Jubilee Web Series Review: आजादी और बंटवारे के बाद सिनेमा के गोल्डन एरा की सुनहरी और स्याह तस्वीर है 'जुबली'
Jubilee Web Series Review जुबली वेब सीरीज प्राइम वीडियो पर स्ट्रीम हो गयी है। विक्रमादित्य मोटवाने निर्देशित सीरीज हिंदी सिनेमा के गोल्डन एरा में ले जाती है जब देश को आजादी मिली थी और बंटवारे का दर्द भी कलेजा चीर रहा था।
By Manoj VashisthEdited By: Manoj VashisthUpdated: Fri, 07 Apr 2023 08:58 AM (IST)
मनोज वशिष्ठ, नई दिल्ली। भारतीय सिनेमा में आजादी की लड़ाई और बंटवारे की ऐतिहासिक घटनाओं के इर्द-गिर्द कई फिल्मों की कहानियों को रचा और गढ़ा गया है। आजादी के 75वें साल में ऑस्कर लाने वाली तेलुगु फिल्म आरआरआर की कहानी भी ब्रिटिश राज और अंग्रेजी हुकूमत से टकराव पर आधारित थी।
बंटवारे का दर्द भी कई कहानियों में समेटा गया। मगर, देश जब आजादी की दहलीज पर खड़ा था तो इन कहानियों को पर्दे पर उतारने वाली फिल्म इंडस्ट्री के अंदर क्या चल रहा था, इसकी सुनहरी और स्याह झलक दिखाती है अमेजन प्राइम वीडियो की ताजा सीरीज जुबली।
इस सीरीज को हिंदी सिनेमा के क्रमिक विकास की केस स्टडी के तौर पर भी देखा जा सकता है, क्योंकि कुछ किरदार और घटनाक्रम वास्तविकता के बेहद करीब लगते हैं।
आजादी के बाद पचास और साठ का दशक भारतीय सिनेमा का स्वर्ण युग इसलिए भी कहा जाता है, क्योंकि इस दौर में सिनेमा ने अंगड़ाई लेना शुरू किया था।
पश्चिमी सिनेमा के प्रभाव, फिल्मों में तकनीक के विकास, देश के बदलते मिजाज और नयी चुनौतियों ने फिल्मों से अपेक्षाओं को बढ़ा दिया था, क्योंकि तब इसे जनता से संवाद का सबसे असरदार और सीधा माध्यम माना जाता था। देश को दिशा देने में जुटे राजनेता फिल्मों के जरिए अपने विचारों को जनता तक पहुंचाना चाहते थे।जुबली हिंदी सिनमा के इसी ट्रांसफॉर्मेशन को रोमांचक शैली में पेश करने के साथ इसके स्याह पक्ष को भी बिना लागलपेट उजागर करती है, जिसमें साजिशें, मौकापरस्ती, पैसे की हवस, धोखा, मक्कारी और सफलता के लिए किसी भी हद से गुजरने की चाहत नजर आती है।
कहानी 10 एपिसोड्स में फैली है। पहले पांच एपिसोड्स स्ट्रीम कर दिये गये हैं। एक एपिसोड की अवधि लगभग एक घंटा है। आगे के एपिसोड्स 14 अप्रैल को स्ट्रीम किये जाएंगे। मगर, पहले पांच एपिसोड्स ने जुबली के लिए स्टेज सेट कर दिया है।
क्या है जुबली की कहानी?
