भारत की दुविधा अन्न भरपूर
पोषण अपर्याप्त

गेहूं, चावल का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है भारत, फिर भी दुनिया के एक-चौथाई अल्पपोषित लोग यहीं

नई दिल्ली। भारत ने खाद्य सुरक्षा में जो मुकाम हासिल किया है, वैसा उदाहरण शायद ही किसी और देश का हो। बीते साढ़े सात दशक में चार गुना बढ़ी आबादी को खिलाने के लिए हमने अनाज उत्पादन में 6.5 गुना वृद्धि की है। आयात पर निर्भरता कम करने के लिए वर्ष 1950-51 से 2023-24 तक चावल का उत्पादन 6.7 गुना और गेहूं का 17.5 गुना बढ़ाया है। इस दौरान साल में हर व्यक्ति के लिए उपलब्ध अनाज की मात्रा 144.1 किलो से बढ़ कर 207.6 किलो हो गई है। हम गेहूं, चावल और फल-सब्जियों के उत्पादन में चीन के बाद दूसरे स्थान पर आ गए हैं। दूध और दाल के हम सबसे बड़े उत्पादक हैं।

लेकिन इन उपलब्धियों के विपरीत भारत में पोषण का संकट गंभीर है। पीएम गरीब कल्याण अन्न योजना, पीएम पोषण और इंटीग्रेटेड चाइल्ड डेवलपमेंट सर्विसेज जैसी सरकारी योजनाओं के बावजूद वर्ल्ड फूड प्रोग्राम के अनुसार दुनिया के एक-चौथाई अल्पपोषित लोग भारत में हैं। पिछले दो दशक में प्रति व्यक्ति आय तीन गुना से ज्यादा हो गई, फिर भी भोजन में पोषण कम हुआ है। वर्ष 2024 के 127 देशों के ग्लोबल हंगर इंडेक्स (GHI) में भारत 105वें स्थान पर है। ढाई दशक में सुधार के बाद भी भारत ‘गंभीर’ कैटेगरी में है।

इसलिए विशेषज्ञों का कहना है कि हमें अब पोषण पर ध्यान देने की जरूरत है। इसके लिए फूड फोर्टिफिकेशन जैसे कार्यक्रम भी शुरू किए गए हैं। पिछले बुधवार (9 अक्टूबर) को सरकार ने फोर्टिफाइड चावल का वितरण वर्ष 2028 तक जारी रखने का फैसला किया है। 17,000 करोड़ रुपये से अधिक की यह योजना इसलिए जरूरी है क्योंकि करीब 65% भारतीय रोजाना चावल खाते हैं। इस बीच जलवायु संकट दुनिया में खेती और खाद्य सुरक्षा के लिए नया संकट बन गया है। इसका प्रकोप साल-दर-साल तेजी से बढ़ रहा है। इसलिए विशेषज्ञ खाद्य सुरक्षा को बरकरार रखने के लिए खेती को सस्टेनेबल बनाने की जरूरत पर जोर दे रहे हैं।

कैसे हासिल हुई खाद्य सुरक्षा

एग्रीकल्चरल स्टैटिस्टिक्स ऐट के ग्लांस 2023 के अनुसार, अनाज उत्पादन 1950-51 में 508 लाख टन था। यह हरित क्रांति से पहले 1966-67 में 742 लाख टन तक पहुंचा और अब 2023-24 में 3323 लाख टन रहा। इस तरह साढ़े सात दशक में अनाज उत्पादन में 6.5 गुना वृद्धि हुई है।

सात दशक में गेहूं उत्पादन 17.5 गुना बढ़ा

  • चावलः उत्पादन 205 लाख टन से 6.7 गुना बढ़ कर 1378 लाख टन हुआ।
  • गेहूंः उत्पादन 64.6 लाख टन से 17.5 गुना बढ़ कर 1132 लाख टन हो गया।
  • मोटे अनाजः 153 लाख टन से 3.7 गुना बढ़ कर 569 लाख टन हुआ उत्पादन।
  • दालेंः उत्पादन 84.1 लाख टन से 2.9 गुना बढ़ कर 242.4 लाख टन हुआ।
  • तिलहनः उत्पादन 51.6 लाख टन से 7.6 गुना बढ़ कर 396.7 लाख टन।

