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Cherring Dorje: चेतना की नदी छेरिंग दोर्जे, कुल्लू या लाहुल ही नहीं, संपूर्ण हिमालय से सम्मान पाने वाले शख्‍स थे दोर्जे

Cherring Dorje रोह्तांग के आर पार के इलाक़े में केवल और केवल भोटी अंकल के पास था। और इसी के चलते ही उन्होंने अपने अध्ययन के क्षेत्र को लामा वादी मोनेस्टिक बौद्ध मत और सांस्थानिक ब्राहमण वादी वैष्णव मत से आगे जा कर जीववादी शमन धर्म तक पहुंचाया।

By Rajesh SharmaEdited By: Updated: Mon, 30 Nov 2020 08:48 AM (IST)
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बाहर के लोगों के लिए चलता फिरता एनसाइक्लोपीडिया थे छेरिंग दोर्जे।
धर्मशाला, जेएनएन। भोटी अंकल नहीं रहे। छेरिंग दोर्जे जी को मैं इसी नाम से पुकारता था। मेरे समुदाय के लोगों के लिए वे भोटी मास्टर, पीआरओ साब, गुस्क्यर तेते , गुस्क्यर मेमे। बाहर के लोगों के लिए चलता फिरता एनसाइक्लोपीडिया थे, गुरु जी थे, लामा जी थे, दोर्जी सर थे ... कितने तो नाम थे उनके! बेहद बहुमुखी और बहुआयामी व्यक्तित्व। व्यक्तित्व के जितने आयाम थे, उतने ही नाम इस दुनिया ने उन्हें दिए ! उस आदमी की छोटी चमकदार आंखों और विशाल देहयष्टि में दंतकथाओं वाले हिमालयी येति की झलक मिलती ही थी, साथ ही मेरी नजरों में वह अपने वजूद और अभिव्यक्ति के संपूर्ण अभिप्रायों, आशयों और सरोकारों में अत्याधुनिक विश्वमानव भी थे। हमारे पारिवारिक मित्र थे। पिता जी से उनकी मित्रता राजनीतिक कारणों से थी, और नाना जी से दोस्ती अध्यात्म और कला अभिरुचियों के कारण। स्मृतियों के कुछ छवि चित्र हैं, जो बचपन से ले कर अब तक मेरे मानस पटल पर अंकित हैं-पिछली सदी के सातवें दशक की बात होगी।

केलंग में हमारे घर में भोटी अंकल आए हैं। एक कमरे का वो घर था किराये का। पिता जी स्कूल टीचर थे। साथ में आए ठोलंग से चित्रकार सुख दास जी और कारदंग गोंपा से मेरे नाना जी। नाना जी थंका पेंटर और साधक थे, कारदंग गोंपा में रहते हैैं। यह उन महामानवों की आम गोष्ठियों में से एक है। चित्रकला पर गंभीर बातें चल रहीं हैं। वनस्पतियों और खनिजों से कैसे रंग प्राप्त होता है, उनको कैसे सुखा कर, कूट-छान-तपा कर, काढ़ कर चित्र बनाने में प्रयोग करते हैं, तिब्बतियों ने कैसे किया और यूरोपियन कैसे कर रहे हैं ...रंगों की क्या कीमियागिरी है, कुदरती और सिंथेटिक रंगों की क्या खूबियां हैं! लट्ठे और सरेश से बने केनवस पर यह कैसे जादू पैदा करते हैं और कागज़ पर कैसे?

देसी स्याही कैसे बनती है , कैलिग्राफी कैसे होती है, कचरा वेस्ट पेपर की लुग्दी से पुनर्चक्रित कागज कैसे बनता है ...हम बच्चे एक कोने में बैठे कुछ चीजें समझ रहे हैं कुछ नहीं ....मेरे मन में नाना जी जैसा थंका आर्टिस्ट बनने का सपना है और ज़ुबान निशब्द! झेंपता लेकिन पूरी एकाग्रता से सुनता हुआ।

बातचीत के बीच में भोटी अंकल ने जेब से फिरोजी हरा एक्रेलिक पेस्तल निकाल कर कागज पर नक्शा खींचा है। यह कोई तिब्बती घाटी थी। यलो रिवर की कोई सहायक नदी। कोई प्रख्यात साधना केंद्र। वहां पहुंचने का एक कम प्रचलित रास्ता बता रहे हैं नाना जी को। नाना जी भी वहां गए हैं लेकिन शायद किसी अन्य रास्ते से। अंत में पिता जी को वह पेस्तल दिखाते हुए बोल रहे हैं -अंग्रेज लोग आज कल ऐसे ऐसे रंग भी इस्तेमाल करते हैं। हम बच्चे भौचक्क देख रहे हैं! उस एक्रेलिक पेस्तल का हरा मेरे जेहन में छप गया है। मां की छोटी सी कंठी में वह फिरोजी हरा खोज रहा हूं।

