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हरियाणा में किसानों की जमीन पर बरसों से लहलहाती आ रही है सियासी 'फसल', होड़ में सभी दलों

हरियाणा में किसान और किसानी पर बरसों से राजनीति हो रही है। किसानों की जमीन पर सियासी फसल कई बरसों से लहलहाती रही है। इसको लेकर सभी राजनीतिक दलों में खासी हाेड़ मची रही है। किसानों के नाम पर सत्‍ता पाने में सभी दल जुटे रहे हैं।

By Sunil Kumar JhaEdited By: Updated: Tue, 06 Oct 2020 07:00 AM (IST)
हरियाणा में किसानों के नाम पर खूूब सियासत होती रही है।
चंडीगढ़, जेएनएन। केंद्र सरकार द्वारा जारी तीन कृषि विधेयकों को लेकर सियासत चरम पर है। दशकों से किसानों की जमीन पर सियासी 'फसल' काटते आ रहे विभिन्न राजनीतिक दल कथित किसान संगठनों को मोहरा बनाते हुए नए कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों को अपने हिसाब से समझाने में लगे हुए हैं। ठीक उसी तरह जैसे मनोहर सरकार की पहली पारी में 'प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना' पर सियासत हुई।

प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना पर भी खूब हुई राजनीति, किसानों को समझ आई बात तो लिया हाथोंहाथ

जब किसानों को इस योजना के फायदे समझ आए तो सियासी गेम समझ में आ गया। आज बड़ी संख्या में किसान प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना का लाभ उठा रहे हैं। यह अलग बात है कि किसान बीमा कंपनियों की मनमानी का भी शिकार हैं।

सत्ता में पिछड़े दलों के लिए ब्रह्मास्त्र साबित होते रहे किसान, फिर उसके हाल पर छोडऩे की रवायत पुरानी

दरअसल हरियाणा में किसान आंदोलन की आड़ में सरकारें बनती-बिगड़ती रही हैं। इस गणित पर चलते हुए सियासी दल किसान को परंपरागत मकडज़ाल से बाहर नहीं निकलने देना चाहते। जब भी कोई राजनीतिक दल सत्ता की दौड़ में अपने आप को पिछड़ा हुआ महसूस करता है तो वह सदा इसी ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करता है। इसी कड़ी में अब नए केंद्रीय कृषि कानूनों के विरोध में झंडा उठाया गया है। इसके पक्ष और विपक्ष में राजनीतिक दल अपनी-अपनी दलीलें पेश कर रहे हैं, लेकिन फसल काटकर मंडियों में बेचने में मशगूल वास्तविक किसान के पास इतना समय नहीं कि वह राजनीतिक बातों के चक्कर में फंसकर रह जाए।

कर्ज माफी, बिजली के बिल माफी और गन्ने की राजनीति ने पहुंचाया नुकसान

विभिन्न सरकारों में किसानों को अल्पकालिक फायदे के नाम पर कुछ ऐसे फैसले हुए जिन्होंने उसे कहीं का नहीं छोड़ा। कर्जमाफी, बिजली के बिल माफी व गन्ना मिलों की राजनीति से किसान की पोषक संस्थाओं को क्षत विक्षत कर दिया। जिस सहकारिता आंदोलन ने किसान को साहूकारों की सूदखोरी के पंजे से निकाल सहकारी बैंकों तक पहुंचाया था, उसे सत्ता लोलुपता के इस हथियार ने तहस-नहस कर दिया। किसानों ने कर्जमाफी की उम्मीद में बैंकों को समय पर ऋण वापस लौटाना बंद कर दिया तथा किसान हितैषी यह सहकारी संस्था आखिरी सांसें लेने लगी। इसी तरह सहकारी चीनी मिलें लोक लुभावनी राजनीति के चलते भारी घाटे में चली गईं।

...फिर उसके हाल पर छोड़ा जाता रहा किसान

सत्ता की दौड़ में किसान राजनीतिक एजेंडा को आगे बढ़ाने के लिए उपयोग होता रहा और फिर मौका मिलते ही उसे कोर्ट-कचहरी के भंवर में फंसा कर उसके हाल पर छोड़ दिया गया। वर्तमान में किसान यूनियन के झंडे के नीचे जो किसानों का प्रदर्शन हुआ है, वह भी कमोबेश हरियाणा की परंपरागत राजनीति का एक चिरस्थापित उदाहरण कहा जा सकता है।

इसका मूल कारण यही रहा कि किसान को सत्ता की सीढ़ी के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा, परंतु किसान के विकास के लिए मजबूत ढांचागत तंत्र का विकास नहीं हो पाया। इसी परिपेक्ष में कृषि कानून पर विपक्ष को किसान यूनियन के नाम पर जो राजनीतिक समर्थन मिला, उसकी पृष्ठभूमि भी किसी से छिपी नहीं है।

खेती-किसानी में विकसित होगा ढांचागत तंत्र

भाजपा विधायक और सेवानिवृत्त आइएएस अधिकारी डा. अभय यादव कहते हैं कि पहली बार केंद्र सरकार ने ऐसे ढांचागत तंत्र को विकसित करने की कोशिश की जिससे किसान को चिरस्थायी खुशहाली और मजबूती प्रदान कर सके। नया कानून ढांचागत विकास में आमूलचूल परिवर्तन करने की यह शुरुआत मात्र है। यह किसान को एक नई सोच के साथ एक नई व्यवस्था में प्रवेश कराने का एक प्रयास है।

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