कुल क्रॉप एरिया 1950-51 में 13.18 करोड़ हेक्टेयर था, यह अभी 21.91 करोड़ हेक्टेयर के आसपास है। यानी खेती की जमीन सिर्फ 66% बढ़ने के बावजूद भारत उत्पादन इतना बढ़ाने में सफल रहा है। उत्पादन बढ़ने के कारण देश में अनाज की प्रति व्यक्ति उपलब्धता भी बढ़ी है। आजादी के बाद नागरिकों को खिलाने के लिए अमेरिका से गेहूं आयात करना पड़ा था। तब से अब तक सिर्फ घरेलू उत्पादन की बदौलत गेहूं की प्रति व्यक्ति उपलब्धता तीन गुना हो गई है।

अनाज की प्रति व्यक्ति उपलब्धता

1951

  • 58.2
  • 24
  • 22.1
  • 144.1

उपज

  • चावल
  • गेहूं
  • दाल
  • कुल अनाज

2023

  • 82.7
  • 74.1
  • 17.2
  • 207.6
*किलो प्रति वर्ष

हालांकि प्रति हेक्टेयर उत्पादन में कई देश हमसे आगे हैं। मसलन, जर्मनी की तुलना में भारत में गेहूं की उत्पादकता आधी है। रूस में दाल की उत्पादकता भारत का ढाई गुना है।

उत्पादकता बढ़ाने की जरूरत

  • उपज
    भारत
    विश्व औसत
    सबसे अधिक
  • धान
    4196
    4744
    7113 (चीन)
  • गेहूं
    3521
    3506
    7302 (जर्मनी)
  • मक्का
    3199
    5873
    11090 (अमेरिका)
  • दालें
    759
    952
    1911 (रूस)
  • गन्ना
    83566
    72239
    94585 (चीन)
(किलो प्रति हेक्टेयर)

पोषण की समस्या बरकरार

खाद्य सुरक्षा हासिल करने में हरित क्रांति का प्रमुख योगदान रहा है। अनाज का तो हम निर्यात भी करने लगे, लेकिन पोषण की कमी को अभी तक दूर नहीं किया जा सका है। सस्टेनेबल विकास पर काम करने वाली संस्था टेरी (TERI) के सीनियर फेलो डॉ. मनीष आनंद जागरण प्राइम से कहते हैं, “हमारी खाद्य सुरक्षा और पोषण सुरक्षा की नीतियों में सामंजस्य नहीं रहा है। भारत में अलग-अलग कृषि जलवायु क्षेत्र के अनुसार विविध कृषि प्रणाली हैं। हमारी खाद्य सुरक्षा नीतियों से मोनोक्रॉपिंग को बढ़ावा मिला, जिसमें गेहूं और धान पर ज्यादा फोकस किया गया। इनके उत्पादन से लेकर खरीद तक हमने बहुत मजबूत इकोसिस्टम तैयार किया। इससे हमें खाद्य सुरक्षा तो मिली, लेकिन पोषण सुरक्षा को उतनी तवज्जो नहीं दी गई।”

पोषण संकट के तीन पहलू हैं- एक है कुपोषण, दूसरा अधिक पोषण जो ज्यादातर शहरी इलाकों में है, और तीसरा माइक्रो न्यूट्रिएंट की कमी। बच्चों और गर्भवती महिलाओं में इसके लक्षण अधिक दिखते हैं। उनमें आयरन, जिंक जैसे तत्वों की कमी रहती है। माइक्रो न्यूट्रिएंट की कमी से कई तरह की दिक्कतें आती हैं।

पोषण की कमी दूर करने और खाद्य सुरक्षा के लिए सरकार के स्तर पर कई योजनाएं चलाई जा रही हैं। पीएम गरीब कल्याण अन्न योजना (PMGKAY) में लगभग 82 करोड़ लोगों को प्रति माह सब्सिडी पर अनाज दिया जा रहा है। पीएम पोषण योजना में 10 करोड़ से ज्यादा स्कूली बच्चों को भोजन वितरित किया जाता है। इंटीग्रेटेड चाइल्ड डेवलपमेंट सर्विसेज योजना के तहत 11 करोड़ बच्चों और महिलाओं को राशन मिल रहा है। इनके अलावा कुछ राज्य भी अपने स्तर पर योजनाएं चला रहे हैं।

