Jigra Review: क्या जिगरा के साथ आलिया भट्ट बनेंगी बॉलीवुड की 'एंग्री यंग वुमन'? यहां पढ़ें
आलिया भट्ट की फिल्म जिगरा का फैंस एक लंबे समय से इंतजार कर रहे थे। भाई-बहन के रिश्ते को दर्शाती इस फिल्म में द आर्चीज के वेदांग रैना ने उनके भाई का किरदार अदा किया है। आलिया भट्ट वासन बाला के निर्देशन में बनी इस मूवी में पहली बार एक्शन अवतार में नजर आ रही हैं। ये फिल्म आपको थिएटर में बैठे रहे पर मजबूर करेगी या नहीं पढ़ें रिव्यू
स्मिता श्रीवास्तव, मुंबई। निर्देशक वासन बाला ने एक साक्षात्कार में दावा किया था कि करण जौहर (फिल्म निर्माता) ने उनकी सहमति के बिना आलिया भट्ट को जिगरा फिल्म की अधूरी स्क्रिप्ट भेज दी थी। उन्होंने कहा था कि वह इससे खुश नहीं थे। पर फिल्म देखने के बाद लगता है कि वासन ने अधूरी स्क्रिप्ट को पूरा ही नहीं किया। पात्रों में काफी अधूरापन है।
आलिया जैसी मंझी अभिनेत्री की मौजूदगी के बावजूद जिगरा की धड़कनें सुस्त है। जिगरा की कहानी में नयापन बस इतना है कि इस बार अपने किसी असहाय, निर्दोष और मुश्किल में फंसे स्वजन की रक्षा के नायिका आती है। ठीक वैसे ही जैसे पिछली सदी के सातवें, आठवें दशक में एंग्री यंग मैन अमिताभ बच्चन का पात्र आता था। अकेले दम पर वह दुश्मन की लंका का दहन कर देता था। इस बार परिस्थितियां कमोबेश वैसी ही हैं।
क्या है फिल्म 'जिगरा' की कहानी?
होटल में कार्यरत सत्या (आलिया भट्ट) अपने इकलौते भाई अंकुर (वेदांग रैना) से बेइंतहा प्यार करती है। सत्या का कड़वा अतीत है। पिता ने बचपन में उसकी आंखों के सामने आत्ममहत्या की होती है। अंकुर काम के सिलसिले में दक्षिण पूर्व एशियाई द्वीप हांशी दाओ जाता है जहां ड्रग्स तस्करी के आरोप में फंसा दिया जाता है।
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वहां पर ड्रग्स के तस्करी की सजा सजा-ए-मौत होती है। अंकुर को तीन महीने बाद मौत की सजा दी जानी है। सत्या अपने भाई को बचाने की खातिर वहां पहुंचती है।
कहां-कहां फिल्म कर सकती है आपको कन्फ्यूज
वासन बाला निर्देशित जिगरा श्रीदेवी अभिनीत फिल्म गुमराह की याद दिलाती है, जिसमें संजय दत का पात्र उसे जेल से छुड़ाने के लिए सबकुछ दांव पर लगा देता है। वह फिल्म सुपरहिट रही थी। हालांकि जिगरा में इन्हें भाई बहनों के संबंधों में परिवर्तित कर दिया गया है। दिक्कत यह है कि वासन और देबाशीष इरेंग्बम द्वारा भाई बहनों के रिश्तों पर बनी जिगरा को देखते हुए दिल को छू लेने वाले पल नदारद है, जो हमें यह विश्वास दिलाते हैं कि जब भाई कैद में तो बहन उसे छुड़ाने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है।
अंकुर जिस जेल में हैं वहीं पर रिटायर गैंगस्टर शेखर भाटिया (मनोज पाहवा) के बेटे को भी मौत की सजा मिली है। इसी तरह पूर्व पुलिसकर्मी मुथु (राहुल रवींद्रन) एक निर्दोष को सजा दिलाने की वजह से ग्लानि में हैं। शेखर का बेटा कैसे फंसा, मुथु से गलती कहां हुई इनका जिक्र कहानी में कहीं भी नहीं है। दोनों के अतीत और उनकी लाचारी कहानी के कमजोर पहलू लगते हैं। इतनी सुरक्षित जेल में अंकुर के साथियों को कहां से सपोर्ट मिल रहा? जेल से फरार होने के रास्तों की जानकारी सिर्फ उन्हें कैसे है? इन सवालों के जवाब कहीं से नहीं मिलते। शेखर को इसके बारे में पता क्यों नहीं चलता?
वासन का हिंदी सिनेमा के महानायक अमिताभ बच्चन के प्रति प्रेम फिल्म में साफ झलकता है। शेखर का मोबाइल पर अमिताभ की फिल्मों के गाने सुनता है। वहीं फिल्म में संवाद है बच्चन नहीं बनना है बचना है। फिर एक मोड़ पर सत्या कहती है कि अब तो बच्चन ही बनना है। वो बच्चन बनकर जेल उड़ाने योजना बनाती है। यहीं पर लेखक मात खाते हैं। उन्हें दर्शकों को रोमांचकारी और विस्मयकारी यात्रा के लिए तैयार करना चाहिए था, लेकिन फिल्म जल्द ही हिंदी सिनेमा के घिसे पिटे ढर्रे पर आ जाता है। फिल्म की समस्या इसकी लंबी अवधि भी है। सत्या की ताकत प्रदर्शन हो या पिता का आत्महत्या करना उन दृश्यों में दोहराव है। सत्या के पिता की आत्महत्या की वजह भी स्पष्ट नहीं है।
कहानी वीक लेकिन नए किरदार में छाईं आलिया भट्ट
फिल्म का भार मुख्य रूप से आलिया भट्ट के कंधों पर है। सत्या की सादगी, लाचारी, आत्मविश्वास और जुझारूपन को आलिया बखूबी आत्मसात करती हैं। एक्शन करती हुई आलिया इस नए अंदाज में अच्छी लगती है। हालांकि इसके श्रेय एक्शन डायरेक्टर विक्रम दहिया और सिनेमेटोग्राफर स्वप्निल सुहास सोनावले (swapnil Suhas Sonawane) को भी जाता है जिन्होंने उन्हें स्टाइलिश दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
वहीं लाचार भाई की भूमिका में वेदांग अच्छे लगते हैं। विवेक गोंबर, मनोज पाहवा, राहुल रवींद्र का काम उल्लेखनीय है। फिल्म का बैकग्राउंड संगीत तनाव को बढ़ाने में मदद करता है। अगर पटकथा में कसाव होता, सहयोगी पात्रों को बेहतरी तरीके से गढ़ा जाता तो यह बेहतर फिल्म हो सकती थी।
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