Move to Jagran APP

Shershaah Review: मिडिल क्लास परिवार के जांबाज़ बेटे की कहानी, जिसके पहाड़ जैसे पराक्रम से पस्त हुए दुश्मन

Shershaah Review यह भारत के छोटे शहर-क़स्बों में रहने वाले हर उस मध्यमवर्गीय परिवार की कहानी है जिसके 14 साल के बेटे को दूरदर्शन पर आने वाले धारावाहिक परमवीर चक्र में मेजर सोमनाथ शर्मा की वीरगाथा देखकर फौजी वर्दी से मोहब्बत हो जाती है।

By Manoj VashisthEdited By: Updated: Sat, 14 Aug 2021 07:15 AM (IST)
Hero Image
Sidharth Malhotra in Shershaah movie. Photo- Instagram
मनोज वशिष्ठ, नई दिल्ली। अमेज़न प्राइम वीडियो पर रिलीज़ हुई 'शेरशाह' को सिर्फ़ एक वॉर या देश पर कुर्बान हुए एक जांबाज़ नौजवान सैन्य अफ़सर की बायोपिक के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि यह भारत के छोटे शहर-क़स्बों में रहने वाले हर उस मध्यमवर्गीय परिवार की कहानी है, जिसके 14 साल के बेटे को दूरदर्शन पर आने वाले धारावाहिक 'परमवीर चक्र' में मेजर सोमनाथ शर्मा (टीवी शो में यह किरदार फ़ारूक़ शेख़ ने निभाया था) की वीरगाथा देखकर फौजी वर्दी से मोहब्बत हो जाती है और खेल-खेल में ही सही, वो इस मोहब्बत को अपनी ज़िंदगी का मक़सद बना लेता है।

सपनों को उड़ान देने के लिए इंजीनियरिंग और मेडिकल व्यवसाय में जाने की 90 के दशक की भेड़-चाल के बीच वो फौज को अपना प्रोफेशन चुनता है और महज़ 25 साल की उम्र में बर्फ़ में लिपटे पहाड़ों के सीने पर शौर्य और शहादत की अमिट दास्तान लिख मुस्कुराता हुआ दुनिया को विदा कहता है।

कारगिल युद्ध में अपने पराक्रम के लिए सेना का सर्वोच्च सम्मान परमवीर चक्र पदक पाने वाले कैप्टन विक्रम बत्रा के जीवन को निर्देशक विष्णु वर्धन ने बड़े पर्दे पर उतारा है, जिनकी यह पहली हिंदी और वॉर फ़िल्म है। विष्णु ने इससे पहले दक्षिण भारतीय भाषाओं में फ़िल्में निर्देशित की हैं।

लेखक संदीप श्रीवास्तव ने शेरशाह की कहानी कैप्टन विक्रम बत्रा के जुड़वां भाई विशाल बत्रा के नज़रिए से पर्दे पर पेश की है, जिसमें बचपन की यादों के साथ कॉलेज की ज़िंदगी, प्रेम और फौज में भर्ती से लेकर कारगिल युद्ध में शहादत तक के घटनाक्रमों को समेटा गया है।

शेरशाह, कैप्टन बत्रा के पारिवारिक और मानवीय पहलू से लेकर उनके देशप्रेम और बलिदान के लिए तत्पर रहने वाले जज़्बे की तस्वीर पेश करती है। अच्छी बात यह है कि इसमें कुछ कर गुज़रने का उत्साह तो है, मगर ग़ैरज़रूरी उन्माद नहीं है, जैसा कि पिछले कुछ वक़्त से देशभक्ति पर आधारित फ़िल्मों का अनिवार्य हिस्सा बन चुका है। 

कारगिल में चल रहे एक्शन के ओपनिंग सीन के बाद फ़िल्म की शुरुआत पालमपुर में कैप्टन विक्रम बत्रा के बचपन के दृश्यों से होती है। अपने से बड़ी उम्र के बच्चों से भिड़ जाने वाले विक्रम को पिता उलाहना देते हैं कि बड़ा होकर गुंडा बनेगा। विक्रम कहता है कि उसने सोच लिया है, उसे क्या बनना है। यह दृश्य 14 साल के विक्रम के तेवरों की एक झलकी पेश करता है। विशाल के नैरेशन के साथ कहानी आगे बढ़ती है।