कुछ उपाय शॉर्ट टर्म हैं तो कुछ उपाय लॉन्ग टर्म के हैं। देश की बड़ी कुपोषित आबादी को देखते हुए शॉर्ट टर्म उपाय के तौर पर फूड फोर्टिफिकेशन बेहतर कदम है। दीर्घकालिक उपायों में हमें फसल विविधीकरण के साथ स्थानीय फसलों के उत्पादन और खपत को बढ़ावा देना पड़ेगा। डॉ. आनंद के अनुसार, जिस तरह हमने हरित क्रांति के लिए पूरा इकोसिस्टम बनाया था, उसी तरह इसके लिए भी सिस्टम बनाने की जरूरत है। यह इकोसिस्टम कृषि जलवायु क्षेत्र के हिसाब से होना चाहिए।

ओडिशा के जेपोर में एमएस स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन के ट्राइबल एग्रो बायोडाइवर्सिटी सेंटर के डायरेक्टर प्रशांत परीदा फसलों की स्थानीय किस्मों को तरजीह देने की वकालत करते हुए कहते हैं इनमें न्यूट्रिशन वैल्यू भी अधिक होती है। ये किस्में स्थानीय लोगों को खाद्य सुरक्षा भी मुहैया करा रही हैं।

विश्व स्तर पर बढ़ रहा खाद्य और पोषण संकट

भारत तो सिर्फ पोषण की समस्या से जूझ रहा है, लेकिन अनेक देशों के सामने पोषण से पहले खाद्य सुरक्षा का संकट है। हकीकत तो यह है कि दुनिया में इतना अनाज उत्पादन होता है कि हर एक शख्स को पर्याप्त खाना मिल सके। लेकिन, वर्ल्ड फूड प्रोग्राम (WFP) के मुताबिक युद्ध, जलवायु संकट, कोविड-19 के बाद आर्थिक समस्या और खाद्य महंगाई के कारण वर्ष 2023 में 30 करोड़ से ज्यादा लोगों को भोजन की भीषण कमी का सामना करना पड़ा। यही नहीं, बच्चों समेत 4.73 करोड़ लोग भुखमरी के कगार पर पहुंच गए।

एफएओ ने ‘द स्टेट ऑफ फूड सिक्युरिटी एंड न्यूट्रिशन इन द वर्ल्ड 2024’ में बताया है कि 2023 में 233 करोड़ लोगों को पर्याप्त भोजन के लिए लगातार जूझना पड़ा। इनमें से 86.4 करोड़ लोगों के सामने खाद्य असुरक्षा की स्थिति गंभीर थी। यह असुरक्षा ग्रामीण इलाकों में अधिक है। मॉडरेट या भीषण खाद्य असुरक्षा ग्रामीण इलाकों में 31.9%, अर्ध-शहरी इलाकों में 29.9% और शहरों में 25.5% है।

विश्व स्तर पर भूख, खाद्य असुरक्षा और कुपोषण की समस्या हाल में बढ़ी है। इससे वर्ष 2030 तक इन समस्याओं को खत्म करने का सतत विकास का लक्ष्य (एसडीजी) अपने ट्रैक से हट चुका है। 2023 में दुनिया में 71.3 से 75.7 करोड़ लोग यानी विश्व की 8.9 से 9.4 फीसदी आबादी अल्पपोषित थी। कोविड से पहले वर्ष 2019 की तुलना में अल्पपोषितों की संख्या 15.2 करोड़ बढ़ गई है।

  • 75.7 करोड़ लोग दुनिया में अल्पपोषित थे वर्ष 2023 में
  • 15.2 करोड़ बढ़ गई है इनकी संख्या 2019 की तुलना में

अफ्रीका की 20.4% आबादी खाद्य संकट का सामना कर रही है, जबकि कुल संख्या में एशिया आगे है। खाद्य संकट वाले दुनिया के आधे से ज्यादा, 38.45 करोड़ लोग यहीं हैं। अनुमान है कि 2030 तक दुनिया में अल्पपोषित लोगों की संख्या बढ़ कर 58.2 करोड़ हो जाएगी। उस समय खाद्य संकट वाले 53% लोग अफ्रीका में होंगे।

