Bheed Movie Review: लॉकडाउन में मजदूरों के संघर्ष को गहनता से दिखाती है 'भीड़', संवेनाएं उभारने में चूकी
Bheed Movie Review In Hindi लॉकडाउन की कई ऐसी तस्वीरें सामने आयी थीं जिन्होंने अंदर तक हिला दिया था। ऐसी ही तस्वीरों अनुभव सिन्हा की फिल्म के जरिए पर्दे पर लौटी हैं जिन्हें देखना भावुक कर देता है। राजकुमार राव के किरदार के जरिए हालात को दिखाया गया है।
By Manoj VashisthEdited By: Manoj VashisthUpdated: Fri, 24 Mar 2023 04:35 PM (IST)
स्मिता श्रीवास्तव, मुंबई। Bheed Film Review: 24 मार्च, 2020 को कोरोना संक्रमण रोकने के लिए देशभर में पहले लाकडाउन की घोषणा की गयी थी। राज्य की सीमाओं को सील कर दिया गया था। लॉकडाउन से सबसे बुरी तरह प्रभावित होने वाला एक वर्ग प्रवासी मजदूरों का रहा, जो रोजगार और आजीविका के अवसरों की तलाश में अपना गृह राज्य छोड़कर दूसरे राज्य आकर बस गया था। इन हालात की कई तस्वीरें आंखों के सामने से गुजरती रही हैं।
लॉकडाउन ने इन्हें बेरोजगार और बेघर बना दिया था। बड़ी संख्या में देशभर में प्रवासियों ने अपने घर लौटने का फैसला किया। इन प्रवासियों को केंद्र में रखकर अनुभव सिन्हा ने 'भीड़' की कहानी गढ़ी है।
क्या है 'भीड़' की कहानी?
कहानी का आरंभ महाराष्ट्र के औरंगाबाद में दिल दहला देने वाली घटना से होता है, जिसमें रेल की पटरी पर सोए 16 मजदूरों को मालगाड़ी ने रौंद दिया था। तब परिवहन के साधन रेल और बस, सब बंद थे। कहानी पहला लॉकडाउन लगने के एक महीने के बाद के घटनाक्रम से आरंभ होती है। जब कोरोना संक्रमण से ज्यादा अफवाहें तेजी से फैल रही थीं।
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पुलिस अधिकारी सूर्य कुमार सिंह टीकस (राजकुमार राव) निम्न जाति से संबंध रखता है। उसे राज्य की सीमा के एक चेक पोस्ट का इंचार्ज बना दिया जाता है। वह डाक्टर रेणु शर्मा (भूमि पेडणेकर) से प्रेम करता है। दूसरी ओर सिक्योरिटी गार्ड बलराम त्रिवेदी (पंकज कपूर) अपने परिवार और 13 साथियों के साथ निकला है।
फॉर्च्यूनर कार से गीतांजलि (दीया मिर्जा) अपनी बेटी को हॉस्टल से लेने के लिए ड्राइवर कन्हैया (सुशील पांडेय) के साथ निकली है। एक किशोर लड़की अपने शराबी पिता को साइकिल पर बैठाकर गांव जा रही है। टीवी चैनल की रिपोर्टर विधि (कृतिका कामरा) अपने दो सहयोगियों के साथ इस घटनाक्रम को कवर करने निकली है। यह सभी दिल्ली से 1200 किमी दूर तेजपुर की सीमा पर रोक दिए जाते हैं।
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वहां पर अचानक से भीड़ इकट्ठा हो जाती है। रेणु अपने सहयोगी के साथ चेक पोस्ट पर कोरोना के लक्षण दिखने वाले मरीजों की देखभाल कर रही है।
कैसा है स्क्रीनप्ले?
कलर फिल्मों के जमाने में अनुभव सिन्हा ने 'भीड़' को ब्लैक एंड व्हाइट में बनाया गया है। उन्होंने किरदारों को स्थापित करने में बेवजह समय नहीं लगाया है। वह सहजता से अपने पात्रों से मिलवाते हैं। उन्होंने कठिन विषय चुना है, लेकिन संवेदनाओं को पूरी तरह उभारने में विफल रहते हैं। इस विभीषिका को गुजरे ज्यादा वक्त नहीं हुआ है, ऐसे में उस दर्द की यादें मिटी नहीं हैं। शुरुआत में कोरोना संक्रमण फैलने के साथ फिल्म ऊंच-नीच, जात-पात और अमीरी-गरीबी जैसे सामाजिक मुद्दों के साथ प्रवासियों के संघर्ष को गहनता से दिखाती है। तेजपुर के बॉर्डर पर एकत्र होने के बाद पैदल चलने के कारण प्रवासी मजदूरों के पैरों में पड़े छाले, भूख से बिलखते बच्चे, घर के करीब पहुंच कर भी वहां न पहुंच पाने की प्रवासियों की छटपटाहट को अनुभव सिन्हा ने बहुत संजीदगी से दर्शाया है। नियम और औपचारिकताओं में इंसानी दिक्कतों को अनदेखा किया जा रहा है। सीमेंट मिक्सर में छुपाकर लोगों को गांव पहुंचाने, छुटभैया नेताओं का अपना दमखम दिखाने के साथ लोगों के साथ जाति के आधार पर होने वाले अन्याय और बर्ताव को भी उन्होंने कहानी में गूंथा है।इस दौरान धर्म विशेष को बिना जाने बूझे कोराना के लिए जिम्मेदार ठहराना, उनके दिए खाने को अस्वीकर करना जैसे कई प्रसंग को कहानी में समेटा गया है। इतनी संवेदनशील फिल्म में सूर्य कुमार और रेणु के बीच अतरंग दृश्य बेहद अनावश्यक लगे हैं। इसी तरह राजकुमार के किरदार को जाति की वजह से हर किसी का ताने देना को ज्यादा तूल दिया गया है। बहरहाल, ऊंच-नीच जात-पात, अमीरी-गरीबी, घर पहुचंने की कसमसाहट से जूझते पात्रों के साथ आखिर में कहानी मानवता को प्राथमिकता देने पर आती है। अनुभव सिन्हा, सौम्या तिवारी और सोनल द्वारा लिखा स्क्रीनप्ले किरदारों के माहौल और मूड को अच्छी तरह से चित्रित करता है। उनके संवादों में कटाक्ष भी है।
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