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कभी आसी और असीगढ़ नाम से प्रसिद्ध थी हांसी, हिंदुस्‍तान की दहलीज के नाम से थी प्रचलित

हांसी के बारे में शायद ही जानते हों कि राजा हर्ष के समय हांसी सतलज प्रांत की राजधानी थी। जनवरी 1038 ई. तक इसे हिंदुस्तान की दहलीज भी कहा जाने लगा था। कहावत प्रचारित थी कि जो भी हमलावर हांसी की दहलीज को लांघ लेगा वह हिंदुस्तान पर शासन करेगा।

By Manoj KumarEdited By: Updated: Tue, 09 Mar 2021 05:16 PM (IST)
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हांसी किले का बड़सी दरवाजा शहर की सुंदरता में चार चांद लगा रहा है
हिसार/हांसी [पंकज नागपाल]। किसी जमाने में हांसी को आसी और असीगढ़ के नाम से जाना जाता था। क्योंकि यहां पर अव्वल दर्जे की तलवारें बनाई जाती थी। विश्वभर में तलवारों के निर्माण के लिए प्रसिद्ध इस स्थान का आज भी पुरातात्विक महत्व है। क्योंकि वर्तमान में भी यहां पर पृथ्वीराज चौहान का किला है। जिसको पुरातत्व विभाग ने अधिग्रहित किया हुआ है। इस किले का एक गेट आज भी अच्छी हालत में है। जिसे बड़सी गेट के नाम से जाना जाता है। बाजार के बीचों बीच स्थित इस बड़सी दरवाजे के नीचे से लोग गुजरते हैं।

यह भव्य दरवाजा आज भी शहर की सुंदरता में चार चांद लगा रहा है। पृथ्वीराज चौहान के किले और बड़सी दरवाजे को देखने के लिए पर्यटक दूर दूर से यहां आते हैं। अंग्रेजों ने यहां पर सेना का कैंट बनाया था। यहां पर ही हॉर्स रेजिमेंट की स्थापना की गई थी। आज भी शहर में बहुत से जैन व हिंदू धर्म के मंदिर हैं। यहां मुस्लिम समुदाय की चारकुतुब दरगाह विश्व प्रसिद्ध दरगाह है। विदेशों से भी यहां मुस्लिम श्रद्धालु नमाज अता करने आते हैं।

समय-समय पर आने वाले यात्रियों ने इसके वैभव और समृद्धि का बखूबी वर्णन किया है। राजा हर्ष के समय हांसी सतलज प्रांत की राजधानी थी। जनवरी, 1038 ई. तक इसे हिंदुस्तान की दहलीज भी कहा जाने लगा था। कहावत प्रचारित हो गयी थी कि जो भी हमलावर हांसी की दहलीज को लांघ लेगा वह हिंदुस्तान पर शासन करेगा। कालांतर में यही हुआ। राजपूत काल तक हांसी इस उपमहाद्वीप का एक महत्वपूर्ण एवं शक्तिशाली नगर बन गया। तंवर काल में इसके आस-पास मिलने वाले लौह अयस्क की गुणवता को देखते हुए हांसी दुर्ग में उच्चकोटि की तलवारों का निर्माण किया गया।

तलवारों की गुणवता में इसकी प्रसिद्धि विदेशों तक में होने लगी। इसलिये इसका नाम अशि, आशिका प्रचलित हुआ जो खाड़ी के देशों में हांसी के नाम से पुकारा गया। तंवरों के बाद जब देहली की सत्ता अजमेर चौहानों के हाथ में आयी। इनके काल में हांसी को विशेष धार्मिक दर्जा प्राप्त हुआ। हांसी के अजेय दुर्ग पर महमूद गजनी के बेटे मसूद ने एक बड़ी सेना के साथ आक्रमण करके 31 दिसम्बर,1038 के दिन फतेह हासिल की। लेकिन चंद दिनों के बाद ही राजपूतों ने फिर से हांसी के दुर्ग पर अपना कब्जा कर लिया।

चौहान काल में जैन धर्म यहां का राज धर्म बना। वैष्णव, शैव एवं बौद्ध मत के आस्था के स्थल यहां थे। सम्राट पृथ्वीराज भट्ट के समय में यहां का किलेदार कल्हण ने इस क्षेत्र को और शक्तिशाली बनाया। उसने इसकी पश्चिम सीमा पर उत्पात मचाने वाले लाहौर सुलतान अमीर खुसरो ताजुदौला को हरा कर शांति कायम की और राजपूताना की सीमा का विस्तार कर पंचपुर( पिंजौर) तक किया। इस अभियान में खुद सम्राट पृथ्वीराज भट्ट ने भाग लिया था। इस विजय की यादगार में यहां एक विशाल दरवाजे बड़ा सिंह द्वार एवं अन्नागार का निर्माण कराया गया। दरवाजे पर संस्कृत शिलालेख लगाया गया था। वर्तमान बड़सी दरवाजे को वही दरवाजा बताया जाता है।

फिरोजशाह तुगलक ने इस क्षेत्र को सिंचित करने के लिए विलुप्त नदी दृष्द्वती के बहाव के तल की खुदाई करवा कर चितंग नहर का निर्माण करवाया था। यह नहर हांसी से हिसार होते हुए भादरा तक चली गई थी। सन् 1893 ई. में गांव मसुदपुर में अंगूठी के आकार के तांबे के सिक्के मिले थे जो मोहम्मदशाह व गयासुद्दीन के काल के थे। इन सिक्कों को उस समय के उपायुक्त हिसार ने कलकत्ता भेज दिया था। 1857 के संग्राम में यहां के सैनिकों और आम लोगों को भाग लेने वाले सेनानियों की गाथा और अंग्रेजी हकूमत द्वारा स्वतंत्रता सेनानियों के दमन की कहानी हांसी की लाल सड़क और डडल पार्क का स्थान आज भी बयां करते हैं।

संग्राम में भाग लेने वाले यहां के नागरिकों का इतिहास भी कम नहीं है। शहीद यति पूर्णानंद की समाधि उनके बलिदान की याद दिलाती है। वर्ष 1947 में मिली आजादी के बाद हांसी ने उप-मंडल के दर्जे के साथ एक नये युग में प्रवेश किया। हांसी के बाद बसे हिसार को जिले का दर्जा प्राप्त है लेकिन हांसी को अब तक जिला का दर्जा नहीं मिल पाया है। हालांकि हांसी अब पुलिस जिला है और जिला बनाने के लिए यहां के लोग कई साल से मांग कर रहे हैं।

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