कहानी 13 जुलाई 1947 में शुरू होती है। आजादी की तारीख से लगभग महीनाभर पहले। इंडस्ट्री की सबसे बड़ी फिल्म निर्माण कम्पनी रॉय स्टूडियोज कर्ज में डूबी है। कम्पनी को एक ऐसे सुपरस्टार मदन कुमार को क्रिएट करने की जरूरत है, जिसके लिए जनता की दीवानगी दौलत का अम्बार लगा दे। ऑडिशन के बाद कम्पनी के मालिक श्रीकांत रॉय (प्रोसेनजित चटर्जी) की तलाश जमशेद खान (नंदीश संधू) पर खत्म होती है। अखबार में खबर छपवा दी जाती है कि स्टूडियो की अगली फिल्म संघर्ष से नया स्टार मदन कुमार (नंदीश) लॉन्च होगा।उधर, जमशेद खान लखनऊ में श्रीकांत की पत्नी और स्टूडियो की आधी मालकिन सुमित्रा कुमार (अदिति राव हैदरी) के साथ कराची भागने की योजना बना रहा है। सुमित्रा खुद भी सुपरस्टार है, मगर श्रीकांत की बेवफाई और दूसरी स्त्रियों के प्रति आसक्ति ने सुमित्रा को बागी बना दिया है।श्रीकांत को जमशेद खान और सुमित्रा के प्रेम प्रसंग से कोई एतराज नहीं है, क्योंकि इन दोनों पर उसकी फिल्म संघर्ष और स्टूडियो का भविष्य टिका है। जमशेद थिएटर का अभिनेता है और फिल्म उसकी प्राथमिकता नहीं है। श्रीकांत जल्द से जल्द जमशेद को मदन कुमार बनाकर फिल्म लॉन्च करना चाहता है। वो अपने विश्वासपात्र स्टूडियो कर्मी बिनोद दास (अपारशक्ति खुराना) को जमशेद और सुमित्रा को बुलाने के लिए भेजता है। बिनोद, सुंदर नाम का फैन बनकर जमशेद से मिलता है और उसे फिल्म करने के लिए कन्विंस करने की कोशिश करता है।इस बीच लखनऊ में दंगे शुरू हो जाते हैं और इनमें जमशेद मारा जाता है। बिनोद उसे बचा सकता था, मगर खुद मदन कुमार बनने की ख्वाहिश दिल में दबी होने के कारण पीछे हट जाता है। मदन कुमार का मारा जाना रॉय के लिए बड़ा झटका था। उसे बिनोद की कारगुजारी का पता चल जाता है, मगर एक नाटकीय घटनाक्रम के बाद बिनोद की संवाद अदायगी देख वो उसे मदन कुमार बनाकर लॉन्च करने का फैसला करता है।फाइनेंसर शमशेर वालिया (राम कपूर) इसका पुरजोर विरोध करता है, मगर रॉय किसी की नहीं सुनता। सुमित्रा कुमारी के साथ मदन की लांचिंग होती है। फिल्म सुपरहिट हो जाती है और बिनोद सुपरस्टार मदन कुमार बनकर स्टाफ क्वार्टर से स्टार क्वार्टर में 500 रुपये महीने की तनख्वाह पर शिफ्ट हो जाता है। इस कहानी में एक प्रमुख पात्र है जय खन्ना (सिद्धांत गुप्ता), जो जमशेद का दोस्त है। उसके पिता नारायण खन्ना (अरुण गोविल) कराची में मशहूर थिएटर कम्पनी के मालिक हैं। जमशेद फिल्में छोड़कर इसी थिएटर कम्पनी से जुड़ने वाला होता है। उधर, बंटवारे के बाद जय का परिवार मुंबई के सायन इलाके में बने रिफ्यूजी कैम्प में शरण लेता है। आजीविका के लिए हाथ-पैर मारते-मारते जय अपनी लिखी स्क्रिप्ट पर फिल्म बनाना चाहता है।कुछ घटनाक्रमों के बाद वो पहले से परिचित मदन कुमार को फिल्म में काम करने के लिए मना लेता है। मदन कुमार के आने से फाइनेंसर वालिया भी पैसा लगाने के लिए तैयार हो जाता है।फिल्म की हीरोइन के लिए लखनऊ से मुंबई पहुंची तवायफ नीलूफर कुरैशी का चयन किया जाता है, जिससे जय लखनऊ में मिल चुका होता है।
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मगर, यहां एक बड़ा मोड़ आता है और श्रीकांत रॉय की सलाह पर मदन कुमार ठीक मुहूर्त के दिन जय की फिल्म से हाथ खींच लेता है। जय हक्का-बक्का रह जाता है। उसकी समझ नहीं आता अब क्या करे। फिल्म नहीं बनी तो वो खत्म हो जाएगा। यह जुबली वेब सीरीज का इंटरवल प्वाइंट है।
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कैसे हैं स्क्रीनप्ले और संवाद?
निर्देशक विक्रमादित्य मोटवाने और क्रिएटर सौमिक सेन की कहानी पर जुबली का स्क्रीनप्ले अतुल सभरवाल ने लिखा है। स्क्रीनप्ले के जरिए दृश्यों में 40-50 के दशक को जीवित करने की पूरी कोशिश की गयी है।हर एक दृश्य दर्शक अपने विभिन्न तत्वों के जरिए दर्शक को उसी दौर में ले जाता है। इसमें कॉस्ट्यूम से लेकर प्रोडक्शन डिजाइन विभाग की मेहनत सराहनीय है। भवनों, निजी और सार्वजनिक वाहनों, रास्तों के आसपास का आर्किटेक्चर उस कालखंड के अनुरूप है। फिल्म निर्माण की विकास यात्रा को दृश्यों में खूबसूरती के साथ पिरोया गया है। प्लेबैक सिंगिंग की फिल्मों में किस तरह शुरुआत हुई, इसे श्रीकांत रॉय और बिनोद दास के जरिए जिस तरह दिखाया गया है, वो सीरीज के यादगार दृश्यों में शामिल है। या फिर, ऑल इंडिया रेडियो पर हिंदी फिल्मों के गाने प्रतिबंधित होने के बाद रेडियो सीलोन तक उन्हें पहुंचाने के दृश्य कमाल हैं। देशों की राजनीति का इंडस्ट्री पर प्रभाव भी इन दृश्यों में शामिल किया गया है।संवादों का लेखन और संवाद अदायगी सीरीज का हाइलाइट हैं। उस दौर की भाषा, बोलचाल में प्रयोग होने वाले शब्द और कलाकारों का बोलने का अंदाज जुबली के दृश्यों को समय के दायरे से बाहर नहीं निकलने देता। आजादी के बाद के कुछ सालों तक हिंदुस्तानी भाषा का चलन रहा, जो सीरीज में साफ झलकता है।कलाकारों की संवाद अदायगी में उस बात का खास ध्यान रखा गया है कि उनके बोलने में वो लहजा बना रहे। इसके लिए निर्देशक विक्रमादित्य मोटवाने के सधे हुए निर्देशन को दाद देनी होगी।
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कैसा है कलाकारों का अभिनय?
