Savi Review: सावित्री बनकर दिव्या खोसला ने दिखाया एक्शन का दम, चौंकाता है अनिल कपूर का किरदार
सावी एक ऐसी हाउसवाइफ की कहानी है जिसका पति कत्ल के आरोप में जेल की सजा काट रहा है। सीधी-सादी हाउसवाइफ सावी उसे जेल से भगाने के लिए पूरा जोर लगा देती है। फिल्म का निर्देशन अभिनय देव ने किया है। दिव्या खोसला हर्षवर्द्धन राणे और अनिल कपूर इस फिल्म में प्रमुख किरदारों में हैं। बॉक्स ऑफिस पर सावी के सामने मिस्टर एंड मिसेज माही है।
स्मिता श्रीवास्तव, मुंबई। पौराणिक कथा में यमराज सावित्री की हठ के आगे झुक गए थे। उन्हें सावित्री के पति सत्यवान के प्राण लौटाने पड़े थे। फिल्म ‘सावी: ए ब्लडी हाउसवाइफ’ भी इसी तर्ज पर बनी फिल्म है। यह आधुनिक दौर में एक गृहिणी द्वारा अपने पति को जेल से भगाने की कहानी पर आधारित है, जिसमें वह कोई भी सीमा पार करने के लिए तैयार है।
क्या है फिल्म की कहानी?
लीवरपूल (इंग्लैंड) में नकुल सचदेव (हर्षवर्द्धन राणे) अपनी पत्नी सावी उर्फ सावित्री (दिव्या खोसला) और करीब छह साल के बेटे आदि के साथ खुशहाल जीवन जी रहा होता है। नकुल की अपनी महिला बॉस से बनती नहीं है। अचानक से पुलिस आती है और नकुल को उसकी बॉस की हत्या के आरोप में गिरफ़्तार करके ले जाती है।
नकुल के खिलाफ पुख्ता सूबत होते हैं। अदालत उसे आजीवन कारावास की सजा देती है। सावी इससे टूट जाती है। वह नकुल को जेल से भगाने की योजना बनाती है।
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वह जेल से भागने को लेकर वहां की चाकचौबंद सुरक्षा व्यवस्था को लेकर इंटरनेट पर सर्च करती है। एक पूर्व अपराधी से लेखक बने मिस्टर पॉल (अनिल कपूर) द्वारा लिखी गई किताब पढ़ती है। वह मिस्टर पॉल से मिलने जाती है। नाटकीय घटनाक्रम में पॉल की मदद से फर्जी पासपोर्ट बनवाती है और फिर भागने की योजना।
सिनेमैटिक लिबर्टी से अविश्वसनीय हुए किरदार
डेल्ही बेली फिल्म का निर्देशन कर चुके अभिनय देव ने इस बार थ्रिलर में हाथ आजमाया है। नकुल की गिरफ्तारी के बाद वह अदालती जिरह में समय ना गंवाते हुए सीधे मुद्दे पर आते हैं। नकुल को सीधे दोषी करार देने के बाद चंद भावनात्मक दृश्य आते हैं और सावी के इरादों को जाहिर कर दिया जाता है।
हालांकि, नकुल कहता है कि घटना की रात कोई उससे टकराया था, जिसके कोट का बटन टूट कर जमीन पर गिरा था। उसका खून ही उसके कोट पर लगा था। वह खुद को निर्दोष बताता है, पर ना तो वकील को ना ही पुलिस को वह बटन मिलता है।
सिर्फ बटन से ही उसे निर्दोष साबित किया जाता, यह भी जिज्ञासा का विषय है। बहरहाल, फिल्म में सिनेमाई लिबर्टी काफी लेने की वजह से कहानी विश्वसनीय नहीं बन पाई है। सावी एक आम गृहणी है। हालांकि, आर्थिक तंगी से जूझ रही सावी जब पैसों को लूटने के इरादे से जाती है तो लगता ही नहीं कि वह पहली बार किसी से भिड़ रही है। वह आसानी से गोली चलाती है।
थ्रिलर फिल्म में ट्विस्ट और टर्न्स सबसे अहम होते हैं। यहां पर उसका अभाव है। फिल्म में दिखाए प्रसंग और घटनाक्रम सपाट तरीके से आगे बढ़ते हैं। लगता है कि किताबों और पॉल की मदद से सब कुछ कर लेना बहुत आसान है। सावी पहले नकुल को जेल से भगाने के लिए प्रयासरत होती है और फिर अपने डायबेटिक पति की मेडिकल रिपोर्ट बदलकर अस्पताल से भगाने का काम करती है।
तब लगता है कि इतनी किताब पढ़ने और दीवारों पर चार्ट लगाने की क्या जरूरत थी। यह बहुत आसान तकनीक थी। पुलिस का पक्ष भी कमजोर है। यह सारे अवयव कहानी को कमजोर बनाते हैं। नकुल जेल में सजा को लेकर चिंतित नजर नहीं आता है। ना ही सजा के खिलाफ आगे अपील की कोशिश करता है।
जेल में नकुल की दबंग कैदियों द्वारा पिटाई के सीन में कोई नयापन नहीं है। पहले भी कई फिल्मों में ऐसे दृश्य देखने को मिलते रहे हैं।
अनिल कपूर के अभिनय ने जमाया रंग
यारियां और सनम रे का निर्देशन करने के बाद दिव्या अब अभिनय की ओर समर्पित हैं। फिल्म का भार उनके कंधों पर है। उन्होंने सावी के मनोभावों को आत्मसात करने की कोशिश की है, लेकिन भावनात्मक दृश्यों में वह कहीं-कहीं कमजोर नजर आती हैं।
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फिल्म का खास आकर्षण अनिल कपूर हैं। उन्हें बहरूपिये बनने का मौका मिला है। वह हर सीन में अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रहते हैं। हर्षवर्द्धन के हिस्से में कुछ खास नहीं आया है। हालांकि, दिव्या के साथ उनकी जोड़ी अच्छी लगी है।
हिंदी सिनेमा में लंदन को काफी दर्शाया गया है। यहां पर लीवरपूल की पृष्ठभूमि में कहानी सेट है। सिनेमेटोग्राफर चिन्मय सालस्कर ने लीवरपूल की खूबसूरती को बारीकी से कैमरे में कैद किया है। फिल्म का बैकग्रांउड संगीत कथ्य के प्रभाव को गाढ़ा करने में बेअसर नजर आता है।