विक्रम (सिद्धार्थ मल्होत्रा) कॉलेज पहुंचता है। क्लास में साथ पढ़ने वाली डिम्पल (कियारा आडवाणी) से मुलाक़ात होती है। दोनों में प्यार हो जाता है। डिम्पल सिख है और विक्रम बत्रा पंजाबी खत्री। डिम्पल के पिता को रिश्ता स्वीकार नहीं होता। विक्रम, डिम्पल से शादी करने के लिए प्लान बी तैयार रखता है और अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए मर्चेंट नेवी ज्वाइन करना चाहता है। मगर, फिर दोस्तों के समझाने पर एहसास होता है कि उसका सपना तो आर्मी है। आख़िरकार एसएसबी पास करके विक्रम लेफ्टिनेंट बनता है और 13 जम्मू कश्मीर राइफल्स रेजीमेंट में पहली पोस्टिंग मिलती है।

लेफ्टिनेंट विक्रम बत्रा एक ज़िंदादिल, मिलनसार और उत्साही नौजवान अफ़सर है, जो जितनी आसानी से अपने साथियों के साथ घुलमिल जाता है, उतनी ही तरलता से स्थानीय कश्मीरियों के साथ संबंध कायम कर लेता है। हालांकि, साथी आगाह करते हैं कि कश्मीरियों का यक़ीन नहीं करना चाहिए, मगर विक्रम का मानना है कि जब हम उनका यक़ीन नहीं करेंगे तो उनका भरोसा कैसे जीतेंगे। उसका यह व्यवहार आगे काम भी आता है, जब एक कश्मीरी किशोर अरसलान (अफनान आशिया) को वो अपना मुखबिर बनाकर कुख्यात आतंकी हैदर (मीर सरवर) को पकड़ने में कामयाब होता है।

कै. विक्रम बत्रा के जुड़वां भाई विशाल बत्रा के साथ सिद्धार्थ मल्होत्रा और विष्णु वर्धन। फोटो- पीआर

हैदर को पकड़ने की धमक कारगिल युद्ध का विकराल रूप लेकर सामने आती है। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की फुटेज के ज़रिए दुश्मनों को तगड़ा जवाब देने वाली फुटेज का इस्तेमाल फ़िल्म की वास्तविकता में इजाफ़ा करता है, मगर पाकिस्तानी फौज के तत्कालीन जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ का किरदार निभाने वाले कलाकार को स्पष्ट रूप से दिखाने में फ़िल्ममेकर की झिझक समझ नहीं आती।

वहीं, कारगिल युद्ध के टीवी समाचारों के ज़रिए कैप्टन सौरभ कालिया के बेहद चर्चित प्रकरण की भी झलक दिखायी गयी है, जिन्हें कारगिल युद्ध के दौरान पाकिस्तानी फौज ने उनकी पलटन के साथ पकड़ लिया था और अमानवीय ढंग से यातनाएं दी गयी थीं। यह मामला उस वक़्त काफ़ी सुर्खियों में रहा था और राजनीतिक इच्छाशक्ति के लिए एक चुनौती बन गया था।

कारगिल युद्ध के दौरान लेफ्टिनेंट वाई के जोशी (शितफ फिगार) कैप्टन विक्रम बत्रा और कैप्टन संजीव जाम्वाल (शिव पंडित) के जज़्बे को देखते हुए उनकी पलटन को लेफ्टिनेंट कर्नल वाईके जोशी अहम मिशन पर भेजते हैं, जिसमें दोनों कामयाब रहते हैं। इसी मिशन में कैप्टन विक्रम बत्रा का कोडनेम शेरशाह होता है और जीत का सिग्नल यह दिल मांगे मोर।