वहां और भी रंग हैं मूंगा, मोती, मणि, कांच, चूनी, सोना... ये रंग अद्भुत हैं । लेकिन भट्ट लाला की दुकान से जो कलर बॉक्स भाई ने खरीदा है उसमें इनमें से एक भी रंग नहीं है! नाना जी के थंका में मिलते हैं उनमें से कुछ रंग। मैं जब पेंटिंग बनाऊंगा उस में वही सब असली रंग डालूंगा। दीदी कहती हैं ये रंग होते नहीं हैं, बनाने पड़ते हैं। मेरी बाल बुद्धि कहती है -भोटी अंकल को वो तकनीक आती होगी पक्का। भोटी अंकल कलाकार नहीं थे, कलाविद थे। इतिहासकार नहीं थे, पर इतिहासविद थे। भाषा शास्त्री नहीं थे, पर भाषाविद थे। बहुत अधिक शिक्षित नहीं थे, पर हर विषय के बड़े गहन और व्यापक अध्येता थे।

पिछली सदी के नौवें दशक में रोहतांग सुरंग के लिए उनके संघर्ष को मैंने करीब से देखा। उन दिनों मुझे नौकरी मिल गई थी और मैं केलंग में था। वे लोकगाथाओं के उस बूढ़े जिद्दी सह नायक की तरह ग्रां- नग्गर, घाटी- चोटियों की खाक छानते फिर रहे थे जिसे देस पर आसन्न संकट से निजात पाने के लिए कुछ उपयुक्त पात्रों की तलाश थी। अंतत: उन की मेहनत रंग लाई, उन्हें पात्र मिले टाशी दावा उर्फ अर्जुन गोपाल और अभय चंद राणा के रूप में। रोहतांग टनल की पूरी प्रक्रिया के निष्पादन में, उनकी अनोखी कूटनीतिक सूझ और बेनजीर लॉबिंग कौशल का प्रमाण मिलता है।

यादें बेशुमार हैं पर फिर वह संस्मरणों की एक किताब ही बनेगी। वह फिर कभी। उन का जाना मेरे लिए की एक तरह से दोहरी क्षति जैसी है। निजी तौर पर मैंने एक सच्चा मेंटर, मार्गदर्शक और दोस्त खोया। हिंदी साहित्य में इन की कोई रुचि नहीं थी, लेकिन हमारी सांस्कृतिक अभिरुचियां मेल खाती थीं। भाषा, इतिहास, समुदायों और भू-भागों को बहुत गहरे में और बहुत बारीकियों में जा कर समझने की सिफत मुझे उन की सोहबत में मिली थी। वह एक सच्चे संस्कृति कर्मी थे। संस्कृति और विरासत जैसी बातें उन के लिए महज़ एक गर्व करने की चीज नहीं थी। न ही कोई शुगल या शौक जैसी चीज थी। यह उन के लिए विद्वता दर्शाने या यश प्राप्त करने का साधन भी नहीं था।

संस्कृति को उन्होंने हमेशा एक जटिल राजनीतिक संकट की तरह देखा । आज के सामाजिक परिदृष्य में जो खतरनाक बाइनरीज़ उभर रहीं हैं- चाहे वो धार्मिक बाईनरी हो, नस्लीय बाईनरी हो, जातीय, भाषिक और क्षेत्रीय बाईनरीज हो - वैश्विक स्तर से ले कर आंचलिक स्तर तक ... सब पर उन की दृष्टि थी। यह पैनी दृष्टि , इस संकट का आभास और उस का निदान भी ..... रोह्तांग के आर पार के इलाक़े में केवल और केवल भोटी अंकल के पास था। और इसी के चलते ही उन्होंने अपने अध्ययन के क्षेत्र को लामा वादी मोनेस्टिक बौद्ध मत और सांस्थानिक ब्राहमण वादी वैष्णव मत से आगे जा कर जीववादी शमन धर्म तक पहुंचाया। बोन मत और जङजुङ भाषा की बात की।

आर्य और भोट नस्लों से आगे जा कर किन्नर किरात जातियों की बात की। और इन तमाम अवशेषों को लाहुल और कुल्लू समेत समस्त हिमालयी क्षेत्र में सप्रमाण ढूंढा। उन्हें पूरा भरोसा था कि शमन परंपरा में ही विभाजन की ये घातक मानव विरोधी खाइयां पाटने की क्षमता है, इस आदिम जीववादी परंपरा में इन सभी बाईनरीज को ध्वस्त करने की क्षमता है। और यही कारण है कि कुल्लू और लाहुल का बल्कि संपूर्ण हिमालय का सूझवान जन इन्हें बेहद सम्मान देता है। यह बड़ा योगदान है भोटी अंकल की दूरदर्शिता का।

हम सबको मिल उन की सदाशयता और नेकनीयती की विरासत को आगे ले जाने की कोशिश करनी चाहिए। (लेखक अजेय लाहुल से संबद्ध और कवि हैैं।)

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