Double XL Movie Review: बॉडी शेमिंग के दर्द को बयां करती है हुमा कुरैशी और सोनाक्षी सिन्हा की ये फिल्म
फिल्म उन मुद्दों को नहीं छूती। उसके अलावा दोनों संघर्षरत मुख्य किरदारों के लिए लंदन में सब कुछ बहुत आसानी से हो भी जाता है। यह अजीबोगरीब है। फिल्म में ऐसा कोई भी भावनात्मक पल नहीं आता जो आपको झकझोर जाए। किरदारों को भी समुचित तरीके से गढ़ा गया हैं।
By Priti KushwahaEdited By: Updated: Fri, 04 Nov 2022 04:14 PM (IST)
स्मिता श्रीवास्तव, मुंबई। करियर की शुरुआत में अभिनेत्री सोनाक्षी सिन्हा और हुमा कुरैशी बॉडी शेमिंग का शिकार हो चुकी हैं। यानी उन्हें अपने वजन, मोटापे को लेकर लोगों के तानों को सहना पड़ा है। यही वजह रही कि हुमा ने इस विषय पर फिल्म बनाने का फैसला किया। बतौर निर्माता हुमा की यह पहली फिल्म है।
सपनों और हकीकत की रस्साकशी
कहानी मेरठ की राजश्री त्रिवेदी (हुमा कुरैशी) की है। तीस साल की होने जा रही राजश्री स्पोर्ट्स प्रेजेंटर बनना चाहती है। उसके मोटापे से उसके पिता और दादी को कोई दिक्कत नहीं है। उसकी मां उसकी बढ़ती उम्र की वजह से उसकी शादी को लेकर परेशान है। उसी दौरान एक स्पोर्ट्स चैनल से राजश्री का बुलावा आता है। मां शर्त रखती है कि अगर चयन नहीं हुआ तो वह शादी कर लेगी।
दिल्ली पहुंचने पर राजश्री को निराशा हाथ लगती है, क्योंकि इंटरव्यू लिए बिना ही तस्वीरों के आधार पर उसे खारिज कर दिया जाता है। वहीं, उसकी मुलाकात सायरा खन्ना (सोनाक्षी सिन्हा ) से होती है। वह भी उनकी तरह मोटी है। वह अपना फैशन लेबल लॉन्च करना चाहती है। दोनों के सपने हैं, लेकिन उसमें रुकावट उनका मोटापा है। क्या मोटापे को धता बताते हुए दोनों अपने सपने पूरे कर पाएंगी? कहानी इसी संदर्भ में है।
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प्रासंगिक मुद्दे पर कमजोर कहानी
लेखक मुदस्सर अजीज और निर्देशक सतराम रमानी ने बेहद संवेदनशील और प्रासंगिक मुद्दे को उठाया है। मोटापे के कारण अक्सर लोगों को हंसी का पात्र बनना पड़ता है। हिंदी सिनेमा में भी एक दौर था जब मोटे लोगों को सिर्फ कॉमेडी के लिए लिया जाता था। इससे पहले फिल्म दम लगा के हईसा में भी मोटी लड़की के दर्द को दर्शाया गया था। इस तरह की फिल्मों को बनाने के लिए साहस चाहिए होता है। क्योंकि इन किरदारों को निभाने के लिए नायिकाओं को अपनी कमसिन, छरहरी काया से इतर वजन बढ़ाना होता है। हुमा कुरैशी और सोनाक्षी दोनों ने ही किरदारों के लिए अपने वजन को बढ़ाया। इस फिल्म को बनाने के पीछे उनकी मंशा भी अच्छी है।
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हालांकि विषय की गहनता में लेखक और निर्देशक नहीं जा पाए। छोटे शहरों के किरदारों को समझने के लिए लेखकों को अतिरिक्त प्रयास करने की जरूरत है। फिल्म की शुरुआत में उन्होंने दो किरदारों को स्थापित करने में काफी समय लिया है। हालांकि मुख्य मुद्दे को वे कहानी में समाहित करने में बेहद कमजोर लगे हैं। राजश्री और सायरा मोटापे की दिक्कतों पर सिर्फ संवाद करते हैं उनकी जिंदगी पर उसके प्रभाव स्क्रीन पर उभर कर नहीं आ पाए हैं। मोटापे झेल रहे लोगों की तकलीफों पर भी यह फिल्म गहराई से बात नहीं करती। मोटापे की वजह अनियमित खानपान के साथ कोई बीमारी भी हो सकती है।
यह फिल्म उन मुद्दों को नहीं छूती। उसके अलावा दोनों संघर्षरत मुख्य किरदारों के लिए लंदन में सब कुछ बहुत आसानी से हो भी जाता है। यह अजीबोगरीब है। फिल्म में ऐसा कोई भी भावनात्मक पल नहीं आता जो आपको झकझोर जाए। किरदारों को भी समुचित तरीके से गढ़ा गया हैं। वीडियो बनाने के बावजूद राजश्री ने उन्हें पोस्ट क्यों नहीं किया? उसने स्थानीय स्तर पर कितनी कोशिश की? यह सब फिल्म में स्पष्ट नहीं है। सायरा का अतीत भी प्रभावी नहीं बन पाया है। लेखन स्तर पर अगर मेहनत की जाती तो यह बेहतर फिल्म बन सकती थी।