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मणिमहेश यात्रा: यहां मणि के रूप में दर्शन देते हैं महादेव, जानिए

हिमाचल के चंबा शहर से करीब 82 किलोमीटर की दूरी पर बसे मणिमहेश में भगवान भोले मणि के रूप में दर्शन देते हैं।

By Rajesh SharmaEdited By: Updated: Mon, 26 Aug 2019 09:28 AM (IST)
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मणिमहेश यात्रा: यहां मणि के रूप में दर्शन देते हैं महादेव, जानिए

चंबा, जेएनएन। चंबा को शिवभूमि के नाम से जाना जाता है। मान्यता है कि भगवान शिव इन्हीं पहाड़ों में निवास करते हैं। हिमाचल की पीर पंजाल की पहाडिय़ों के पूर्वी हिस्से में तहसील भरमौर में स्थित है प्रसिद्ध मणिमहेश तीर्थ। हिमाचल के चंबा शहर से करीब 82 किलोमीटर की दूरी पर बसे मणिमहेश में भगवान भोले मणि के रूप में दर्शन देते हैं। इसी कारण इसे मणिमहेश कहा जाता है। धौलाधार, पांगी व जांस्कर पर्वत शृंखलाओं से घिरा यह कैलाश पर्वत मणिमहेश कैलाश के नाम से भी जाना जाता है। हजारों साल से श्रद्धालु रोमांचक यात्रा पर आ रहे हैं। इस साल यह यात्रा 24 अगस्त से शुरू हो रही है। मान्यता है कि भगवान शिव इन्हीं पहाड़ों में निवास करते हैं। कहते हैं भगवान शिव ने यहीं पर सदियों तक तपस्या की थी। इसके बाद से ये पहाड़ रहस्यमयी बन गया। मणिमहेश यात्रा कब शुरू हुई, इसके बारे में अलग-अलग विचार हैं, लेकिन कहा जाता है कि यहां पर भगवान शिव ने कई बार अपने भक्तों को दर्शन दिए हैं। 13,500 फीट की ऊंचाई पर किसी प्राकृतिक झील का होना किसी दैवीय शक्ति का प्रमाण है। आइए मणिमहेश यात्रा के बारे में जानें कुछ रोचक तथ्य...

भगवान शिव ने की थी पर्वत की रचना

मणिमहेश नाम का पवित्र सरोवर है जो समुद्र तल से लगभग 13,500 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। इसी सरोवर की पूर्व की दिशा में है वह पर्वत जिसे कैलाश कहा जाता है। इस हिमाच्छादित शिखर की ऊंचाई समुद्र तल से करीब 18,564 फीट है। स्थानीय लोग मानते हैं कि देवी पार्वती से विवाह करने के बाद भगवान शिव ने मणिमहेश नाम के इस पर्वत की रचना की थी। मणिमहेश पर्वत के शिखर पर भोर में एक प्रकाश उभरता है जो तेजी से पर्वत की गोद में बनी झील में प्रवेश कर जाता है। यह इस बात का प्रतीक माना जाता है कि भगवान शंकर कैलाश पर्वत पर बने आसन पर विराजमान होने आ गए हैं तथा ये अलौकिक प्रकाश उनके गले में पहने शेषनाग की मणि का है। इस दिव्य अलौकिक दृश्य को देखने के लिए यात्री अत्यधिक सर्दी के बावजूद भी दर्शनों के लिए बैठे रहते हैं।

चौरासी मंदिर

कहा जाता है कि भरमौर का नाम पहले ब्रह्मïपुर नाम हुआ करता था। इस दौरान माता भरमाणी का मंदिर भी चौरासी परिसर में ही था। चौरासी में ही माता का वास हुआ करता था। ऐसे में चौरासी परिसर में रात के समय पुरुषों के विश्राम को निषेध किया गया था। उस दौरान चौरासी सिद्धों का एक दल पवित्र मणिमहेश यात्रा पर जा रहा था। यात्रा पर आगे बढऩे से पूर्व धीरे-धीरे अंधेरा होने लगा। ऐसे में चौरासी सिद्धों ने चौरासी में समतल स्थल होने की सूरत में रात यहीं पर ही रुकने का निर्णय लिया। जैसे चौरासी सिद्धों ने चौरासी परिसर में रात के समय प्रवेश किया तो इससे माता भरमाणी क्रोधित हो उठीं। माता भरमाणी उन चौरासी सिद्धों को श्राप देने लगी तो चौरासी सिद्धों के मुखिया जोकि स्वयं भगवान शंकर थे आगे बढ़े। भगवान शंकर को देख माता भरमाणी का क्रोध शांत हो गया। माता भरमाणी ने भगवान शंकर से क्षमा मांगी। साथ ही चौरासी परिसर में रात के समय पुरुषों के आगमन निषेध होने की बात कही। माता भरमाणी वहां से विलुप्त होकर यहां से तीन किलोमीटर दूर साहर नामक स्थान पर प्रकट हुईं। जिसके बाद भगवान शंकर ने माता भरमाणी को वरदान दिया कि मणिमहेश यात्रा पर आने वाले श्रद्धालुओं की यात्रा तभी पूर्ण होगी जब श्रद्धालु सर्वप्रथम माता भरमाणी के दर्शन करेंगे। कहा जाता है कि मणिमहेश यात्रा के लिए चौरासी मंदिर के दर्शन भी जरूरी हैं।

