विशेष स्टोरी: दंश..दर्द और उर्दू की गीता का मरहम
इस्लामिया कालेज लाहौर (पाकिस्तान) में प्रोफेसर ख्वाजा दिल मुहम्मद भगवत गीता से इतने प्रभावित हुए कि उसको उर्दू भाषा में लिखने के लिए वाराणसी (काशी) में जाकर विद्वानों से मशविरा किया। गीता को उन्होंने 1932 में उर्दू भाषा की काव्य शैली में लिया।
By JagranEdited By: Updated: Wed, 23 Mar 2022 08:06 PM (IST)
हसीन शाह, गाजियाबाद
ये उन दिनों की बात है जब भारत-पाकिस्तान का बंटवारा नहीं हुआ था। इस्लामिया कालेज लाहौर (पाकिस्तान) में प्रोफेसर ख्वाजा दिल मुहम्मद भगवत गीता से इतने प्रभावित हुए कि उसको उर्दू भाषा में लिखने के लिए वाराणसी (काशी) में जाकर विद्वानों से मशविरा किया। गीता को उन्होंने 1932 में उर्दू भाषा की काव्य शैली में लिखा। ख्वाजा की लिखी उर्दू भाषी गीता को सभी कश्मीरी पंडित पढ़ते। घर-घर के मंदिर में इसकी प्रति होती। लेकिन 1990 में बंटवारे के दंश में सब बिखर उजड़ गया..। गाजियाबाद के शालीमार गार्डन में रहने वाले 71 वर्षीय कश्मीरी पंडित महाराज कृष्ण कौल आज भी सिहर उठते हैं..उनके आंखों की नमी उस दंश..उस रक्तरंजित बंटवारे की भयावहता को मौनता के साथ कहती चली जाती है। घर, माटी, बच्चों के खेल-खिलौने, यादें सब ऐसे उजड़ गया सिर्फ साथ क्या आई..ये आस्था की छांव उर्दू की भगवत गीता की प्रति। आज जब चारों तरफ द कश्मीर फाइल्स फिल्म के जरिये वो पुराने जख्म, वो दर्द, वो आतंकी चेहरा, घृणा दिखी है तो हमारे जेहन में भी वे जख्म हरे हो आए हैं। ..उस वक्त साथ लाए गीता की प्रति मंदिर लिए बैठे बताते हैं कि सुबह-शाम उर्दू गीता को काव्य शैली में पढ़ता हूं तो आज भी खुद अपने कश्मीर, पुलवामा के तराल स्थित घर में होने की अनुभूति करता हूं। ये गीता मेरे लिए बंटवारे के दंश पर मरहम सी लगती है। महाराजा कृष्ण कौल जिन्हें ये गीता अपने मामा से मिली थी। बताते हैं कि आजादी से पहले यह गीता हमारे कश्मीर वाले घर में मामा जी लेकर आए थे। -कृष्ण कौल ने उर्दू में बीए और बीएड किया। वह सरकारी स्कूल में शिक्षक थे। साल 1990 में कश्मीरी पंडितों पर अत्यधिक अत्याचार बढ़ गया था। उनका परिवार बहुत डर गया था। घर से बाहर जाने से डरने लगे थे। एक दिन शाम को धार्मिक स्थल से पंडितों को कश्मीर छोड़ने के लिए एलान हुआ। कहा गया कि जो पंडित यहा रहेगा उसका कत्ल कर दिया जाएगा। इसके बाद वह परिवार के साथ रात को ही घर से निकल गए। गीता के अलावा उन्होंने घर से कुछ सामान नहीं लिया। यहा तक वह दुकान में रखी नकदी और घर में रखी ज्वेलरी और कागजात भी छोड़ आए थे। रातभर पैदल चलते रहे। लंबी दूरी तय कर परिवार श्रीनगर पहुंचा। उसके बाद जम्मू पहुंचे। कुछ दिन बाद दिल्ली में शरणार्थियों के लिए लगे कैंपों में आ गए। धीरे-धीरे जीवन को पटरी पर लाने के प्रयास किए और वर्ष 2001 में दिल्ली से गाजियाबाद के शालीमार गार्डन आ गए। अब पत्नी तो साथ नहीं रहीं। एक बेटा वाशिगटन स्थित एक निजी कंपनी में सीनियर पद पर है। दूसरा बेटा शालीमार गार्डन में निजी कंपनी चलाता है।
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