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यहां तेजोलिंग रूप में विराजे हैं महाकाल, जानिए मान्यता Kangra News

भगवान शिव यूं तो कई रूपों में देवभूमि में विराजमान हैं लेकिन कांगडा में बैजनाथ से पांच किलोमीटर दूर महाकाल मंदिर में भगवान शिव तेजोलिंग रूप में विराजमान हैं।

By Rajesh SharmaEdited By: Updated: Sat, 07 Sep 2019 08:32 AM (IST)
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यहां तेजोलिंग रूप में विराजे हैं महाकाल, जानिए मान्यता Kangra News

मुनीश सूद, बैजनाथ। भगवान शिव यूं तो कई रूपों में देवभूमि में विराजमान हैं लेकिन कांगडा में बैजनाथ से पांच किलोमीटर दूर महाकाल मंदिर में भगवान शिव तेजोलिंग रूप में विराजमान हैं। दावा यह भी है कि भगवान शिव का तेजोलिंग रूप सिर्फ महाकाल मंदिर में ही है। मंदिर के मुख्य पुजारी राम कुमार मिश्रा बताते हैं कि भगवान शिव के तेज से जो शिवलिंग बनता है उसे तेजोलिंग कहा जाता है। साधकों की तपोस्थली होने के कारण महाकाल मंदिर बैजनाथ में भगवान के तेज से ही शिवलिंग उत्पन्न हुआ था। इस कारण इसे तेजोलिंग कहा गया है।

हालांकि उज्जैन में भी महाकाल का दूसरा मंदिर है, लेकिन वहां पर भगवान शिव ज्योतिर्लिंग के रूप में हैं। महाकाल मंदिर अपने आप में एक इतिहास समेटे है। बैजनाथ उपमंडल से पांच किलोमीटर दूर स्थित महाकाल मंदिर में भगवान शिव और शनि देव का मंदिर है। यहां लोग मनोकामना पूरी करने के लिए पूजा-अर्चना करते हैं। यहां शिवलिंग के जलाभिषेक का जल व दूध कहां जाता है यह भी एक रहस्य है।

श्मशानघाट हटाकर बनाया मंदिर

महाकाल मंदिर का निर्माण इतना प्राचीन है कि कोई तय अवधि नहीं बताई जा सकती। यहां पर पहले श्मशानघाट और शनि देव का मंदिर भगवान शिव के मंदिर के साथ ही थे। क्षेत्र की 52 पंचायतों के लोगों का यहां पर अंतिम संस्कार होता था और भगवान शिव के मंदिर के समक्ष अर्थी को रखकर अंतिम दर्शन करवाए जाते थे लेकिन अब यह परंपरा बदल दी है और श्मशानघाट को मंदिर के बाहर स्थापित किया गया तथा शनिदेव की शनि शिला और मंदिर का निर्माण अलग से करवाया गया है। इनको अलग करवाने की वजह शनि देव पर चढ़ाए जाने वाले विभिन्न प्रकार के चढ़ावे थे। श्मशानघाट हटा कर बनाए मंदिर में ही लोग पूजा पाठ करते हैं।

मंदिर का इतिहास

महाकाल मंदिर का इतिहास जालंधर राक्षस से जुड़ा है। कहा जाता है कि भगवान शिव ने जालंधर राक्षस की तपस्या से खुश होकर वरदान दिया था कि काल भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा। वरदान प्राप्ति के बाद जब जालंधर राक्षस देवी-देवताओं और लोगों को परेशान करने लगा तो देवताओं ने भगवान शिव की शरण ली थी। जालंधर राक्षस की मौत का रहस्य उसकी पत्नी वृंदा के पतिव्रत धर्म में है। इसके लिए भगवान शिव ने विष्णु से माया रचने के लिए कहा था। भगवान विष्णु की माया से उसकी पत्नी वृंदा का पतिव्रत धर्म टूट गया। इसके बाद जब भगवान शिव जालंधर राक्षस को मारने लगे तो जालंधर ने कहा कि आपने मुझे वरदान दिया था कि मुझे काल नहीं मार सकेगा। इस पर भगवान शिव ने महाकाल का रूप धारण कर जालंधर राक्षस का वध किया। जालंधर राक्षस ने कहा कि मेरा वध जहां भी हो वह पीठ मेरे नाम से विख्यात हो और महाकाल के रूप में भगवान शिव वहां विराजमान हों। इसके बाद इस क्षेत्र को जालंधर पीठ के नाम से भी जाना जाता है।

कोई नहीं जानता, कहां जाता है जल

महाकाल के शिवलिंग पर चढऩे वाला जल और दूध बाहर निकलने के बजाय शिवलिंग में ही समा जाता है। यह रहस्य आज भी बरकरार है कि यह जल और दूध कहां जाता है। हालांकि पहले के मुकाबले इसके समाने में कुछ कमी आई है लेकिन आज तक कोई इस रहस्य को नहीं जान पाया है। शिवलिंग के आस पास धोती बांधी जाती है ताकि फूल या अन्य पदार्थ ऊपर ही रह जाएं।

शनि देव का महत्व

शनि देव को महाकाल का शिष्य कहा जाता है। जहां पर महाकाल विराजमान होते हैं वहां पर शनि का विशेष स्थान होता है। पहले महाकाल मंदिर में शनिदेव की शिला महाकाल मंदिर के पास ही स्थित थी, लेकिन शनि देव पर चढऩे वाले विभिन्न चढ़ावों के चढऩे के मद्देनजर शनि देव की शिला को मंदिर के दूसरे किनारे पर स्थापित किया गया। यहां बने मंदिर में नवग्रह पूजन किया जाता है।

मंदिर में स्थित हैं चार कुंड

महाकाल मंदिर के चारों और पवित्र कुंड भी प्राकृतिक रूप से स्थापित हैं। भगवान शिव का अभिषेक इन्हीं कुंडों के पानी से किया जाता है। इन कुंड़ों के नाम ब्रह्मï कुंड, विष्णु कुंड, सती कुंड और शिव कुंड के नाम से जाना जाता है। यह कुछ मंदिर निर्माण के साथ ही यहां पर मौजूद है।

निर्जला एकादशी का महत्व

महाकाल मंदिर में निर्जला एकादशी का विशेष महत्व है। यहां भाद्रपद मेलों की तरह निर्जला एकादशी को भी विशेष कार्यक्रम का भी आयोजन होता है। कहा जाता है कि भगवान शिव की पूजा निर्जला एकादशी पर पूजापाठ का अपना विशेष महत्व है तथा इसी कारण निर्जला एकादशी पर विशेष मेले का आयोजन होता है। इसी तरह भाद्रपद मेले शुरू होते हैं जो इस बार 17 अगस्त से शुरू हुए हैं। इस माह यहां हर शनिवार को मेला लगता है। इस बार अंतिम मेला छह सिंतबर को आयोजित किया जा रहा है।

श्मशानघाट का महत्व

इस घाट में 52 टीकों यानी 200 पंचायतों से अधिक के लोगों का अंतिम संस्कार होता था। शव को अंतिम संस्कार से पहले महाकाल के मंदिर के समक्ष रखा जाता था। यहां पर रोजाना एक शव जलाया जाता था लेकिन जब शव न हो तो देर रात को घास का पूला जलाया जाता था।