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Nagni Mata Mandir: हिमाचल के इस मंदिर की मिट्टी घर में रखने से नहीं आते सांप व बिच्‍छू, शनिवार को लगता है मेला, बेहद रोचक है कथा

Kangra Nagni Mata Temple नूरपुर के नागनी माता मंदिर में सांप-बिच्छू व अन्य जहरीले जीव-जंतुओं के काटने का उपचार यहां पर मात्र पानी पिलाकर व मिट्टी जिसे शक्कर प्रसाद के नाम से जाना जाता है का लेप लगाकर किया जाता है।

By Rajesh Kumar SharmaEdited By: Updated: Wed, 27 Jul 2022 08:39 AM (IST)
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नूरपुर के भडवार स्थित नागनी माता का मंदिर।
नूरपुर, प्रदीप शर्मा। Kangra Nagni Mata Temple, हिमाचल देवी-देवताओं व ऋषि-मुनियों की पावन स्थली है। यहां पर सारा साल अनेकों मेलों व त्यौहारों का आयोजन होता है। इन सभी का महात्म्य किसी न किसी देवी-देवता के नाम से जुड़ा हुआ है। यह मेले सिर्फ हिमाचल में नहीं, अपितु समूचे भारतवर्ष में अपनी एक अलग पहचान रखते हैं। इन्हीं में से एक है- नूरपुर नागनी माता का मंदिर। सांप-बिच्छू व अन्य जहरीले जीव-जंतुओं के काटने का उपचार यहां पर मात्र पानी पिलाकर व मिट्टी, जिसे शक्कर प्रसाद के नाम से जाना जाता है, का लेप लगाकर किया जाता है। पठानकोट-मंडी राष्ट्रीय राजमार्ग पर बसे एक छोटे-से गांव नागनी (भडवार) में श्रावण व भादों (जुलाई-अगस्त) मास के दौरान हर शनिवार को मेला लगता है। दो माह तक लगने वाले इन मेलों में हजारों की संख्या में श्रद्धालु हिमाचल प्रदेश के अलावा पड़ोसी राज्यों पंजाब, हरियाणा व जम्मू- कश्मीर से नागनी माता के दर्शनों के लिए यहां पहुंचते हैं।

यहां है यह प्रसिद्ध नागनी मंदिर

पठानकोट-मंडी राष्ट्रीय राजमार्ग पर नूरपुर में बसे एक छोटे-से गांव नागनी (भडवार) में माता नागनी का मंदिर है। यहां पर सावन माह में ही नहीं, अन्य दिनों में भी श्रद्धालुओं की आवाजाही लगी रहती है, जबकि इन दिनों सावन माह में श्रद्धालुओं की संख्या अधिक रहती है और मेलों का आयोजन होता है।

मंदिर को लेकर यह भी है विश्वास व आस्था

विश्वास है कि सर्पदंश का जो रोगी एक बार माता नागनी की शरण में पहुंच जाता है, वह ठीक होकर ही घर जाता है। यह सारा चमत्कार नागनी माता के स्थान से निकलने वाली जलधारा के पानी तथा मिट्टी (शक्कर) का माना जाता है। जो प्यास के नाम से उसे पिलाया जाता है और मिट्टी का लेप डंक वाली जगह पर किया जाता है। यही एकमात्र उपचार यहां पर होता है। शक्‍कर को घर में रखने पर कोई सांप व बिच्‍छू इत्‍यादि नहीं निकलता है। अब नागनी माता का यह मंदिर लोगों की आस्था का प्रमुख केंद्र बन चुका है। लोगों में इस मंदिर के प्रति अटूट आस्था को देखते हुए प्रदेश सरकार ने भी नागनी मेले को कुछ वर्ष पूर्व जिलास्तरीय मेले का दर्जा दे दिया था।

