तालाबों के आसपास गायब हो रहे देशी कीकर के पेड़, घौंसलों के लिए परिंदों को नहीं मिल रही जगह
तालाबों के किनारे देशी कीकर के पेड़ों की पहले अधिकता रहती थी लेकिन अब ऐसा नहीं है। देशी कीकर तो ऐसा पेड़ है जिसमें कई तरह के औषधीय गुण भी होते हैं। पहले तो ग्रामीण अंचल में इस पेड़ की दातुन भी लोग खूब इस्तेमाल करते थे
जागरण संवाददाता, बहादुरगढ़ : तालाबों के आसपास का नजारा अब पहले जैसा नहीं। वहां पर पक्षियों का कलरव कम हो चुका है। इसकी वजह है देशी कीकर के पेड़ाें का कम होना। यही वह पेड़ होता है जिस पर छोटे परिंदे सबसे ज्यादा अपने घरोंदे बनाते हैं। प्राकृतिक रूप से इस पेड़ की लकड़ी मजबूत होने के साथ-साथ कंटीली भी होती है। ऐेसे में शिकारी पक्षी के लिए इस पेड़ पर बनने वाले घौंसलों पर ऊंचाई से एक दम अटैक करना मुश्किल होता है।
बड़े पक्षी के लिए इस पेड़ की टहनियों पर बैठना भी मुश्किल होता है। यही वजह है कि इस पेड़ पर गौरेया और दूसरे छोटे परिंदे ज्यादा घौंसले बनाते हैं। जहां पर तालाबों के किनारे इक्का-दुक्का देशी कीकर के पेड़ बचे हुए हैं, वहां पर इस तरह के घौंसले लटके मिलते हैं लेकिन अहम बात यह है कि ऐसी जगह कम ही बची हैं। कारण है कि इस तरह के परंपरागत पेड़ों की संख्या कम हो रही है। देशी कीकर इन्हीं में से है। वैसे तो जब इस पेड़ पर फल आता है तो उसके बीज छितराए जाते हैं ताकि ऐसे पेड़ों की संख्या बढ़ सके, लेकिन ऐसी कोशिश भी अबकम होती है।
तालाबों के किनारे ऐसे पेड़ों की पहले अधिकता रहती थी, लेकिन अब ऐसा नहीं है। देशी कीकर तो ऐसा पेड़ है जिसमें कई तरह के औषधीय गुण भी होते हैं। पहले तो ग्रामीण अंचल में इस पेड़ की दातुन भी लोग खूब इस्तेमाल करते थे, लेकिन समय के साथ बदलाव आने से इसका नुकसान परिंदाें को भी उठाना पड़ रहा है।
उनके लिए ऐसे मुफीद पेड़ कम रह गए हैं, जिन पर वे सबसे ज्यादा घौंसले बनाते हैं। आम तौर पर फलदार पेड़ों पर छोटे पक्षी अपने घौंसले नहीं बनाते। पर्यावरण प्रेमी सुनील आर्य ने बताया कि जो पेड़ हमारे लिए और परिंदों के लिए फायदेमंद हैं, उनकी प्रजातियों को न केवल सहेजने की बल्कि उनकी संख्या बढ़ाने की भी जरूरत है।