जुबली मुख्य रूप से पांच किरदारों श्रीकांत रॉय, मदन कुमार उर्फ बिनोद दास, जय खन्ना, सुमित्रा कुमारी और नीलूफर कुरैशी की कहानी है। इन पात्रों के जरिए अतुल ने फिल्म इंडस्ट्री के गोल्डन एरा में सफर को दिखाया है।कुछ और सहयोगी किरदार हैं, जो मुख्य कथ्य को आगे बढ़ाने में मदद करते हैं या कॉन्फ्लिक्ट के जरिए रोमांच बढ़ाते हैं। इनमें बिनोद दास की पत्नी रत्ना दास (श्वेता बसु प्रसाद), शमशेर वालिया, रिफ्यूजी कैम्प में जय की प्रेमिका किरण सिंह सेठी (सुखमणि लाम्बा) और म्यूजिक लेबल का मालिक नानिक जोतवानी (आर्य भट्ट) शामिल हैं। इन सभी किरदारों को अतुल ने बखूबी गढ़ा है और स्क्रीनप्ले में भरपूर समय दिया है, जिसके चलते ये सभी कहानी में अपना योगदान देते नजर हैं। होठों में सिगार दबाये रहने वाले सूटेड-बूटेड श्रीकांत राय के किरदार में प्रोसेनजित ने एक संभ्रांत, अमीर, जिद्दी और बिजनेस माइंडेड फिल्म विजनरी की छवि को पेश किया है। वो फिल्में बनाता है, मगर अपनी शर्तों पर। मालिक के विश्वासपात्र और राजदार लेकिन मौके को लपकने में माहिर बिनोद दास के परतदार किरदार को अपारशक्ति खुराना ने साकार किया है। 40 के दशक की दीवा सुमित्रा के किरदार में अदिति राव हैदरी ब्यूटी और ब्रेन का परफेक्ट कॉम्बिनेशन हैं। यह किरदार उस दौर की कामयाब और खुदमुख्तार अभिनेत्री को सफलतापूर्वक पेश करता है। मगर, जो किरदार सबसे ज्यादा प्रभावित करता है, वो है जय खन्ना। इस किरदार की भी कई परते हैं, जिन्हें सिद्धांत गुप्ता ने कायदे से पेश किया है। इस किरदार का संघर्ष और सफर असर छोड़ता है। बंटवारे के बाद रिफ्यूजी कैम्प का संघर्ष, छोटे-मोटे काम करने के साथ अपने सपनों को उड़ान देने का जज्बा उस दौर के ऐसे कलाकारों की याद दिलाता है, जो अपना सब कुछ छोड़कर मुंबई में जीरो से जिंदगी शुरू करते हैं। वामिका का किरदार नीलूफर फिल्म इंडस्ट्री में महिलाओं के संघर्ष और समझौतों को दिखाता है। वामिका ने इस किरदार को पूरी शिद्दत से जिया है। जमशेद खान के किरदार के जरिए मुस्लिम कलाकारों के हिंदू नाम रखने के चलन पर भी कमेंट किया गया है। इस किरदार में नंदीश संधू की स्क्रीन प्रेजेंस कम है, मगर वो जहां-जहां आये हैं, अपनी संवाद अदायगी से महफिल लूट ली है।अमित त्रिवेदी का संगीत गोल्डन एरा को लय में रखता है। गीतों का लेखन और संगीत 40-50 के दशक की यादों को ताजा करता है। वामिका पर फिल्माया गया गीत बाबूजी भोले भाले कर्णप्रिय है और बाबूजी धीरे चलना की याद दिलाता है। पूरी सीरीज की रंग संरचना सेपिया टोन में रखी गयी है, ताकि ओल्ड फिल्म इफेक्ट से गोल्डन एरा की मौजूदगी बनी रहे।
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