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Hamare Baarah Review: महिलाओं के दर्द की तस्वीर है 'हमारे बारह', अन्नू कपूर के अभिनय ने छोड़ी छाप

हमारे बारह उन फिल्मों में शामिल है जो चुभने वाली सच्चाई को हाइलाइट करती हैं। दकियानूसी सोच और धर्म की आड़ किस तरह महिलाओं के जीवन की मुश्किलें बढ़ाते हैं ये हमारे बारह दिखाती है। अन्नू कपूर के किरदार के जरिए फिल्म जोरदार कमेंट करती है और ज्वलंत विषय को उठाती है। फिल्म अदालती लड़ाई के बाद सिनेमाघरों में पहुंची है।

By Jagran News Edited By: Manoj Vashisth Published: Fri, 21 Jun 2024 02:13 PM (IST)Updated: Fri, 21 Jun 2024 02:13 PM (IST)
हमारे बारह रिलीज हो गई है। फोटो- इंस्टाग्राम

स्मिता श्रीवास्तव, मुंबई। हम दो हमारे दो। छोटा परिवार सुखी परिवार। स्‍लोगन के निहितार्थ काफी गहरे हैं। 'हमारे बारह' इन्‍हीं मुद्दों पर बात करती है। यह फिल्‍म मुख्‍य रूप से पितृसत्‍तामक समाज को चुनौती देती है। लगातार मां बनने से कई बार औरत की जान को खतरा पैदा हो जाता है।

ज्‍यादा बच्‍चे होने पर उनकी परवरिश में आनी वाली दिक्‍कतें, अशिक्षा, दकियानूसी सोच से परिवार पर पड़ने वाले प्रभावों को यह फिल्‍म बारीकी से उठाती है। बीते दिनों विवादों में रहने वाली इस फिल्‍म को लेकर अदालत ने भी कहा है कि यह महिलाओं के उत्‍थान की बात करती है।

क्या है हमारे बारह की कहानी?

लखनऊ में कव्‍वाल मंजूर अली खान (अन्‍नू कपूर) की दो बेगमों से 11 संतानें हैं। पहली बेगम का निधन हो चुका हैं। साठ साल के खान 12वें बच्‍चे के इंतजार में हैं। हालांकि, स्‍वास्‍थ्‍य कारणों से उनकी 35 साल की बेगम को डॉक्‍टर गर्भपात कराने की सलाह देते हैं। अन्‍यथा उनकी जान जा सकती हैं।

रूढ़िवादी और दकियानूसी खान सा‍हब को पसंद नहीं कि उनके बच्‍चे स्‍कूल-कॉलेज जाएं और अच्‍छी तालीम हासिल करें। उन्‍हें लगता है कि वहां बच्‍चों को बेहयाई सिखाई जाती है, जबकि उनकी बेटियां काफी प्रतिभावन हैं। एक बेटी उम्‍दा गायिका है। एक बेहतरीन शायरी लिखती है।

बड़ा बेटा शहनवाज (परितोष त्रिपाठी) पिता की सोच का समर्थक है। उसकी पत्‍नी अपनी बेटी के साथ घर छोड़कर जा चुकी है। दूसरा बेटा शोएब (राहुल बग्‍गा) अपने अब्‍बा से इसलिए नाराज है कि मदरसे की पढ़ाई के बाद उसे अंग्रेजी स्‍कूल ना भेजने से वह ऑटोचालक बनकर रह गया है।

छोटी अम्‍मी रुखसार (अंकिता द्विवेदी) का गर्भपात कराने को लेकर खान की बेटी अल्फिया (अदिति भतपहरी) अदालत का दरवाजा खटखटाती है। उसका मुकदमा औरतों के अधिकारों के लिए आवाज उठाने वाली आफरीन (अश्विनी कालेसकर) लेती है। उसका सामना अदालत में मेनन (मनोज जोशी) से होता है, जो खान साहब का पैरोकार है।

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फोटो- स्क्रीनशॉट/YouTube

महिलाओं की स्थिति को जाहिर करती फिल्म

फिल्‍म का पहला हिस्‍सा खान परिवार की निजी जिंदगी की झलक देता है। रियलिटी सिंगिंग शो में जरीन (अदिति धीमन) का चयन होने के बावजद पिता जाने नहीं देते। जोया (सगुन मिश्रा) पिता से छुपकर शायरी लिखती है। पत्रकार दानिश (पार्थ समथान) पहली नजर में ही अल्फिया को अपना दिल दे बैठता है।

