Vedaa Review: एक्शन में अव्वल पर संवेदनाओं में पिछड़ी, पढ़िए कहां चूकी जॉन-शरवरी की फिल्म?
जॉन अब्राहम एक विलेन रिटर्न्स के बाद के बाद वेदा से बड़े पर्दे पर लौट रहे हैं। यह हार्डकोर एक्शन फिल्म है जिसमें पृष्ठभूमि में एक सामाजिक मुद्दा है। मगर क्या फिल्म इस मुद्दे के साथ जस्टिस कर पाती है? पढ़िए फिल्म के रिव्यू में। निखिल आडवाणी ने निर्देशन किया है। शरवरी वाघ जॉन के साथ लीड रोल में हैं।
स्मिता श्रीवास्तव, मुंबई। सामाजिक बुराइयों को हिंदी सिनेमा हमेशा से ही अपनी कहानियों में पिरोता आया है। इनमें ऊंच-नीच, सामाजिक भेदभाव, ऑनर किलिंग और स्त्री उत्पीड़न जैसे विषयों को प्रमुखता दी जाती रही है। कई सत्य घटनाओं पर फिल्म निर्देशित कर चुके निखिल आडवाणी की फिल्म वेदा भी सच्ची घटना से प्रेरिेत है।
इस फिल्म को 2007 के बहुचर्चित मनोज-बबली और मीनाक्षी (2011) ऑनर किलिंग से प्रेरित बताया गया है। हालांकि, असीम अरोड़ा लिखित इस कहानी में रिसर्च का अभाव स्पष्ट नजर आता है। फिल्म ना तो ऑनर किलिंग को समुचित तरीके से दिखा पाती है, ना ही असमानता का सामना करने वालों की पीड़ा।
क्या है वेदा की कहानी?
कहानी यूं है कि पाकिस्तानी आतंकी को पकड़ने के लिए भारतीय सैन्य अधिकारी अभिमन्यु कंवर (जॉन अब्राहम) खास मिशन के तहत पाक अधिकृत कश्मीर जाता है। वह अपने मिशन में कामयाब रहता है, लेकिन अपने वरिष्ठजनों का निर्देश ना मानने पर सेना से बर्खास्त कर दिया जाता है।
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वह बाड़मेर (राजस्थान) आता है। अपने ससुर की मदद से कॉलेज में बॉक्सिंग का असिस्टेंट कोच बन जाता है। उसकी पत्नी (तमन्ना भाटिया) की आतंकियों ने हत्या कर दी होती है। इसी कॉलेज में पढ़ने वाली वेदा दलित है। कालेज में उसे पानी लेने की इजाजत नहीं है।
गांव के प्रधान जितेंद्र प्रताप सिंह (अभिषेक बनर्जी) का छोटा भाई सुयोग प्रताप सिंह (क्षितिज चौहान) अपने दोस्तों के साथ उसे अक्सर परेशान करता रहता है। जिले के 150 गांवों का प्रधान जितेंद्र गांव के मामलों को लेकर फैसला, कार्रवाई और पेशी खुद ही करता है।
वेदा का भाई ऊंची जाति की लड़की से प्यार करता है। सामाजिक विरोध को देखते हुए दोनों घर से भाग जाते हैं। उन्हें शादी कराने का लालच देकर वापस बुलाया जाता है। फिर उनकी सबके सामने हत्या कर दी जाती है। उसके बाद प्रधान का कहर टूटता है वेदा और उसकी बहन पर।
अभिमन्यु से बॉक्सिंग की ट्रेनिंग लेने वाली वेदा उससे मदद मांगती है। प्रधान उसकी खोज में लगा होता है। वह अपने अधिकारों के लिए अदालत पहुंच पाती है या नहीं कहानी इस संबंध में हैं।
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कहां रह गई स्क्रीनप्ले में कमी?
फिल्म की शुरुआत में कहानी तेजी से आगे बढ़ती है। शीर्षक भले ही वेदा के नाम पर है, लेकिन फिल्म का असल दारोमदार जॉन अब्राहम के कंधों पर है। उनके हिस्से में संवाद कम एक्शन भरपूर हैं। कोर्ट मार्शल के बाद अभिमन्यु अपने ससुर के पास आता है, लेकिन उसकी वजह स्पष्ट नहीं है।
उसके ससुर भी अपनी बेटी को लेकर कभी भी दर्द बयां नहीं करते। फिल्म को देखते हुए लगता है कि कालेज में वेदा अकेली है, जिसे इस प्रकार छुआछूत और भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है। इसी तरह कॉलेज में होली के गाने होलिया में उड़े रे गुलाल... देखकर लगता ही नहीं वहां पर किसी प्रकार का भेदभाव है।
दरअसल, लेखक और निर्देशक उस परिवेश, सामाजिक विषमता को विश्वसनीय बना पाने में नाकाम रहे हैं। ऑनर किलिंग के मुद्दे को फिल्म बहुत सपाट तरीके से दिखा जाती है, जबकि इसी मुद्दे पर बनी फिल्म सैराट को देखकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
अंत में वेदा कहती है कि पापा आपने ही कानून सिखाया है, यह चौंकाता है। जानकारी के बावजूद उन्होंने कभी गांव से निकलने का प्रयास क्यों नहीं किया? यह समझ से परे है। क्लाइमैक्स को बेहतर करने की संभावनाएं थी, अगर उस पर थोड़ा रिसर्च किया जाता।
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कैसा है फिल्म का एक्शन और अभिनय?
एक्शन डायरेक्टर अमीन खतीब ( Amin Khatib) की एक्शन कोरियोग्राफी काबिले तारीफ है। जान अब्राहम अपनी सिक्स पैक ऐब्स में एक्शन करते हुए जंचते हैं। कुछ दृश्य काफी वीभत्स हैं। कमजोर दिल वालों के लिए उन्हें देखना कठिन हो सकता है।
खलनायक जितेंद्र प्रताप सिंह की भूमिका में जॉन के सामने किसी कद्दावर अभिनेता की कमी खलती है। जितेंद्र के रुतबे और मिजाज से अभिषेक पूरी तरह मेल नहीं खाते हैं। बंटी और बबली 2 और मुंजा में चुलबुली लड़की की भूमिका में नजर आईं शरवरी यहां पर संजीदा भूमिका में हैं।
बॉक्सिंग सीखने को लेकर उनकी मेहनत नजर आती है। क्लाइमैक्स में उन्हें एक्शन में अपना दमखम दिखाने का पूरा मौका मिला है। वेदा की भूमिका में वह प्रभाव छोड़ने में कामयाब रहती हैं। छोटे प्रधान की भूमिका में क्षितिज चौहान का अभिनय प्रभावी है।
तमन्ना भाटिया मेहमान भूमिका में हैं। वेदा के पिता की भूमिका में राजेंद्र चावला का काम उल्लेखनीय है। फिल्म का मौनी राय पर फिल्माया गया आइटम सांग मम्मी जी थिरकाने वाला है। सिनेमेटोग्राफर मलय प्रकाश ने राजस्थानी माहौल और परिवेश को समुचित तरीके से कैमरे में कैप्चर किया है। फिल्म का मुद्दा संवेदनशील है, लेकिन क्रूर एक्शन, मारधाड़ के बीच संवदेनाएं कहीं छूट जाती हैं।