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Interview: '200 हल्ला हो' पर बोले बरुण सोबती- 'मैं सरप्राइज़ था, इतनी बड़ी घटना हुई है और हमें पता तक नहीं'

मैं इस बात से बहुत सरप्राइज़ था कि हमें पता ही नहीं है इस घटना के बारे में। फिर मुझे लगा कहीं मैं ज़्यादा बेवकूफ़ तो नहीं। इतनी बड़ी बात हुई है और हमें पता ही नहीं है। फिर डायरेक्टर से बात हुई। उन्होंने कहा मुझे भी नहीं पता था।

By Manoj VashisthEdited By: Updated: Fri, 20 Aug 2021 04:49 PM (IST)
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Barun Sobti plays lawyer in film. Photo- Instagram
मनोज वशिष्ठ, नई दिल्ली। Zee5 पर 20 अगस्त को 200 हल्ला हो फ़िल्म रिलीज़ हो रही है। यह कई साल पहले नागपुर में हुई एक सच्ची घटना पर बनी है, जिसमें 200 महिलाओं की भीड़ ने दुष्कर्म और अन्य जघन्य अपराधों के एक आरोपी को भरी अदालत में मौत के घाट उतार दिया था। बाद में इन महिलाओं पर मुक़दमा चला। फ़िल्म इस घटना और इसके बाद की परिस्थितियों पर रोशनी डालती है। सार्थक दासगुप्ता ने फ़िल्म का निर्दशन किया है।

200 हल्ला में बरुण सोबती एक वक़ील के किरदार में नज़र आएंगे। जागरण डॉट कॉम के साथ बातचीत में बरुण ने फ़िल्म, अपने किरदार और आज के दौर में इस फ़िल्म की प्रासंगिकता पर बात की। 

200 हल्ला हो में आप वक़ील के किरदार में हैं। ट्रेलर में दिखाया गया है कि इन महिलाओं का केस कोई वक़ील नहीं लड़ना चाहता। क्या हालात हैं?

फ़िल्म में थोड़ी मुश्किल परिस्थिति है। यह तो है ही कि वो केस लेना नहीं चाहता, मगर यह भी है कि वो लोग किसी को अफोर्ड नहीं कर सकते हैं। मेरा किरदार उमेश जोशी एक ऐसा लॉयर है, जो उन लोगों की मदद करता है, जो पैसा देना अफोर्ड नहीं कर सकते हैं। उसका मानना है कि कोर्ट में जो हियरिंग हो, वो इस बिना पर नहीं होनी चाहिए कि कौन महंगा लॉयर अफोर्ड कर सकता है, कौन नहीं। उसने अपनी ज़िंदगी ऐसे की मामलों को डेडिकेट की हुई है। इसीलिए वो 200 औरतों का केस भी लेता है।

एक तरह से लॉयर एक्टिविस्ट है... 

जी, आप ऐसा कह सकते हैं। उसी तरह से निभाया भी है।

 

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जब इस फ़िल्म की कहानी पहली बार आपके सामने आयी तो आपकी प्रतिक्रिया क्या थी? 

मैं इस बात से बहुत सरप्राइज़ था कि हमें पता ही नहीं है इस घटना के बारे में। फिर मुझे लगा, कहीं मैं ज़्यादा बेवकूफ़ तो नहीं। इतनी बड़ी बात हुई है और हमें पता ही नहीं है। फिर डायरेक्टर से बात हुई। उन्होंने कहा, मुझे भी नहीं पता था। फिर हमने जब पता करने की कोशिश की तो सामने आया कि इसे जान-बूझकर मीडिया कवरेज में नहीं लाया गया था। राजनीति और दूसरे दवाबों की वजह से इस मामले को काफ़ी दबाया गया था। इसके बाद तो हमें लगा कि निश्चित तौर पर यह स्टोरी हमें बतानी चाहिए। पहली बार जब नैरेशन सुना, तब ही सोच लिया था कि यह फ़िल्म तो करनी ही है, किसी का तो भला हो।

क्या आपको सचमुच लगता है कि ऐसी घटनाओं पर फ़िल्म बनाने से समाज या लोग प्रभावित होते हैं?

फ़िल्मों से बात तो छिड़ती है, वो तो पक्का है। दो इंसान आमने-सामने बैठा दीजिए तो एक इंसान कुछ सोचेगा, दूसरा कुछ सोचेगा और अपनी सोच एक-दूसरे को बताये बिना इंसान रह नहीं सकता। ऐसी कोई चीज़ (फ़िल्म) आती है तो बात तो ज़रूर होती है और सिर्फ़ बात छेड़ना ही हमारा मक़सद है। फ़िल्म यह नहीं कह रही है कि यह सही है, वो ग़लत है। फ़िल्म यह कह रही है कि भाई बात करने की ज़रूरत है। सब कुछ ठीक नहीं है। यह सोचकर घर पर बैठ मत जाओ कि सब कुछ ठीक चल रहा है, क्योंकि सब कुछ ठीक नहीं चल रहा। बात करने की ज़रूरत है। वही इरादा है।

 

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2012 में निर्भया जैसी घटना के बाद क़ानून व्यवस्था को लेकर जो शोर उठा, उससे लगा कि अब ऐसे मामले शायद आगे कम हो जाएं, मगर ऐसा लगता नहीं। आपके हिसाब से दिक्कत कहां है?

