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लकड़ी पर नक्काशी से पुरातन संस्कृति को सहेज रहे हिमाचल के मंदिर

अपनी देव संस्कृति के लिए विश्व विख्यात जनजातीय जिला किन्नौर के मंदिरों में लकड़ी पर की गई नक्काशी एक तरह से दुर्लभ ही है। यहां कई ऐसे मंदिर हैं जिनके बारे में बताया जाता है कि ये मध्य काल में बने हैं।

By Virender KumarEdited By: Updated: Fri, 05 Nov 2021 05:48 PM (IST)
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किन्नौर के रोघी में भगवान विष्णु नारायण के मंदिर में की गई नक्काशी। जागरण
रिकांगपिओ, समर नेगी।

अपनी देव संस्कृति के लिए विश्व विख्यात जनजातीय जिला किन्नौर के मंदिरों में लकड़ी पर की गई नक्काशी एक तरह से दुर्लभ ही है। यहां कई ऐसे मंदिर हैं जिनके बारे में बताया जाता है कि ये मध्य काल में बने हैं। उस समय काष्ठकुणी शैली में बने मंदिर आज भी कला का बेजोड़ नमूना पेश करते हैं। ये मंदिर काष्ठ यानी लकड़ी के बने हैं, जिन पर आकर्षक कलाकृतियां उकेरी गई हैं। इनमें मुख्य तौर पर देवदार की लकड़ी का इस्तेमाल किया गया है। मंदिरों के अलावा कुछ दूसरी इमारतों में भी ऐसी कलाकृतियां बनाई गई हैं। काष्ठकुणी शैली मंदिर व इमारत की सुंदरता ही नहीं दर्शाती, इसके साथ धर्म और इतिहास भी जुड़ा हुआ है।

रिकांगपिओ के समीप कोठी गांव में काष्ठकुणी शैली में निर्मित भैरव मंदिर। जागरण

देवी-देवताओं, पशु, पक्षियों व फूल उकेरे

किन्नौर जिला मुख्यालय रिकांगपिओ से 12 किलोमीटर दूर रोघी गांव में भगवान विष्णु नारायण व कोठी में भैरव मंदिर में इस तरह की नक्काशी की गई है। वहीं, कोठी चंडिका मंदिर में सूर्य भगवान की छवि सहित शानदार नक्काशी की गई है। इन सभी मंदिरों के स्तंभों, खिड़कियों, दरवाजों, दीवारों, चौखट, बरामदों व छतों पर भी देवी-देवताओं, पशु-पक्षियों और विभिन्न प्रकार के फूलों की कलाकृतियां बनाई गई हैं। इन मंदिरों में तल से लेकर शिखर तक सुंदर नक्काशी देखने को मिलती है, जिसे रंगों से भी सजाया गया है। बताया जाता है कि इस तरह की नक्काशी का प्रचलन मध्य काल में अधिक था। सतलुज घाटी शैली का मिश्रित रूप भी इनमें दिखता है। किन्नौर जिला के लोगों की मान्यता है कि ऐसी नक्काशी करने का उद्देश्य संस्कृति और धर्म को आने वाली पीढ़ी को धरोहर के रूप में सौंपना है। इन निर्जीव कलाकृतियों में पुरातन संस्कृति हमेशा जिंदा है।

भैरव मंदिर कोठी में की गई नक्काशी। जागरण

बिना कील लगाए जोड़ी जाती है लकड़ी

इस कला की खासियत यह भी है कि इसमें कुछ भी बनाते हुए लकड़ी को जोडऩे के लिए सिर्फ लकड़ी का ही इस्तेमाल होता है। इसमें कील आदि का इस्तेमाल नहीं होता। हालांकि वर्तमान में नक्काशी में लगने वाली लागत और समय के कारण लोग लोहे का इस्तेमाल कर रहे हैं। अधिकतर इमारतों में लोहे की रेलिंग लगाई जा रही हैं।