इस सफलता के बाद अगला मिशन होता है प्वाइंट 4875 को दुश्मन के कब्ज़े से छुड़ाने का, जो स्ट्रैटजीकली काफ़ी अहम है और इस चोटी को अपने क़ब्ज़े में लेने का मतलब था कारगिल युद्ध का अंत। ले. कर्नल जोशी  कैप्टन बत्रा और कैप्टन जाम्वाल की यूनिट को आराम करने की सलाह देते हैं, मगर कैप्टन बत्रा इस मिशन को लीड करने की अनुमति मांगते हैं। ले. कर्नल उनके यह दिल मांगे मोर वाले जज़्बे को देखते हुए 4875 को कैप्चर करने के मिशन पर भेजते हैं। मिशन तो कामयाब रहता है, मगर कैप्टन बत्रा ज़ख़्मी जवान को बचाते हुए शहीद हो जाते हैं। 

कारगिल का युद्ध जिस ऊंचाई पर लड़ा गया था। उस ऊंचाई पर जाकर कठिन भौगोलिक परिस्थितियों में युद्ध के दृश्यों को शूट करना भी हिम्मत का काम है। जागरण डॉटकॉम से बातचीत में निर्देशक विष्णु वर्धन ने बताया था कि लगभग 12-14 हज़ार फुट की ऊंचाई पर कास्ट एंड क्रू के साथ दृश्य शूट किये गये हैं। यह पहली फ़िल्म है, जो कारगिल के उन इलाक़ों में शूट हुई है।

दुर्गम पहाड़ियों पर चढ़ना और युद्ध सामग्री के साथ दृश्यों को कैमरे में कैद करना आसान नहीं रहा होगा।  सिनेमैटोग्राफर कमलजीत नेगी और बाकी क्रू सदस्यों की मेहनत से यह दृश्य प्रभावित करते हैं। इन दृश्यों के साथ फ़िल्म रफ़्तार भी पकड़ती है।

कैप्टन विक्रम बत्रा का किरदार जिस प्रकार लिखा गया है, उसकी सीमाओं में सिद्धार्थ मल्होत्रा ने अच्छा काम किया है। इस किरदार के लिए जिस उत्साह और उमंग की ज़रूरत थी, उसे पर्दे पर लाने में सिद्धार्थ कामयाब रहे हैं। डिम्पल के किरदार के भावों को ज़ाहिर करने में कियारा आडवाणी कामयाब रही हैं। हालांकि, दोनों ही कलाकारों के स्थानीय भाषा के उच्चारण पर बेहतर काम हो सकता था।

 

View this post on Instagram

A post shared by KIARA (@kiaraaliaadvani)

सिद्धार्थ की पंजाबी में पहाड़ों का कम दिल्ली का असर अधिक नज़र आता है। वहीं, कियारा का पंजाबी एक्सेंट भी ओवर लगता है। पटकथा में सारा फोकस कैप्टन विक्रम बत्रा के किरदार पर रखा गया है, जिसके चलते सहयोगी किरदार और कलाकार निकितन धीर (मेजर अजय सिंह जसरोटिया) और हिमांशु ए मल्होत्रा (मेजर राजीव कपूर) उभरकर नहीं आ पाते।

विक्रम बत्रा के क़रीबी दोस्त सनी के रोल में साहिल वैद ने अच्छा साथ दिया है। इतने कलाकारों की भीड़ में सूबेदार रघुनाथ के किरदार में राज अर्जुन और नायब सूबेदार बंसीलाल शर्मा के रोल में अनिल चरनजीत ने ख़ुद को खोने नहीं दिया। फ़िल्म में कारगिल युद्ध में बहादुरी का मेडल जीतने वाले तकरीबन सभी अफ़सरों और जवानों का प्रतिनिधित्व मिलता है। सम्भवत: यह भी एक वजह है कि कुछ किरदार असर छोड़ने में कामयाब नहीं रहते। फ़िल्म के अंत में सभी प्रमुख और सहयोगी किरदारों की ताज़ा स्थिति पेशे की जानकारी दी गयी है। 

कलाकार- सिद्धार्थ मल्होत्रा, कियारा आडवाणी, शिव पंडित, निकितन धीर, राज अर्जुन, शितफ फिगार आदि।

निर्देशक- विष्णु वर्धन

निर्माता- करण जौहर

रेटिंग- *** (तीन स्टार)