बस में थे तो जनता की नब्ज जानते थे, जब से बे'बस' हुए दूर हो गए नेताजी
सांसदों, विधायकों के लिए रोडवेज की बसों में सीटें आरक्षित होती हैं। यहां तक कि उनकी यात्रा फ्री होती है। इसके बावजूद वह इनमें यात्रा करने के बजाय लग्जरी कारों को तवज्जो देते हैं।
सिरसा [सुधीर आर्य]। हर रोडवेज की बस में आगे के हिस्से वाली सीट पर लिखा होता है-सांसद, विधायक सीट। यह बात अलग है कि अब इन पर बैठने वाले न सांसद होते हैं, न विधायक। हालांकि विधायक और सांसद बनने के लिए टिकट लेने में भरपूर जिद्दोजहद करते हैं।
कभी इन सीटों पर हरियाणा की राजनीति के कद्दावर चेहरे नजर आते थे। विशेषकर चंडीगढ़ और दिल्ली जाने वाली बस में, लेकिन सन 1990 के दौर के बाद से रोडवेज की इन सीटों से माननीयों ने किनारा करना शुरू दिया। धीरे-धीरे उनकी संख्या घटती गई। अब तो कोई नहीं दिखता। दरअसल, जो विधायक या पूर्व विधायक रोडवेज बसों से यात्रा करते थे वे इस दौरान लोगों से चर्चा भी करते थे। उनके दुख दर्द सुनते थे। इस तरह वह आम जन से जुड़े रहते थे।
चौपाल लगने जैसा होता था बस का सफर
जनप्रतिनिधियों के अनुसार बस का सफर चौपाल लगाने जैसा था। तब संसाधन अधिक नहीं थे। मितव्ययता का दौर था। गाड़ी का प्रबंध बड़ी मुश्किल से होता था, सो बस ही सहारा होती थी। इसलिए बस में ही चौपाल लग जाती थी। विधायक किसी भी दल का हो सभी सवारियां उसे मान-सम्मान देती थी और फिर एक दौर चलता था नीतियों पर चर्चा का।
बीच-बीच में हास-परिहास भी खूब होता था। सवारियों में कुछ लोग मजाक-मजाक में हालात को बयां कर जाते। कानून व्यवस्था, शिक्षा, तबादले, बिजली, पानी जैसे मुद्दों पर बस के इसी सफर में चर्चाओं से जन प्रतिनिधि को पता चल जाता था कि एक आम आदमी शासन के प्रति क्या सोच रख रहा है।
कहां थे तब गाड़ी घोड़े, बस का ही था सफर
उस दौर में संसाधन कम थे। विधायकों का टीए, डीए तीन हजार के आसपास रहता था। ऐसे में पहले गाड़ी का प्रबंध करना और फिर उसके खर्चे को पूरा करने से जनप्रतिनिधि बस के सफर को अच्छा मानते थे। चर्चाओं का दौर तो होता ही साथ ही जनप्रतिनिधि अपने क्षेत्र के हालात से वाकिफ होते और समय पर गंतव्य तक पहुंच जाते। दूसरे यात्रा फ्री थी, इसलिए भी जनप्रतिनिधियों की बस की लारी सबसे पसंददीदा सवारी बनी रही।
पता ही नहीं चलता कैसे कट गया सफर, वह जमाना आज भी याद है
ऐलनाबाद के पूर्व विधायक मनीराम केहरवाला का कहना है, देखिये, समय के हिसाब से स्वाभाविक रूप से कई बातों में अंतर आता है। तब आर्थिक रूप से जनप्रतिनिधि इतने मजबूत नहीं होते थे कि वे अपनी गाड़ियों में घूम सकें। यही कारण है कि निशुल्क यात्रा की सुविधा का लाभ उठाते थे। बड़ी बात यह थी कि सफर में सवारियों के बीच बातचीत का ऐसा दौर चलता कि कब सफर कट गया पता ही नहीं चलता। मैं तो 2000 तक खुद बस का सफर करता रहा हूं। कई रोचक किस्से भी होते रहे हैं और जब मैं 1991 से 1996 में विधायक बना तो चंडीगढ़ या दिल्ली जहां भी जाना होता था तो बस से जाता था। लोग मान-सम्मान देते थे और अपनी बात रखते थे।
