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कटिंग, भूकंप व बारिश से कमजोर हो रहे हिमाचल के पहाड़, आइआइटी की तकनीक हुई यहां कारगर साबित

Kinnaur Landslide सड़क व पनविद्युत प्रोजेक्टों के निर्माण के लिए मशीनों से हो रही कटिंग भूकंप व बारिश से देवभूमि हिमाचल के पहाड़ लगातार कमजोर हो रहे हैं। आबादी वाले क्षेत्रों में पहाड़ में होने वाली हलचल का पता आसानी से चल जाता है।

By Rajesh Kumar SharmaEdited By: Updated: Wed, 11 Aug 2021 05:12 PM (IST)
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आबादी वाले क्षेत्रों में पहाड़ में होने वाली हलचल का पता आसानी से चल जाता है।
मंडी, हंसराज सैनी। सड़क व पनविद्युत प्रोजेक्टों के निर्माण के लिए मशीनों से हो रही कटिंग, भूकंप व बारिश से देवभूमि हिमाचल के पहाड़ लगातार कमजोर हो रहे हैं। आबादी वाले क्षेत्रों में पहाड़ में होने वाली हलचल का पता आसानी से चल जाता है। सुनसान जगह किसी चुनौती से कम नहीं है। भूकंप के झटके दो या तीन माह बाद एक बार आते हैं। बारिश भी साल में कुछ माह होती है। भूकंप व बारिश से कहीं अधिक मशीनों से पहाड़ों में कटिंग हो रही है। मशीनी कंपन से पहाड़ की चट्टानें लगातार खिसक रही हैं। प्रदेश का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं होगा जहां सड़क या फिर पनविद्युत प्रोजेक्ट निर्माण के लिए पहाड़ों से छेड़छाड़ नहीं हो रही है। किन्नौर जिला इस दृष्टि से अतिसंवेदनशील हैं।

यहां पनविद्युत प्रोजेक्ट स्थापित करने के लिए पहाड़ों की सीना बुरी तरह से छलनी किया गया है। चट्टानें तोड़ने के लिए विस्फोटक का इस्तेमाल हुआ है। इससे यहां के पहाड़ पूरी तरह से हिल चुके हैं। कटिंग, भूंकप व बारिश के कारण पहाड़ों के अंदर हलचल लगातार बढ़ रही हैं। चट्टानें धीरे धीरे खिसक रही हैं। पेड़ों के कटान से नंगे हो चुके पहाड़ों की मिट्टी तेजी से बारिश का पानी सोख रही है। इससे मिट्टी कमजोर पड़ रही है। पकड़ ढीली हो रही है। ज्यादा पानी भरने से पहाड़ में फिर हल्की सी कंपन होने पर भूस्खलन हो रहा है।

चार साल पहले हुए कोटरोपी हादसे के बाद भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान आइआइटी मंडी के शोधकर्ताओं ने इस समस्या से निपटने के लिए मंडी जिला प्रशासन के आग्रह पर भूस्खलन रोधी अग्रिम चेतावनी प्रणाली विकसित की थी। यह प्रणाली पूरी तरह कारगर साबित हुई थी। कोटरोपी के अलावा इसे हणोगी में भी स्थापित किया गया था। चार साल में दोनों स्थानों पर कई बार भूस्खलन हुआ, मगर अग्रिम चेतावनी प्रणाली की वजह से एक भी व्यक्ति की जान इन चार सालों में नहीं दोनों जगह नहीं गई।

भूस्खलन रोधी तकनीकी को सिरमौर जिला प्रशासन ने भी अपनाया था। पूर्वोत्तर के कई राज्यों ने अपने यहां यह तकनीक लगा रखी है। मंडी व सिरमौर जिला प्रशासन को छोड़ अन्य जिलों ने इस पर गौर तक करना उचित नहीं समझा। किन्नाैर जिला प्रशासन ने कभी विशेषज्ञों से जर्जर हो चुके अपने क्षेत्र के पहाड़ों का सर्वे करवाना भी उचित नहीं समझा। इस घोर लापरवाही का नतीजा आज सबके सामने हैं। पहाड़ों में बारिश का पानी चट्टानों तक पहुंचने में 15 से 20 दिन का समय लगता है। जुलाई में हुई बारिश का पानी अगस्त के पहले व दूसरे सप्ताह तक चट्टानों में पूरी तरह भरने से अकसर 15 अगस्त तक पहाड़ों में अधिक हलचल होने से भूस्खलन होता है।

आइआइटी मंडी के एसोसिएट प्रोफेसर डॉक्‍टर वरुण दत्‍त का कहना है कटिंग, भूकंप व बारिश से हिमाचल के पहाड़ धीरे धीरे कमजोर हो रहे हैं। ऐसे पहाड़ों के उपचार की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। भूस्खलन रोधी अग्रिम चेतावनी प्रणाली से ऐसे हादसों से बचा जा सकता है। सरकार को इस दिशा में गंभीरता से विचार करना होगा।

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