वर्ष 2023 में दुनिया की 28.9% आबादी यानी लगभग 233 करोड़ लोग मॉडरेट या भीषण खाद्य असुरक्षा का सामना कर रहे थे। उन्हें नियमित रूप से खाना नसीब नहीं हो रहा था। भीषण खाद्य असुरक्षा झेलने वाले 2019 में 9.1% लोग थे और 2020 में इनका अनुपात 10.6% हो गया। तब से यह कम नहीं हुआ, बल्कि 2023 में 10.7% हो गया।

एफएओ के अनुसार, कम वजन वाले नवजात शिशुओं का अनुपात अभी 14.7% के आसपास है। इसके साथ कुपोषण के कारण छोटा कद (stunting) और कम वजन (wasting) की समस्या भी 2030 में लक्ष्य के मुकाबले काफी अधिक रहेगी। इन लक्ष्यों को हासिल करने में जितने देश ट्रैक पर है, उनसे कहीं ज्यादा ट्रैक से हट चुके हैं।

खाद्य पदार्थों की बर्बादी रोकना जरूरी

खाद्य सुरक्षा का एक और महत्वपूर्ण पहलू है खाद्य पदार्थों की बर्बादी। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) की मार्च 2024 की फूड वेस्ट इंडेक्स रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2022 में दुनिया में एक लाख करोड़ डॉलर मूल्य का 105 करोड़ टन खाद्य बर्बाद हुआ। यह लोगों के लिए उपलब्ध कुल खाद्य पदार्थ का लगभग 20% है। रिपोर्ट के अनुसार 60% खाद्य पदार्थ घरों में, 28% फूड सर्विसेज स्तर पर और 12% रिटेल स्तर पर बर्बाद हुआ।

  • 105 करोड़ टन खाद्य बर्बाद हुआ 2022 में
  • 60% खाद्य पदार्थ घरों में बर्बाद हुआ
  • 28% खाद्य पदार्थों की बर्बादी सर्विसेज में
  • 12% खाद्य पदार्थ रिटेल स्तर पर नष्ट हुए

सतत विकास लक्ष्य (SDG) 12.3 में वर्ष 2030 तक खाद्य पदार्थों की बर्बादी 50% कम करने का लक्ष्य है, खास तौर से रिटेल और फूड सर्विसेज स्तर पर। लेकिन अनेक देशों में अभी तक इसे ट्रैक करने का सिस्टम ही तैयार नहीं है। खाद्य पदार्थों की बर्बादी 8 से 10 प्रतिशत ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है। यह उड्डयन क्षेत्र से होने वाले उत्सर्जन का पांच गुना है। दुनिया की लगभग एक-तिहाई जमीन पर इनकी खेती होती है जहां जैव-विविधता को भी नुकसान पहुंचता है।

अगर हम इसे 50% भी कम करने में सफल रहे तो खाद्य सुरक्षा के साथ खेती को सस्टेनेबल बनाने में काफी मदद मिलेगी। इससे कृषि क्षेत्र में होने वाला उत्सर्जन भी 10% से 11% कम हो जाएगा। कृषि में ऊर्जा की खपत 25% से 30% कम हो जाएगी। जिन लोगों को अभी पर्याप्त भोजन नहीं मिल रहा है, उन्हें भी पर्याप्त खाना मिलने लगेगा। - डॉ. मनीष आनंद

इसके लिए उपभोक्ता स्तर पर जागरूकता बढ़ाने के साथ टेक्नोलॉजी की भी जरूरत है। जैसे अभी धान में कंबाइन हार्वेस्टर का इस्तेमाल करने पर फसल का नुकसान दो प्रतिशत से तीन प्रतिशत ही रह जाता है। हाथ से कटाई करने पर नुकसान अधिक होता है। भारत में कृषि में मशीनीकरण बहुत कम है। पंजाब जैसे राज्य में तो मशीनीकरण 97% तक है, लेकिन पूर्वी राज्यों में अभी ज्यादातर कटाई हाथ से होती है।

उन्होंने बताया कि टेरी ने मुक्तेश्वर में मिलेट में प्रोडक्ट डेवलपमेंट किया है, फसलों की गुणवत्ता बढ़ाई है। आंगनबाड़ी के बच्चों को इन्हें खिलाकर हम उनमें पोषण का स्तर देख रहे हैं। ऐसे उपायों से पोषण सुरक्षा तो मिलती ही है, मिलेट किसानों को बाजार भी मिल रहा है।