बस के सफर से हकीकत का पता चल जाता था
पूर्व मंत्री भागीराम का कहना है, मेरा हरियाणा रोडवेज की बस से लंबा नाता रहा है। 1977 में विधायक बना तभी से चंडीगढ़ जाना हो या दिल्ली बस का सफर ही रहा है। चौधरी देवीलाल ने हमेशा आम आदमी को विधायक बनाया। जब आम विधायक बनता है तो उसकी प्राथमिकता गाड़ी खरीदने की नहीं होगी बल्कि वो सामान्य जीवन जीने का प्रयास करता है, और गांव व गरीब की बात हमेशा रखता है।
भागी राम ने कहा, मैं भी चौधरी देवीलाल के आशीर्वाद से विधायक बना। बस में चंडीगढ़ जाते रास्ते में सवारियां अपने-अपने क्षेत्र की बातें बतातीं। कई नई-नई जानकारियां मिलती, लेकिन अब दौर बदल गया है। अब तो गाडिय़ां स्टेटस सिंबल हो गई हैं। वीआइपी गाड़ियों का दौर आ गया है। जो जानकारी तब बस में मिलती थी आज घर-घर घूमोगे तब भी नहीं मिलेगी। मेरा बस का सफर पार्लियामेंटरी सचिव बनने से पूर्व तक जारी रहा। फिर चार फीसद कर्ज पर मारुति 800 ले ली और उसमें सफर करने लगा।
तब तो सभी बस में ही सफर करते थे
पूर्व सांसद डॉ. सुशील इंदौरा का कहना है, 1998 में एमपी बना, फिर 1999 में दोबारा बना। 2005 से 2009 तक ऐलनाबाद से विधायक रहा। ये पूरा दौर ऐसा रहा है जिसमें मैंने बस में सफर किया है। अब भी कभी कभार बस का सफर करता हूं। अपनी गाड़ी हैं, लेकिन फिर भी बस का सफर मुझे आज भी अच्छा लगता है। खुलकर बातें करते हैं, चर्चा करते हैं। राज्य के हालात पर होने वाली चर्चा बसों में अच्छी और निष्पक्ष जैसी रहती है। अब तो बड़ी-बड़ी गाड़ियों में जनप्रतिनिधि चलते हैं। बस का सफर कैसा होता है उन्हें नहीं पता। उस दौर को याद करूं तो बस का सफर उन्हें अच्छा लगा। हास-परिहास भी हो जाता था और सफर भी अच्छा कटता था।
मंत्री की गाड़ी छोड़कर बस में सवार हो जाते थे प्रो गणेशी लाल
प्रो. गणेशी लाल।
चौधरी वंशीलाल सरकार में मंत्री रहे प्रो. गणेशी लाल का कहना है कि जब वह मंत्री थे तो अनेक बार काफिला रुकवाकर भी बस में बैठ जाते थे। उनका मकसद लोगों के सरकार के प्रति विचार जानने का होता था। बस में लोग चर्चाएं करते रहते थे। उनके बीच पहुंच कर न केवल अपनी बात कही जा सकती है बल्कि सरकार के खिलाफ बनी किसी शंका का निवारण भी किया जा सकता है। उनके सामने तो अनेक ऐसे मामले रहे हैं कि यात्रियों ने बस में समस्या बताई और उसका निवारण भी करवाया।
जब हर ली उसकी पीड़ी
प्रो. गणेशी लाल ने बताया कि एक बार बस में सफर के दौरान एक बुजुर्ग दंपती समस्या को लेकर अधिकारी से मिलने जा रहा था और पहले भी मिल चुका था, लेकिन समाधान नहीं हुआ। जब उन्हें पता चला कि वह बस में सवार हैं तो वह उनके पास आए और रोके लगे। समस्या रास्ते पर कब्जे को लेकर थी। उस समय मंत्री ने उनकी समस्या के लिए अधिकारी को खरीखरी सुनाई और बाद में उसका उस समस्या स्टेटस भी पता करवाते हुए बुजुर्ग से बात भी की।
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