Trial Period Review: कमजोर निर्देशन के बावजूद दिल को छूती कहानी, जिनिलिया-मानव की उम्दा अदाकारी
Trial Period Movie Review द ट्रायल एक ऐसे परिवार की कहानी है जिसमें सिंगल मदर अपने बेटे की परवरिश कर रही है मगर उनके जीवन में एक मोड़ ऐसा आता है जब बेटे को पिता की कमी खलती है। इस सिचुएशन से निपटने के लिए मां एक अनोखा रास्ता चुनती है मगर यह रास्ता उनकी जिंदगी को एक अलग मुकाम पर ले जाता है।
By Manoj VashisthEdited By: Manoj VashisthUpdated: Sat, 22 Jul 2023 07:25 PM (IST)
प्रियंका सिंह, मुंबई। Trial Period Moview Review: डिजिटल प्लेटफार्म पर पारिवारिक कहानियों की संख्या बढ़ रही है। आलेया सेन निर्देशित फिल्म ट्रायल पीरियड भी उन्हीं कहानियों में शामिल हो जाती है। जिनिलिया देशमुख और मालव कौल ने फिल्म में मुख्य भूमिकाएं निभायी हैं। फिल्म जिओ सिनेमा पर स्ट्रीम हुई है।
ट्रायल पीरियड पर पिता
सिंगल मां एना राय चौधरी (जिनिलिया देशमुख) दिल्ली में अपने बेटे रोमी (जिदान ब्राज) के साथ रहती है। उसका तलाक हो चुका है। पड़ोस में एना के मामा-मामी (शक्ति कपूर-शीबा चड्ढा) रहते हैं। रोमी अक्सर उनके यहां ही रहता है। मामा को टीवी पर शॉपिंग वाले शोज देखना पसंद हैं, जिसमें 30 दिनों के ट्रायल पीरियड पर सामान इस्तेमाल करने की सुविधा दी जाती है।
सामान ना पसंद आने पर उसे वापस किया जा सकता है। एक दिन स्कूल में रोमी से पिता पर एक भाषण देने के लिए कहा जाता है। वह कुछ नहीं कह पाता है, क्योंकि उसने अपने पिता को कभी देखा ही नहीं। वह घर आकर कहता है कि उसे भी ट्रायल पीरियड पर एक पिता चाहिए।
रोमी की जिद देखकर एना नौकरी दिलाने वाली कंपनी के पास जाती है। उस कंपनी के मालिक श्रीवास्तव जी (गजराज राव) के पास उनका भतीजा प्रजापति द्विवेदी (मानव कौल) शिक्षक की नौकरी की तलाश में उज्जैन से आया होता है। वह उसे एना के घर 30 दिनों के लिए ट्रायल पीरियड पर भेज देता है।
एना, प्रजापति को कहती है कि उसे रोमी के दिल में पिता शब्द के लिए नफरत पैदा करनी है, ताकि वह फिर कभी पिता के लिए जिद ना करे। क्या प्रजापति, रोमी के दिल में पिता को लेकर नफरत भर पाएगा या उसका दोस्त बन जाएगा? फिल्म की कहानी इस पर आगे बढ़ती है।
क्या है अच्छा, कहां रह गयी कमी?
ट्रायल पीरियड के लिए पिता ऑर्डर करने की यह सोच नई है, लेकिन आलेया कि लिखी यह कहानी काफी प्रत्याशित है। पहले से अंदाजा लग जाता है कि कहानी का अंत क्या होगा। फिर भी अपने विषय की वजह से दिल को छूती है, क्योंकि अक्सर मां की ममता और उनके त्याग के आसपास फिल्मों की कहानियों के बुना जाता है।
ऐसे में आलेया की इस कहानी की खास बात यह है कि उन्होंने इसे पिता के एंगल से बनाया है कि बच्चे की जिंदगी में उनकी क्या अहमियत होती है। फिल्म धीमी है, इसलिए लंबी भी लगती है। कुछ गैरजरूरी दृश्य, जैसे- एना का बच्चे के लिए पिता चुनने वाली प्रक्रिया के लिए बनाया गया पूरा एक गाना संपादित किया जा सकता था।<
p>आलेया का निर्देशन कई जगहों पर कमजोर पड़ता है, कई दृश्यों को उन्होंने बहुत लंबा खींच दिया है। एना के किरदार की अच्छी बात यह है कि वह बच्चे की सारी जिम्मेदारियां अकेले उठा रही है, लेकिन उसे बेचारी नहीं दिखाया गया है। इस आधुनिक और आत्मनिर्भर महिला की भूमिका को जिनिलिया ने बखूबी निभाया है। गलत के खिलाफ आवाज उठाने के लिए हिम्मत बढ़ाना, हर कदम पर बच्चे की ताकत बनकर खड़े रहना, पिता अपने बच्चे का सुपरहीरो क्यों होता है, इसे मानव कौल अपने अभिनय के जरिए समझा जाते हैं। गजराज राव का किरदार अधूरा सा लगता है। उन्हें और स्क्रीनस्पेस दिए जाने की आवश्यकता थी।जिदान ब्राज की पहली भाषा हिंदी नहीं है, फिर भी वह इस बात का एहसास नहीं होने देते हैं। फिल्म का काफी जिम्मा उनके कंधों पर है। वह भावुक दृश्यों में अपने अभिनय से चौंकाते हैं। खासकर, स्टेज पर भाषण देने वाला सीन, जिसमें वह पिता शब्द को समझा नहीं पाते हैं और उनका दोस्त उन्हें इशारे से समझाने का प्रयास करता है कि पिता सुपरहीरो जैसे होते हैं। नाना-नानी के रोल में बरुण चंदा और स्वरूपा घोष विश्वसनीय लगते हैं। मेरे पापा भंयकर हैं... गाना मजेदार है।