पारंपरिक वार्षिक यात्रा आरंभ करने का श्रेय योगी चरपटनाथ को

चंबा गजेटियर के अनुसार योगी चरपटनाथ ने राजा साहिल वर्मा को राज्य के विस्तार के लिए उस इलाके को समझने में काफी सहायता की थी। गीता प्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित कल्याण पत्रिका के शिवोपासनांक में छपे एक लेख के अनुसार मणिमहेश-कैलाश की खोज और पारंपरिक वार्षिक यात्रा आरंभ करने का श्रेय योगी चरपटनाथ को जाता है। पहले यात्रा तीन चरणों में होती थी। पहली यात्रा रक्षा बंधन पर होती थी। इसमें साधु संत जाते थे। दूसरा चरण भगवान श्री कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर किया जाता था जिसमें जम्मू काशमीर के भद्रवाह , भलेस के लोग यात्रा करते थे। ये लोग आज भी सैकड़ों किलोमीटर की पैदल यात्रा अपने बच्चों के साथ करते हैं। तीसरा चरण दुर्गाअष्टमी या राधाष्टमी को किया जाता है, जिसे राजाओं के समय से मान्यता प्राप्त है। अब प्रदेश सरकार ने भी इसे मान्यता प्रदान की है। 

आस्था के साथ रोमांच भी

हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुसार हिमालय की धौलाधार, पांगी और जांस्कर शृंखलाओं से घिरा कैलाश पर्वत मणिमहेश-कैलाश के नाम से प्रसिद्ध है। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी (भाद्रपद कृष्ण अष्टमी) से श्रीराधाष्टमी (भाद्रपद शुक्ल अष्टमी) तक लाखों श्रद्धालु पवित्र मणिमहेश झील में स्नान के बाद कैलाश पर्वत के दर्शन के लिए यहां पहुंचते हैं। पहाड़ों, खड्डों नालों से होते हुए मणिमहेश झील तक पहुंचने का रास्ता रोमांच से भरपूर है। मणिमहेश यात्रा को अमरनाथ यात्रा के बराबर माना जाता है। जो लोग अमरनाथ नहीं जा पाते हैं वे मणिमहेश झील में पवित्र स्नान के लिए पहुंचते हैं। अब मणिमहेश झील तक पहुंचना और भी आसान हो गया है। यात्रा के दौरान भरमौर से गौरीकुंड तक हेलीकॉप्टर की व्यवस्था है और जो लोग पैदल यात्रा करने के शौकीन हैं उनके लिए हड़सर, धनछो, सुंदरासी, गौरीकुंड और मणिमहेश झील के आसपास रहने के लिए टेंटों की व्यवस्था भी है।

भौगोलिक स्थिति

शैव तीर्थ स्थल मणिमहेश कैलाश हिमाचल प्रदेश में चंबा जिले के भरमौर में है। मान्यता के अनुसार, 550 ईस्वी में भरमौर मरु वंश के राजा मरुवर्मा की राजधानी था। मणिमहेश कैलाश के लिए भी बुद्धिल घाटी जो भरमौर का भाग है, से होकर जाना पड़ता है।

हड़सर से पैदल यात्रा

हड़सर या हरसर नामक स्थान सड़क का अंतिम पड़ाव है। यहां से आगे पहाड़ी और सर्पीले रास्तों पर पैदल या घोड़े-खच्चरों की सवारी कर ही सफर तय होता है। चंबा, भरमौर और हड़सर तक सड़क बनने से पहले चंबा से ही पैदल यात्रा शुरू हो जाती थी। हड़सर से मणिमहेश झील की दूरी करीब 13 किलोमीटर है। पैदल तीर्थयात्रा चंबा जिले के 6000 फीट की ऊंचाई पर स्थित हड़सर गांव से शुरू होती है।

