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Fairy Folk Review: कल्पना लोक में विचरती पति-पत्नी की कहानी, प्रयोगधर्मी कथानक में मुकुल और रसिका का सधा अभिनय

Rasika Duggal और Mukul Chaddha दोनों बेहतरीन कलाकार हैं। करण गौर की फिल्म Fairy Folk का कथानक प्रयोगधर्मी है और इसमें कलाकारों के इम्प्रोवाइजेशन के हुनर को आजमाया गया है। फेयरी फोक सीमित रिलीज है जो चुनिंदा शहरों में कुछ ही स्क्रींस पर रिलीज हुई है। इस फिल्म के अलावा इस हफ्ते कागज 2 और लापता लेडीज भी सिनेमाघरों में उतरी हैं।

By Jagran News Edited By: Manoj Vashisth Updated: Fri, 01 Mar 2024 01:27 PM (IST)
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फेयर फोक सीमित रिलीज फिल्म है। फोटो- इंस्टाग्राम
प्रियंका सिंह, मुंबई। Fairy Folk Review: कल्पनाओं से सजे सिनेमा में कई बार ऐसी कहानियां दिखाई जाती हैं, जिनका वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं होता है। फिल्मकार अपने परिवेश, अनुभवों और कल्पनाओं के आधार पर अपनी कहानी गढ़ते हैं।

कई बार उनका प्रयोग सफल होता है, कई बार नहीं। बात करें, अगर निर्देशक, लेखक और एडिटर करण गौर की फिल्म फेयरी फोक की तो यह फिल्म वास्तविकता और फंतासी की दुनिया के बीच अटकती-भटकती है।

क्या है फेयरी फोक की कहानी?

कहानी शुरू होती है जंगल से, जहां मोहित (मुकुल चड्ढा) और रितिका (रसिका दुग्गल) की गाड़ी खराब हो जाती है। वहां उन्हें अचानक नग्न अवस्था में एक ऐसा आदमी दिख जाता है, जो लगता तो इंसानों की तरह है, लेकिन उसके गुप्तांग नहीं हैं। वह लिंग विहीन है।

अगले दिन वह वनवासी मोहित के घर पर पहुंच जाता है। जैसे-तैसे मोहित उससे संवाद स्थापित करने का रास्ता ढूंढ लेता है। जो मोहित कहता है, वह वनवासी करता है। एक दिन मोहित उसे प्यार से चूम लेता हैं। अगले दिन वह हूबहू मोहित जैसा बन जाता है, जिसका नाम कबीर (चंद्रचूड़ राय) रखा जाता है।

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कुछ दिन बाद मोहित के पास एक और ऐसा ही व्यक्ति पहुंचता है। इस बार मोहित और रितिका उसे पुरुष नहीं, बल्कि स्त्री की पहचान देना चाहते हैं। क्या होगा, जब मोहित और रितिका जैसे व्यक्तित्व वाले दो वनवासी उनके साथ रहते हैं। इस पर कहानी आगे बढ़ती है।

वास्तविकता और फंतासी को मिलाकर बनाई गई करण गौर की इस कहानी का प्लॉट दिलचस्प जरूर है कि एक युगल के जीवन में प्यार और कामुकता की कमी की चर्चा उनके जैसे दो वनवासी आने के बाद खुलकर होती है। उन वनवासियों के रूप में उन्हें परफेक्ट पार्टनर मिल जाता है, लेकिन वह इस बात को दृश्यों के जरिए समझाने में चूक जाते हैं।

इस फिल्म को इम्प्रोवाइज्ड अभिनय के तहत शूट किया गया है, जिसमें कलाकार खुद अपने संवाद बनाकर बोलते हैं। रसिका और मुकुल इसमें माहिर हैं, उनके संवाद वास्तविक लगते हैं, लेकिन जहां पर उनके दोस्तों का जमावड़ा लगता है, वहां पर वह बातचीत से ज्यादा शोर लगने लग जाता है।

सबसे अजीब बात जो खटकती है कि एक लिंगविहीन वनवासी के आ जाने से किसी को भी कोई हैरानी नहीं होती है। सब उसके साथ सामान्य हैं। पति-पत्नी भी अपने जैसे व्यक्तित्व वाले वनवासी के साथ एक-दूसरे को बांटने में सहज हैं, उनमें कोई जलन या गुस्से वाली भावना नहीं है।

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वे खुद के रिश्तों को सुधारने का प्रयास नहीं करते हैं। वनवासियों में एक और लिंगविहीन व्यक्ति हिंदी में बात करता है तो फिर उसके साथ रहने वाले बाकी लोग क्यों बात नहीं कर पाते हैं? अगर केवल चूमने पर ही सामने वाले की पहचान कोई अपना लेता है तो वह उसकी तरह बनने की बजाय उससे बेहतर कैसे बन जाता है?

ऐसे कई सवाल हैं, जो अनुत्तरित रह जाते हैं। फिल्म की एडिटिंग करण ने खुद की है तो अच्छी बात है कि उन्होंने इसे सीमित समय के भीतर बनाया है।

मुकुल चड्ढा इम्प्रूव यानी इम्प्रोवाइजेशन कॉमेडी शोज करते आए हैं। ऐसे में इम्प्रोवाइज्ड अभिनय में उनकी पकड़ मजबूत है। रसिका दुग्गल ने इसमें उनका साथ बखूबी दिया। दोनों के बीच की बातचीत किसी डायलॉग जैसी नहीं लगती है।

वनवासी की भूमिका में निखिल देसाई ने नपातुला काम किया है। चंद्रचूड़ राय और अस्मित पठारे प्रभावशाली लगे हैं। खासकर अस्मित, जिन्होंने रितिका की पहचान अपनाई होती है। वह पुरुष के शरीर में महिलाओं के भाव सहजता से लाते हैं।

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