Kullu Dussehra: रामलीला नहीं, यहां होता है देवमहाकुंभ, मोदी भी बनेंगे जिसके गवाह, आप भी जान लीजिए 5 खास बातें
Kullu Dussehra Festival 2022 देवभूमि हिमाचल प्रदेश के कुल्लू में दशहरा उत्सव अपनी अनोखी परंपराओं के लिए जाना जाता है। बुधवार से सात दिवसीय अंतरराष्ट्रीय दशहरा उत्सव का आगाज होगा। पहली बार देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दशहरा उत्सव में शामिल होंगे।
By Jagran NewsEdited By: Rajesh Kumar SharmaUpdated: Mon, 03 Oct 2022 02:17 PM (IST)
कुल्लू, जागरण टीम। Kullu Dussehra Festival 2022, देवभूमि हिमाचल प्रदेश के कुल्लू में दशहरा उत्सव अपनी अनोखी परंपराओं के लिए जाना जाता है। बुधवार से सात दिवसीय अंतरराष्ट्रीय दशहरा उत्सव का आगाज होगा। पहली बार देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दशहरा उत्सव में शामिल होंगे। मोदी दशहरा उत्सव की रथ यात्रा को निहारेंगे। यहां पर देवी देवताओं का आशीर्वाद भी लेंगे। दशहरा उत्सव में रोचक बात यह है कि यहां पर न तो रामलीला का मंचन होता है और न ही रावण का दहन किया जाता है। यहां परंपरा मात्र रस्म निभाई जाती है। कुल्लू दशहरा उत्सव में देवमहाकुंभ का आलौकिक मिलन होता है।
जिलेभर के सैकड़ों देवी देवता भगवान रघुनाथ जी को घाटी का अधिष्ठाता देव मानकर दशहरा उत्सव में भाग लेते हैं। आज कुल्लू का अंतरराष्ट्रीय दशहरा उत्सव देव संस्कृति के लिए विश्व भर में प्रसिद्व है। यहां पर देश विदेश से हर साल कई शोधार्थी शोध करने आते हैं। दशहरा उत्सव में कुल्लवी नाटी के रूप में सर्वाधिक महिलाओं के नृत्य से विश्व रिकार्ड भी बना है। देश के अन्य भागों में दशहरा समाप्त होता है लेकिन कुल्लू में दशहरे का आगाज होता है। 17वीं शताब्दी में 1660 ईस्वी से शुरु हुए कुल्लू दशहरा उत्सव का स्वरूप आज इतना बड़ा हो गया है कि इसमें लाखों लोग शिरकत करते हैं।
दशहरा उत्सव की पांच खास बातें
- दशहरा उत्सव में भगवान रघुनाथ जी की रथयात्रा सबसे खास रहती है। रथयात्रा के साथ क्षेत्र के देवी-देवताओं के रथ भी चलते हैं। रथयात्रा को खींचना बेहद सौभाग्य का काम माना जाता है।
- देशभर में दशहरा उत्सव का समापन होता है और कुल्लू में सात दिवसीय दशहरा उत्सव का आगाज होता है। सदियों से यह परंपरा चल रही है।
- कुल्लू दशहरा उत्सव देव मिलन के रूप में भी माना जाता है। जिला के सैकड़ों देवी देवता कुल्लू पहुंचते हैं व एक दूसरे से मिलते हैं। लोग इनसे आशीर्वाद लेकर सुख समृद्धि की कामना करते हैं।
- कुल्लू दशहरा में रावण का पुतला नहीं जलाया जाता है। बुराई के प्रतीक के रूप में झाड़ियों को जलाया जाता है। सदियों से इसी परंपरा का निवर्हन हो रहा है।
- सात दिवसीय दशहरा उत्सव के दौरान दिन में देव मिलन होता है और रात को रोजाना सांस्कृतिक संध्या का आयोजन होता है। इसके अलावा बड़े स्तर पर मेले का आयोजन भी होता है। सात दिन के दौरान मेले में हर वर्ष लाखों लोग पहुंचते हैं।
1660 से कुल्लू में स्थापित है रघुनाथ जी की त्रेता युगकालीन मूर्ति
अधिष्ठाता रघुनाथ जी की त्रेता युग कालीन मूर्ति को 1649 में राजा जगत सिंह के शासन काल में राज्य आदेश पर अयोध्या से कुल्लू लाया गया। कुल्लू पहुंचाने के बाद मूर्ति को कुल्लू के थरास गांव के मकराहड़ में रखा गया। तीन वर्ष बाद मूर्ति को धार्मिक पर्यटन नगरी मणिकर्ण ले जाया गया। 1660 में मणिकर्ण से रघुनाथ जी को कुल्लू के सुल्तापुर लाया गया। सुल्तानपुर में मंदिर में जब रघुनाथ जी की मूर्ति को स्थापित किया गया तो तभी से कुल्लू दशहरा उत्सव मनाया जाने लगा जो आज अंतरराष्ट्रीय उत्सव का रूप ले चुका है। दशहरा उत्सव के दौरान कुल्लू के ढालपुर की भांति मणिकर्ण में भी आज रघुनाथ जी की रथ यात्रा निकलती है।