्र) की याद आती है। पुलिस का रवैया फिल्‍म में ढुलमुल दिखाया है। वहीं एक पुलिसकर्मी बंदा का खुलेआम सहयोग कर रहा है। बंदा को कैसे पता चलता है कि बग्‍गा सिख नहीं है? यह पटकथा की खामियां हैं जो उसे कमजोर बनाती हैं।

फिल्‍म का खास आकर्षण शिल्‍पी मारवाह और जीवेशु अहलूवालिया हैं। दोनों जितने भी दृश्‍यों में आते हैं अपनी छाप छोड़ जाते हैं। लल्‍ली की भूमिका में मेहर विज अच्‍छी लगी है। खलनायक बनें शतफ फिगर अधूरे चित्रण के बावजूद अपने पात्र के लिए सटीक कास्टिंग हैं।

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