शिक्षा से ही बात शुरू करनी होगी, लेकिन हमारी एजुकेशन स्कूल से पहले घर में शुरू हो जाती है। जो बच्चा घर में अपने पिता को मां पर हाथ उठाते हुए देखेगा, उससे यह उम्मीद नहीं रखनी चाहिए कि यह बड़ा होकर एक्टिविस्ट बनेगा या एनजीओ ज्वाइन करेगा। इसकी बहुत सम्भावना है कि वो भी अपनी बीवी को थप्पड़ ही मारेगा। इसलिए शिक्षा सबसे ज़रूरी है।

दूसरा, सदियों से ऐसा चला आ रहा है कि आदमी दुष्कर्म करता है और बच जाता है। एक बार बच जाता है तो उसका डर मर जाता है। उन्हें देखने वाले दसियों लोगों का डर भी निकल जाता है कि चलो बचकर निकल जाएंगे। क़ानून का भी दोष है। इसमें लॉ को कुछ फिक्स करना पड़ेगा कि ऐसा क्राइम करने वाले को डर लगे। मुझे लगता है, एजुकेशन एंड लॉ, दोनों पर ध्यान देने की ज़रूरत है। 

फ़िल्म में अमोल पालेकर जैसे दिग्गज कलाकार के साथ काम करने का अनुभव कैसा रहा?

बहुल बड़े कलाकार हैं, मगर अमोल पालेकर के साथ मेरा कोई सीन नहीं है। आपने कहा तो अब मुझे महसूस हो रहा है। हालांकि, जब स्क्रिप्ट पढ़ी थी, उस वक़्त से ही पता था कि उनके साथ मेरा कोई सीन नहीं है। हां, उनके साथ छोटा-सी प्यारी-सी बात हुई थी। बहुत अच्छे इंसान हैं। उम्मीद करता हूं कि आगे उनके साथ काम करने का मौक़ा मिलेगा। 

आपने टीवी पर भी ख़ूब काम किया है और अब ओटीटी पर बेहतरीन काम कर रहे हैं। दोनों में से आपको कौन-सा माध्यम अधिक पसंद है?

ओटीटी में जब काम करते हैं तो 2-3 महीनों की कमिटमेंट होती है। साल में चार प्रोजेक्ट कर लेता हूं। चार अलग-अलग चीज़ें जब करने को मिलती हैं तो ज़ाहिर मज़ा अधिक आएगा। टीवी के साथ मजबूरी यह है कि एक चीज़ करो तो साल भर वही करना पड़ता है। अगर आपका चेहरा लोकप्रिय हो जाता है तो वो सीरियल के साथ जोड़ दिया जाता है और जब वो होता है तो बहुत लोगों के घर चलने लगते हैं। क्रू एंड कास्ट की सक्सेसफुल जर्नी शुरू हो जाती है। फिर आप वहां से भाग नहीं सकते। इसीलिए मज़ा तो फाइनाइट काम करने में ही है।

धारावाहिक लम्बे चलते हैं तो बोरियत भी होने लगती है...

बोरियत तो नहीं कहूंगा, पर टीवी में आपकी कमिटमेंट महीने के 26 दिन की है। यह 12 महीनों चलता है। इतना भी टाइम नहीं मिलता कि एक अतिरिक्त विज्ञापन भी कर सकें। 

 

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असुर के लिए आपको बहुत तारीफ़ें मिलीं। क्या इसे करियर के लिए टर्निंग प्वाइंट मानते हैं?

इससे पहले हॉटस्टार के लिए तन्हाइयां और द ग्रेट इंडियन डिस्फंक्शनल फैमिली ऑल्ट बालाजी के लिए किया था। असुर ज़्यादा लोकप्रिय हुआ तो लोगों को उसके बारे में अधिक पता है। टर्निंग प्वाइंट तो है। इसके बाद लोगों ने एप्रिशिएट करना शुरू कर दिया। ज़्यादा काम मिलना शुरू हो गया। इससे इनकार नहीं कर सकता, वो तो हुआ है। इसके दूसरे सीज़न का शूट नवम्बर तक पूरा हो जाएगा और अगले साल जून तक आ जाना चाहिए। 

200 हल्ला बोल से आपको क्या उम्मीद है कि लोग इसका मैसेज लेंगे?

मैसेज वाली साइड ले लेंगे तो सब मुंह फुलाकर बैठ जाएंगे। यह नहीं है कि हम किसी जेंडर पर या सोसाइटी की किसी दूसर बात पर कमेंट कर रहे हैं। बात यह है कि सिर्फ़ बात करने की ज़रूरत लग रही है। बात करनी चाहिए। जो लोग पॉवर में हैं, अगर वो लोग इस बारे में बात करने लगें तो बहुत बड़ी उपलब्धि होगी।