Bhakshak Review: झकझोरती है बिहार के बालिका गृह कांड से प्रेरित 'भक्षक', भूमि ने अभिनय से छोड़ी छाप
Bhakshak Review भूमि पेडणेकर की फिल्म भक्षक सच्ची घटना से प्रेरित फिल्म है। ऐसी फिल्में अक्सर हार्ड हिटिंग होती हैं और भक्षक भी उसी सिलसिले को आगे बढ़ाती है। भूमि ने फिल्म में एक संघर्षरत टीवी पत्रकार की भूमिका निभाई है जो बालिका गृह कांड को उजागर करने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा देती है। संजय मिश्रा और आदित्य श्रीवास्तव प्रमुख किरदारों में हैं।
प्रियंका सिंह, मुंबई। Bhakshak Review: हिंदी सिनेमा वास्तविक कहानियों से प्रभावित रहा है। कई बार वास्तविक घटनाओं से प्रेरणा लेकर शहर और पात्रों के नामों में बदलाव करके उन कहानियों को फिल्म की कहानी में पिरो दिया जाता है।
नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई अभिनेता शाह रुख खान की प्रोडक्शन कंपनी की फिल्म भक्षक भी बिहार के मुजफ्फरपुर बालिका गृह कांड से प्रेरित है, जिसमें यौन उत्पीड़न और मारपीट की शिकार हुई 35 लड़कियों को बचाया गया था।
क्या है भक्षक की कहानी?
इस फिल्म की कहानी बिहार के मुन्नवरपुर से शुरू होती है, जहां के एक बालिका गृह में लड़कियां यौन शोषण का शिकार हैं। इस बालिका गृह का कर्ताधर्ता बंसी साहू (आदित्य श्रीवास्तव) है, जो खुद पत्रकार भी है। पुलिस, प्रशासन हर कोई इस बालिका गृह में होने वाली दरिंदगी के आगे अपनी आंखें बंद करके बैठा है।यह भी पढ़ें: Salaar Hindi OTT Release- खत्म हुआ इंतजार, 'सालार' की हिंदी ओटीटी रिलीज का एलान, जानिए कब-कहां होगी स्ट्रीम?
वहां से कहानी पटना आती है, जहां स्थानीय पत्रकार वैशाली सिंह (भूमि पेडणेकर) अपना न्यूज चैनल कोशिश न्यूज सेट करने का प्रयास कर रही है। घर में पति का सपोर्ट है, लेकिन ननद-नंदोई चाहते हैं कि वह परिवार को आगे बढ़ाए। इस बीच वैशाली का सूत्र उसे राज्य के चाइल्ड सेंटर होम में हुए सर्वे की ऑडिट रिपोर्ट देता है, जिसमें मुनव्वरपुर के बालिका गृह में बच्चियों के साथ हुए शारीरिक दुर्व्यवहार का जिक्र होता है।
वैशाली अपनी रिसर्च शुरू करती है। इसमें उसका साथ कैमरामैन भास्कर सिन्हा (संजय मिश्रा) देता है। क्या वैशाली बच्चियों को वहां से निकाल पाएगी? क्या सत्ता में बैठे लोगों से वह अपने शब्दों की ताकत से लड़ पाएगी, कहानी इस पर आगे बढ़ती है।
कैसा है फिल्म का स्क्रीनप्ले?
पुलकित निर्देशित इस फिल्म की खास बात यह है कि उन्होंने मुद्दे की संवेदनशीलता को समझते हुए इसे कमर्शियल बनाने वाले कोई तत्व जैसे शोरशराबे वाले बैकग्राउंड स्कोर या फास्ट कट वाले सीन नहीं डाले हैं। फिल्म की कहानी, पटकथा और संवाद पुलकित और ज्योत्सना नाथ ने लिखी है। उन्होंने असल मुद्दों तक पहुंचने में समय व्यर्थ नहीं किया है। फिल्म की शुरुआत में एक लड़की के साथ हुई बर्बरता मन को भारी कर देती है, जिसकी वजह से आगे की फिल्म देखने के लिए दिल को मजबूत करना पड़ता है।यह भी पढ़ें: OTT Releases This Week: 'आर्या 3 पार्ट-2' से 'भक्षक' तक, इस हफ्ते ओटीटी पर आ रहीं ये फिल्में और वेब सीरीजफिल्म की खास बात यह भी है कि लेखकों ने भूमि के पात्र को कहीं से भी बेचारी नहीं दर्शाया कि घर के काम ना कर पाने पर वह कोई अपराधबोध महसूस करे। वह सबक जरूर सिखा देती है कि अगर पति को भूख लगी है, तो वह मुठ्ठी भर दाल-चावल खुद पका सकता है। फिल्म का क्लाइमैक्स, आंखे मूंदें हम क्यों गुम है उजालों में... गाने पर फिल्माया गया है। लड़कियों को बालिका गृह से बचाने वाला यह सीन आंखें नम करता है। इस दृश्य का श्रेय सिनेमैटोग्राफर कुमार सौरभ को जाता है, जिन्होंने उतनी ही संजीदगी से इसे शूट किया है।कुछ सवाल भी अनुत्तरित रह जाते हैं, जैसे बंसी साहू के पात्र को जब पता चलता है कि बालिका गृह पर पुलिस की छापेमारी होनी है, तो वह भागता क्यों नहीं है। सबूत मिटाने का प्रयास क्यों नहीं करता है। पुलिस का पक्ष भी काफी कमजोर लिखा गया है। इस फेसबुकिया (फेसबुक) दुनिया ने हमारे एहसासों को बिल्कुल ही शून्य बना दिया है... या कोशिश करना कुछ ना करने से बेहतर है... जैसे संवाद फिल्म खत्म होने पर भी साथ रह जाते हैं।
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