जलवायु परिवर्तन का खाद्य सुरक्षा पर असर

अधिक तापमान, सूखा, बाढ़, असमय बारिश की घटनाएं हाल के वर्षों में तेजी से बढ़ी हैं। वजह है जलवायु परिवर्तन। यह खाद्य सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा बनता जा रहा है। सरकार ने 21 मार्च 2023 को लोकसभा में बताया कि

अनुकूलन के उपाय नहीं अपनाने पर वर्षा सिंचित इलाकों में चावल की उत्पादकता 2050 तक 20% और 2080 तक 47% कम हो जाएगी। गेहूं की उत्पादकता इस अवधि में क्रमशः 19.3% और 40% तथा मक्का (खरीफ) की 18% और 23% घट जाएगी।

गरीबी उन्मूलन पर काम करने वाली वैश्विक संस्था ऑक्सफैम ने एक रिपोर्ट में कहा है कि अगर वातावरण का तापमान बढ़ता रहा और टेक्नोलॉजी में तरक्की नहीं हुई तो एशिया में चावल उत्पादकता वर्ष 1990 की तुलना में 2100 में आधी रह जाएगी। दक्षिण एशिया में गेहूं और मक्के का उत्पादन 30% घट सकता है। इससे इनके दाम बढ़ेंगे।

सस्टेनेबल कृषि है दीर्घकालिक उपाय

उत्तराखंड के हल्द्वानी में किसान नरेंद्र मेहरा का पॉलीहाउस।

खाद्य सुरक्षा के लिए बढ़ते संकट को देखते हुए विशेषज्ञ सस्टेनेबल तरीके से खेती को ही दीर्घकालिक उपाय मानते हैं। डॉ. आनंद कहते हैं, “हमें पारंपरिक फसलों पर ध्यान देना होगा जो सतत कृषि पद्धति से उगाई जाती हैं। इससे पोषण सुरक्षा भी मिलती है। इसके लिए नीतिगत समर्थन तो काफी है। सरकार ने प्राकृतिक खेती मिशन शुरू किया है। जलवायु परिवर्तन को देखते हुए नेशनल मिशन ऑन सस्टेनेबल एग्रीकल्चर भी चल रहा है। लेकिन हमें जमीनी स्तर पर आंकड़ों की जरूरत है।”

सरकार कुछ दिनों पहले शून्य बजट प्राकृतिक खेती (ZBNF) की अवधारणा लेकर आई थी। इसमें रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का प्रयोग नहीं होता है। कोई भी इनपुट सामग्री बाजार से नहीं खरीदी जाती है, इसलिए खर्च शून्य होता है।

सस्टेनेबल खेती में एक बड़ा मुद्दा उत्पादकता का है। कहीं इसके अच्छे नतीजे मिल रहे हैं तो कहीं उत्पादन कम भी हुआ है। सस्टेनेबिलिटी पर काम करने वाली संस्था सीस्टेप ने आंध्र प्रदेश में इस दिशा में काम किया है। इसके रिसर्च साइंटिस्ट डॉ. सुरेश ने जागरण प्राइम को बताया, “जीरो बजट प्राकृतिक खेती और पारंपरिक तरीके से खेती में उपज में बहुत कम अंतर देखा गया है। धान की उपज दोनों में 2.2 टन प्रति एकड़ रही है। मिर्च की 1.2 से 1.5 टन प्रति एकड़ है। दूसरे फसलों में भी पारंपरिक खेती की तुलना में प्राकृतिक खेती में उपज 0.3 से 0.7 टन प्रति एकड़ ज्यादा है।”

लागत के बारे में उनका कहना है, प्राकृतिक खेती में फसल के अनुसार प्रति एकड़ खर्च 3,000 से 22,000 रुपये तक कम आता है। धान के लिए जीरो बजट खेती में लागत लगभग 22,000 रुपये प्रति एकड़ है, जबकि पारंपरिक खेती में लगभग 26,000 रुपये खर्च आता है। मूंगफली में दोनों तरीकों में करीब 20,000 रुपये का अंतर है।

