Chup Review: अधूरी से लगती है आर बाल्की की चुप, नहीं दिखा सनी देओल के पुलिस ऑफिसर किरदार में दम
Chup Review सनी देओल और दुलकर सलमान स्टारर फिल्म चुप का ऑडियंस को बेसब्री से इंतजार है। आर बाल्की के निर्देशन में बनी ये फिल्म सस्पेंस थ्रिलर है। लेकिन अगर आप थिएटर में जाकर इस फिल्म को देखने की प्लानिंग कर रहे हैं तो उससे पहले ये रिव्यू जरुर पढ़ें।
By Tanya AroraEdited By: Updated: Thu, 22 Sep 2022 04:35 PM (IST)
स्मिता श्रीवास्तव, मुंबई। निर्देशक आर बाल्की ने अपने साक्षात्कार में कहा था कि चुप: रिवेंज ऑफ द आर्टिस्ट का आइडिया उन्हें अपनी पहली फिल्म चीनी कम को बनाने के बाद आया था। दरअसल, उनकी फिल्म की कुछ फिल्म समीक्षकों ने तीखी आलोचना की थी। अब उन्होंने पहली बार साइकोलाजिकल थ्रिलर जॉनर में हाथ आजमाते हुए फिल्म समीक्षकों को अप्रत्यक्ष रुप से नसीहत देते हुए चुप का लेखन और निर्देशन दिया है।
फिल्म की शुरुआत में ही 'चुप' का खुला पूरा सस्पेंसकहानी का आरंभ मुंबई में एक चर्चित फिल्म समीक्षक की निर्मम हत्या से होता है। पुलिस अधिकारी अरविंद माथुर (सनी देओल) मामले की जांच करना प्रारंभ करता है। इस बीच बेंगलुरु से अपनी नेत्रहीन मां के साथ मुंबई आई नीला मेनन (श्रेया धनवंतरी) एंटरटेनमेंट पत्रकार के तौर अखबार में काम कर रही है। वह फूलों की दुकान चलाने वाले डैनी (दुलकर सलमान) से मेल मुलाकात के बाद प्यार करने लगती है। इस बीच दो और मर्डर हो जाते हैं। हत्यारा इतनी साफगोई से हत्या करता है कि पुलिस को कोई सुराग नहीं मिलता है। पुलिस को लगता है कि यह कोई सीरियल किलर है। पुलिस क्रिमिनल साइकोलाजिस्ट जेनोबिया (पूजा भट्ट) की मदद लेती है। हालांकि कोई रहस्य को कायम न रखते हुए कहानी के बीच में ही स्पष्ट हो जाता है कि हत्यारा डैनी है, जो क्रिटिक्स का क्रिटिक है।
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अपने ही तथ्यों में उलझे दिखे निर्देशक आर बाल्कीआर बाल्की और उनके लेखकों की टीम (राजा सेन और ऋषि विरमानी) द्वारा फिल्म समीक्षकों के केंद्र में रखकर लिखी कहानी अनूठी है। उन्होंने इस साइकोलाजिकल थ्रिलर फिल्म के जरिए महान फिल्ममेकर गुरुदत्त को श्रद्धांजलि दी है। उनकी फिल्म 'कागज के फूल' को समीक्षकों की नकारात्मक प्रतिक्रिया मिली थी। उसके बाद उन्होंने कोई फिल्म निर्देशित नहीं की। हालांकि फिल्म में कहा गया है कि कागज के फूल गुरुदत्त की आखिरी फिल्म थी। जबकि कागज के फूल के बाद गुरुदत्त की फिल्म 'चौदहवीं' का चांद और साहब बीवी और गुलाम रिलीज हुई, जिसमें उन्होंने अभिनय किया था। दोनों ही फिल्में सफल रहीं। फिल्म के जरिए आर बाल्की ने फिल्म समीक्षकों द्वारा दिए जाने वाले सितारों को लेकर सवाल खड़े किए हैं। हालांकि वो अपने ही तथ्यों में उलझे नजर आए हैं।