महिलाएं गौरीकुंड में करती हैं स्नान

गौरीकुंड पहुंचने पर प्रथम कैलाश शिखर के दर्शन होते हैं। गौरीकुंड माता गौरी का स्नान स्थल है। यात्रा करने वाली महिलाएं यहां स्नान करती हैं। यहां से करीब डेढ़ किलोमीटर की सीधी चढ़ाई के बाद मणिमहेश झील तक पहुंचा जाता है। यह झील चारों ओर से पहाड़ों से घिरी हुई। यहां का खूबसूरत दृश्य पैदल पहुंचने वालों की थकावट को क्षण भर में दूर कर देता है। 

होते हैं नीलमणि के दर्शन

हिमाचल सरकार ने इस पर्वत को टरकॉइज माउंटेन यानी वैदूर्यमणि या नीलमणि कहा है। मणिमहेश में कैलाश पर्वत के पीछे जब सूर्य उदय होता है तो सारे आकाश मंडल में नीलिमा छा जाती है और किरणें नीले रंग में निकलती हैं। मान्यता है कि कैलाश पर्वत में नीलमणि का गुण-धर्म है, जिनसे टकराकर सूर्य की किरणें नीले रंग में रंगती हैं।

हेलीकॉप्‍टर सेवा भी उपलब्‍ध

मणिमहेश झील में पहला पवित्र स्नान श्रीकृष्ण जन्माष्टमी (24 अगस्त) को हुआ और दूसरा तथा अंतिम स्नान राधाष्टमी पर 6 सितंबर को होगा। राज्य सरकार ने यात्रियों को ले जाने के लिए एक निजी हेली टैक्सी संचालक को अनुमति दी है। हेलीकॉप्टर लोगों को आधार शिविर भरमौर से पवित्र झील से एक किलोमीटर पीछे गौरीकुंड तक ले जाएगा। एक तरफ का किराया 2750 रुपये प्रति यात्री तय किया गया है।

कैसे पहुंचें मणिमहेश

मणिमहेश यात्रा हड़सर से पैदल शुरू होती है। भरमौर से मणिमहेश 17 किलोमीटर, चंबा से करीब 82 किलोमीटर और पठानकोट से 220 किलोमीटर की दूरी पर है। पठानकोट मणिमहेश कैलाश यात्रा के लिए निकटतम रेलवे स्टेशन है, जबकि कांगड़ा हवाई अड्डा नजदीकी हवाई अड्डा है। यहां से अपने वाहन या टैक्सी के माध्यम से यात्रा शुरू की जा सकती है।

यात्रा के दौरान बरतें ये साव‍धानियां

अपने साथ पर्याप्त गर्म कपड़े रखें। यहां तापमान एकदम से पांच डिग्री तक गिर सकता है। यात्रा मार्ग पर मौसम कभी भी बिगड़ सकता है, लिहाजा अपने साथ छाता, रेनकोट व वाटरप्रूफ जूते लेकर जाएं। बारिश में सामान गीला न हो, इसके लिए कपड़े व अन्य खाने-पीने की चीजें वाटरप्रूफ बैग में ही रखें। आपातस्थिति के लिए अपने किसी साथी यात्री का नाम, पता व मोबाइल नंबर लिखकर एक पर्ची अपनी जेब में रखें। अपने साथ पहचान पत्र या ड्राइविंग लाइसेंस या यात्रा पर्ची जरूर रखें।

क्या न करें

  • जिन क्षेत्रों में चेतावनी सूचना हो, वहां न रुकें।
  • यात्रा मार्ग में काफी उतार-चढ़ाव है, इसलिए चप्पल पहनकर यात्रा न करें। केवल ट्रैकिंग जूते ही पहनकर यात्रा करें।
  • यात्रा के दौरान किसी तरह का शॉर्टकट न लें क्योंकि यह खतरनाक व जानलेवा हो सकता है।
  • खाली पेट कभी भी यात्रा न करें। ऐसा करने से गंभीर स्वास्थ्य समस्या उत्पन्न हो सकती है।
  • ऐसा कोई कार्य न करें जिससे यात्रा मार्ग पर प्रदूषण फैलता हो या पर्यावरण को नुकसान पहुंचता हो।
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