बीच में धर्म गुरुओं का अशिक्षित लोगों को बरगाने और धर्म की आड़ में उन्‍हें ज्‍यादा से ज्‍यादा बच्‍चे पैदा करने को उकसाने का प्रसंग आता है। अल्फिया के अदालत जाने के बाद बहस के दौरान रुखसार की जिंदगी के कई पहलू सामने आते हैं। रुखसार उन औरतों का प्रतिनिधित्‍व करती है, जो गरीबी और सामाजिक दबाव में अपनी आवाज नहीं उठा पाती है।

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फोटो- स्क्रीनशॉट/YouTube

वह अंदर ही अंदर घुटती है। फिल्‍म में धर्म की आड़ लेकर गर्भपात को हराम बताना, बच्‍चे अल्‍लाह की देन हैं, ज्‍यादा बच्‍चों की परवरिश की चुनौतियां जैसे मुद्दे जिरह के दौरान आते हैं और झकझोरते हैं।

कमल चंद्रा निर्देशित फिल्‍म का पहला हिस्‍सा किरदारों को स्‍थापित करने और उनकी जद्दोजहद को दिखाता है। तमाम किरदारों के बावजूद लेखक राजन अग्रवाल अपने मुद्दे से भटकते नहीं हैं। उन्‍होंने संवेदनशीलता के साथ गर्भपात, रुढ़िवादी सोच, धर्म के ठेकेदारों की दकियानूसी सोच को दिखाया है।

फिल्‍म जनसंख्‍या नियंत्रण कानून पर भी बात करती है। धर्म गुरुओं के भड़काऊ भाषणों को दिखाती है, जो अशिक्षित लोगों को ज्‍यादा से ज्‍यादा बच्‍चों पैदा करने को उकसाता है।

हालांकि, उनके जीवन स्‍तर को सुधारने को लेकर कोई बात नहीं करता। उनका विरोध करने वालों को किस प्रकार दबा दिया जाता है। फिल्‍म उसे भी दर्शाती है। 'जब भी बदलाव की बात आती है, उनकी खोखली दीवारें हिलने लगती हैं', जैसे कई संवाद फिल्‍म को धार देते हैं।

फोटो- स्क्रीनशॉट/YouTube

अन्नू कपूर के अभिनय ने कथ्य को बनाया विश्वसनीय

फिल्‍म का खास आकर्षण अन्‍नू कपूर हैं। उन्‍होंने कट्टरपंथी खान साहब की भूमिका को बहुत शिद्दत से आत्‍मसात किया है। उर्दू पर उनकी पकड़ किरदार को विश्‍वसनीस बनाती है। वकील की भूमिका में अश्विनी कालेसकर का अभिनय उल्‍लेखनीय है। वह जिरह की आड़ में महिलाओं के दर्द, सामाजिक दबाव और बदलाव को लेकर अड़चनों को तार्किक तरीके से प्रस्‍तुत करती हैं।

अदालती कार्यवाही के दौरान कई ऐसे पल आते हैं, जो तनावपूर्ण और प्रभावशाली हैं। दानिश और अल्फिया की प्रेम कहानी बहुत आकर्षित नहीं करती। बाकी किरदार अपनी भूमिका साथ न्‍याय करते हैं। फिल्‍म लखनऊ में सेट है। वहां पर शूटिंग कहानी को विश्‍वसनीय बनाती है। 'बुझी आंखें भी हों रोशन' कव्‍वाली सुनने में अच्‍छी लगती है।

'हमारे बारह’ मुख्‍य रूप से कई सामाजिक मुद्दों को उठाती है। यह फिल्‍म किसी धर्म की आलोचना नहीं करती, लेकिन धर्म की आड़ में भटके लोगों की सोच दिखाती है। जनसंख्‍या नियंत्रण इस समय वक्‍त की मांग है। इस पर सभी को विचार करने की आवश्‍यकता है। देश तभी तरक्‍की करता है, जब देशवासी उसकी तरक्‍की में साथ आते हैं।


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