प्रचलित दंतकथा

इस मंदिर के अस्तित्व में आने को लेकर एक दंतकथा प्रचलित है। जिसके अनुसार, कालांतर में इस जगह पर एक घना जंगल था। यहां पर राजा जगत सिंह का साम्राज्य था। यहां पर बहने वाली जलधारा का पानी लोग पीने व नहाने के लिए प्रयोग में लाते थे तथा इस जगह को अपना पूजा स्थल मानते थे। यहां पर बामी मिट्टी के टिल्ले थे जिस पर अक्सर लोग दूध व जल चढ़ाते थे। उसके बाद एक कोढ़ी यहां पर आकर रहने लगा। वह भगवान से कोढ़ मुक्ति के लिए लगातार प्रार्थना करता था। बताते हैं कि उसकी साधना सफल होने पर नागनी माता ने उसे स्वप्न में दर्शन दिए तथा उसे नाले में दूध की नदी दिखाई दी। सुबह उठकर उसने वास्तविक रूप में इस जगह पर दूध की नदी बहती देखी, जो कि वर्तमान में मंदिर के साथ बहते नाले के रूप में है। माता ने कहा कि इस नदी में नहाने व यहां की मिट्टी शरीर पर लगाने से उसका कुष्ठ रोग दूर हो जाएगा। उसने यहां पर स्नान किया व मिट्टी का लेप अपने जख्मों पर किया, जिसके बाद उसका कोढ़ रोग ठीक हो गया। उसी ने ही अपने साथ घटित इस घटना बारे सभी को अपनी आपबीती बताई। जिसके बाद इस स्थान पर अब तक सर्पदंश के अलावा चर्मरोग के लाखों मरीज ठीक हो चुके हैं।

मंदिर स्थापना की दंतकथा

मंदिर की स्थापना को लेकर प्रचलित दंतकथा के अनुसार, एक सपेरे ने माता नागनी के मंदिर में आकर उसे धोखे से अपने पिटारे में बंद कर लिया। जब माता ने रात को राजा जगत सिंह को दर्शन दिए तो उसने सपेरे से उसे  छुड़ाने की प्रार्थना की। जब वह सपेरा नूरपुर के कंडवाल में रुका तो राजा ने उस सपेरे से नागिन को मुक्त करवाया व भडवार में पुनः उसको उसके अपने असली स्थान पर पहुंचाया। नागनी माता को नागों की देवी सुरसा माता के नाम से भी जाना जाता हैं। मेलों के दौरान या बीच- बीच में श्रद्धालुओं को नागनी के रूप में मां के साक्षात दर्शन जलधारा में, मंदिर के गर्भगृह में या प्रांगण में होते रहते हैं। कभी उनका रंग तांबे जैसा होता है और कभी स्वर्ण तो कभी दूधिया और कभी पिंडी के ऊपर बैठी नागनी दिखाई देती है।

इस परिवार की 60 पीढ़ियां निभा चुकी हैं पुजारी का दायित्‍व

बताते हैं कि यहां के राजपूत घराने के पुराने बाशिंदे जो ठाकुर मैहता परिवार से संबंध रखते थे, वही इस मंदिर के मुख्य आराधक थे। इन परिवारों की कम से कम 60 पीढ़ियां अब तक इस मंदिर में पुजारी के रूप में अपना दायित्व निभा चुकी हैं। आज भी इस खानदान के 32 परिवार बारी-बारी से मंदिर में पूजा-अर्चना का जिम्मा संभाल रहे हैं। मार्च, 1971 में स्वर्गीय धजा सिंह के मार्गदर्शन में मंदिर प्रबंधकारिणी कमेटी का गठन किया गया, जो इस मंदिर समिति के संस्थापक सदस्य व प्रधान थे। मंदिर के पास से निकलने वाली जलधारा से चार किलोमीटर की परिधि में पड़ने वाले भड़वार, नागनी, मिंजग्रा, खुशीनगर आदि गांव को पेयजल आपूर्ति की जाती है। जिससे इस क्षेत्र की हजारों की आबादी को प्रतिदिन मां के आशीर्वाद से शुद्ध जल पीने को मिलता है। मां का ही चमत्कार है कि प्रतिदिन हजारों लीटर पानी की जलापूर्ति होने के बावजूद भीषण गर्मी पड़ने पर भी यहां कभी पानी की कमी नहीं आती है।

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