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'डैनी' के किरदार में हैं कई खामियांएक सीन में नीला कहती है कि हिट मतलब अच्छी फिल्म। समीक्षकों की पसंद उससे मेल नहीं खाती। वहीं एक दृश्य में निर्माता कहता है कि उन्होंने कभी एक भी रिव्यू नहीं पढ़ा। फिल्म रिव्यू से नहीं चलती। अच्छी फिल्म का पैमाना क्या सिर्फ बाक्स आफिस है ? यह गहन बहस का विषय है। बहरहाल, फिल्म समीक्षकों की दुनिया को भी पूरी तरह एक्सप्लोर नहीं कर पाई हैं। स्टार पाने को लेकर निर्माताओं के पहलू को फिल्म छूती है लेकिन इस सिस्टम पर बात नहीं करती। फिल्म की सफलता कितना रिव्यू पर निर्भर करती है इसे भी बाल्की तार्किक तरीके से पेश नहीं कर पाए हैं। वही सिनेप्रेमी डैनी के किरदार में भी काफी खामियां हैं। उसकी दुकान पर नीला के अलावा कोई ग्राहक नहीं आता। उसे साइकोपैथ (मनोरोगी) बताया है। ऐसे में सिनेमा को लेकर उसकी समझ भी सवालों के घेरे में आती है।
अमिताभ बच्चन का फिल्म में है कैमियोंइंटरनेट मीडिया के जमाने में वह अपनी राय को खुलेआम इंटरनेट मीडिया पर क्यों व्यक्त नहीं करता उसकी वजह स्पष्ट नहीं है। वह अपनी फिल्म को यू ट्यूब पर भी पोस्ट कर सकता था। बहुत से निर्देशकों की पहली फिल्म नहीं चलती। क्या यह सिर्फ समीक्षा की वजह से हैं? फिल्म ऐसे कई पहलू पर गहराई से बात नहीं करती। डैनी गुरुदत्त का प्रशंसक है। वह पढ़ता है कि गुरुदत्त की फिल्म कागज के फूल को समीक्षकों ने नकार दिया था। जिसकी वजह से उन्होंने फिल्म बनाना बंद कर दिया। पर कागज के फूल से उनकी मौत को जोड़ना उचित नहीं है। सर्वविदित है कि उनकी निजी जिंदगी में काफी उथल पुथल रही थी। उसके अलावा फिल्म के क्लाइमेक्स में अधूरापन है। आप किसी चौंकाने वाले रहस्योद्घाटन की उम्मीद करते हैं, लेकिन आपको निराशा हाथ लगती है। फिल्म में अमिताभ बच्चन का कैमियो है। उसके जरिए समीक्षा की जरूरत बताते हुए उसे बिना पक्षपात देने की बात कही गई है।
उभरकर नहीं आया सनी देओल का किरदार कलाकारों में सनी देओल के किरदार को समुचित तरीके से गढ़ा नहीं गया है। इसलिए प्रभावी नहीं बन पाया है। दुलकर सलमान की मासूमियत ही उनके किरदार की जान है। उन्होंने अकेले इंसान के दर्द, जुनूनी सिनेप्रेमी डैनी को बखूबी आत्मसात किया है। बतौर एंटरटेनमेंट पत्रकार श्रेया धनवंतरी को कुछ खास एक्सप्लोर करने का मौका नहीं मिला है। उनकी लव स्टोरी भी खास प्रभावित नहीं करती। फिल्म में इस्तेमाल किए गए गुरुदत्त की क्लासिक फिल्म 'प्यासा' के चर्चित गाने 'जाने क्या तूने कहीं' और 'ये दुनिया अगर मिल भी जाए' को कहानी साथ समुचित तरीके से पिरोया गया है। फिल्ममेकिंग चुनौतीपूर्ण काम होता है। अपनी आलोचना को स्वीकार न कर पाना बताता है कि आप उसके लिए तैयार नहीं, जो कि इस क्षेत्र की अनिवार्यता है। यह फिल्म इन दोनों पहलुओं को समुचित तरीके से उभार नहीं पाती है। फिल्म रिव्यू: चुप : रिवेंज ऑफ द आर्टिस्टप्रमुख कलाकार: सनी देओल, दुलकर सलमान, श्रेया धनवंतरी, पूजा भट्टलेखक और निर्देशक: आर बाल्कीअवधि: दो घंटे 15 मिनटस्टार: दो
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