विभाजन का दर्द: पाकिस्तान से आए भारत, बार-बार देखा संघर्ष का दौर; अब प्रदेशभर में फैलाया टॉफी का कारोबार
देश के विभाजन के समय पाकिस्तान में सबकुछ छोड़कर आए लोगों ने शरणार्थी बनकर गुजारा किया। पाकिस्तान में अपना चलता फिरता कारोबार छोड़कर आए इन शरणार्थियों ने फिर भी हार नहीं मानी और हिन्दुस्तान में दोबारा फर्श से अर्श तक का सफर तय किया। सिरसा के जाने-माने व्यवसायी 68 साल के अश्विनी बठला ने अपने परिवार के संघर्ष की दास्तान सुनाया है।
सनमीत सिंह थिंद, सिरसा। 14 अगस्त 1947। यह महज एक तारीख नहीं है। इस तारीख से लाखों परिवारों का दर्द भी जुड़ा है। हजारों-लाखों परिवारों के सदस्यों की जिंदगी छीन ली गई थी। विभाजन की विभीषिका में उन्होंने अपना सबकुछ गवां दिया। अपनी उम्मीदें, अपने सपनें, घर-परिवार सब कुछ। जीवित थे लेकिन जिंदगी पाकिस्तान में छूट गई थी।
वो गलियां जहां पर बचपन बिताया, दोस्त-यार, रिश्तेदार सब कुछ छोड़ना पड़ गया। पाकिस्तान से भारत आए तो उनके पास अनुभव के अलावा कुछ भी नहीं बचा था। संघर्ष और अनुभव के दम पर आज बुलंदी के आसमान पर हैं।
इनमें से कई लोगों ने हरियाणा को आर्थिक उड़ान भी दी। सिरसा के जाने वाले व्यवसायी 68 साल के अश्विनी बठला ने पाकिस्तान से आकर अपने कुनबे के संघर्ष की दास्तान को सुनाया।
पाकिस्तान से आकर जमाया कारोबार
उन्होंने कहा कि मेरे दादा लाला हंसराज बठला पाकिस्तान के लायलपुर जिले की मंडी मांमू कजन में रहते थे। हमारे दादा देसी घी का काम करते थे। घी की सप्लाई सेना को होती थी। उस जमाने में दादा जी इनकम टैक्स अदा करते थे, इसलिए सरकारी कार्यालय में जाने पर बैठने के लिए उन्हें कुर्सी मिलती थी।
क्योंकि इनकम टैक्स करने वालों को सरकारी दफ्तरों में अंग्रेज अफसर कुर्सी देते थे। कारोबार जबरदस्त था। विभाजन के समय अचानक ही चलता कारोबार छोड़कर आना पड़ा।
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