रिकांगपिओ के समीप रोघी में निर्मित भगवान विष्णु नारायण का मंदिर। जागरण

अब दोबारा हो रहे प्रयास

काफी समय बाद जिले में इस तरह की नक्काशी को जिंदा रखने का प्रयास किया जा रहा है। कई मंदिर काष्ठकुणी शैली से बनाए भी गए हैं, लेकिन कारीगर बहुत कम हैं और यह काम काफी महंगा हो गया है। ऐसी नक्काशी करने में समय अधिक लगता है, इसलिए अधिकतर लोग इसमें रुचि नहीं ले रहे हैं।

छत ठीक डाली जाए तो हजार साल तक नहीं होती खराब

काष्ठकुणी से बने मकान की छत सही हो तो इस पर की नक्काशी एक हजार साल तक भी सुरक्षित रहती है। इसमें कोई दूसरा उत्पाद इस्तेमाल न होने के कारण खराब होने की आशंका कम रहती है।

किन्नौर के चगांव में महेश्वर मंदिर में की गई नक्काशी। जागरण

इस तरह पहुंचें रिकांगिपओ

किन्नौर जिला मुख्यालय के अंतर्गत रिकांगपिओ में आने वाले सैलानी चंडीगढ़ तक हवाई, रेल, निजी वाहन या बस से आ सकते हैं। चंडीगढ़ व दिल्ली से सीधी बस सेवा भी रिकांगपिओ के लिए हैं। यदि किसी के पास समय है और प्रकृति को निहारना चाहता है तो कालका से शिमला रेललाइन में टाय ट्रेन से आ सकते हैं। शिमला से किन्नौर के लिए दिन में छह से सात बसें रोजाना रवाना होती हैं। टैक्सी से किन्नौर जाने के लिए शिमला से करीब छह हजार रुपये में कैब बुक कर सकते हैं।

कहां ठहरें

किन्नौर में 400 से ज्यादा होटल व होम स्टे हैं। रिकांगपिओं में ही 150 होटल, होम स्टे या अन्य स्थान सैलानियों के रहने के लिए विकसित किए गए हैं। खाने के लिए रिकांगपिओ क्षेत्र में 50 ढाबे व रेस्तरां हैं। इनमें शाकाहारी व मांसाहारी व्यंजन उपलब्ध हैं। राजमा व मटर की सब्जी यहां की पहचान है। 100 रुपये से लेकर 500 रुपये तक में खाना मिलता है।

क्या खरीदें

किन्नौर की पहचान यहां की टोपी व शाल है। बेहतर गुणवत्ता की टोपी की कीमत 450 से 2,000 रुपये तक है। जबकि शाल एक हजार से शुरू होकर 20 हजार रुपये तक में मिल जाते हैं। इसके अलावा ड्राइफ्रूट भी किन्नौर की पहचान हैं। इनमें चिलगोजा, बादाम और अखरोट की मांग अधिक रहती है। सीजन में किन्नौरी सेब भी ले जा सकते हैं। स्वाद व गुणवत्ता में इसका मुकाबला नहीं है।

मुझे इस काम के लिए 1200 रुपये दिहाड़ी मिलती है। पैसा अच्छा मिलता है, लेकिन महंगा होने के कारण काम कम ही लोग करवाते हैं। पहले हर घर में काम करवाया जाता था, लेकिन अब मंदिरों में यह काम हो रहा है।

-देवेंद्र सिंह मिस्त्री, काष्ठकुणी के कारीगर।

इस कला के संवर्धन के लिए कारीगरों को प्रशिक्षित करने व युवाओं को इसकी जानकारी मुहैया करवाने के लिए चार से छह माह का प्रशिक्षण करवाया जाता है। इसमें प्रशिक्षक को पांच हजार तो सीखने वालों को 950 रुपये का मानदेय प्रतिमाह दिया जाता है।

-आबिद हुसैन सादिक, उपायुक्त किन्नौर।

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