डॉ. सुरेश का दावा है कि कम खर्च और उपज की अधिक कीमत के कारण अलग-अलग फसलों से होने वाली आय 9,000 से 25,000 रुपये तक अधिक हो सकती है। हालांकि कपास और मिर्च में कम आमदनी हुई है।

डॉ. आनंद कहते हैं, “अभी हमें दीर्घकालिक आकलन और डेटा विश्लेषण की जरूरत है। एक-दो साल के आंकड़ों के आधार पर विश्लेषण करना ठीक नहीं होगा।” इसके लिए टारगेटेड अप्रोच की जरूरत है। हमें सबसे पहले देखना होगा कि मिट्टी में किस चीज की कमी है। इसरो ने इससे संबंधित काफी आंकड़े दिए हैं। हमारी करीब 30% भूमि का क्षरण हो चुका है। पश्चिमी राज्यों में हरित क्रांति के कारण भूमि का क्षरण अधिक हुआ है, पूर्वी राज्यों में मिट्टी अपेक्षाकृत बेहतर है। इसलिए पूर्वी राज्यों में प्राकृतिक खेती के नतीजे जल्दी मिल सकते हैं।

वे बताते हैं, पूर्वी भारत को भविष्य का फूड ग्रेन क्षेत्र कहा जा रहा है। नीतियों में भी पूर्वी भारत में हरित क्रांति लाने की बात कही जा रही है। खतरा यह है कि अगर पंजाब और पश्चिमी राज्यों के तरीके यहां भी अपनाए गए तो यहां भी मिट्टी का क्षरण होने लगेगा। पूर्वी राज्यों में सस्टेनेबल खेती की अच्छी संभावनाएं हैं और इसके नतीजे भी बेहतर मिले हैं।

डॉ. आनंद के अनुसार, अभी कुछ समस्या फसल चक्र और फसल तैयार होने की अवधि को लेकर आ रही है। अगर किसी वैरायटी को तैयार होने में अधिक समय लगता है तो उससे अगली फसल प्रभावित होती है। पराली जलाने की समस्या अधिक अवधि वाली फसल के कारण ही हुई है। इसलिए अब कम अवधि वाली वैरायटी और डायरेक्ट सीडिंग जैसे उपायों पर फोकस किया जा रहा है।

स्थानीय किस्मों में जलवायु-रोधी और कीट-रोधी क्षमता

डॉ. आनंद कहते हैं, “हमें उत्पादन और खपत के बीच सामंजस्य बनाने की जरूरत है। हमें देखना होगा कि लोकलाइजेशन कैसे किया जाए। देश के अलग-अलग इलाकों में अलग तरह की फसलें होती हैं। उस हिसाब से खानपान का चलन भी अलग है। इसमें बदलाव से ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन भी बढ़ा है। यह दीर्घकाल में सस्टेनेबल नहीं हो सकता। इसलिए स्थानीय फसलों के उत्पादन और खपत को बढ़ावा देने की जरूरत है। इससे खाद्य सुरक्षा के साथ पोषण सुरक्षा भी बढ़ेगी।”

एमएस स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन के प्रशांत परीदा के अनुसार, “जाने-माने कृषि वैज्ञानिक डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन ने 1954 में स्थानीय किस्मों पर अध्ययन किया था। यहां धान की 1745 स्थानीय किस्मों की पहचान की गई थी। चार दशक में इनकी संख्या घट कर 350 रह गई।” फाउंडेशन कोरापुट क्षेत्र में खास तौर से धान, मिलेट, दालों और कुछ सब्जियों में जैव-विविधता बचाने पर काम कर रहा है। इस इलाके को जेपोर ट्रैक (Jeypore Tract) कहते हैं।

वे बताते हैं, “हमने इस केंद्र में धान की अनेक स्थानीय किस्मों की खासियत जानने के लिए उनकी मॉलिक्यूलर और न्यूट्रिशनल प्रोफाइलिंग की। हमने पाया कि इनमें अनेक किस्में कीट-रोधी और रोग-रोधी हैं। कुछ किस्मों में सूखा सहने की क्षमता है। आज हम जलवायु परिवर्तन का सामना कर रहे हैं और यहां की अनेक किस्में इसे सहने में सक्षम हैं। इन फसलों के साथ हम जलवायु परिवर्तन के अनुकूल खेती कर सकते हैं। मिलेट के मामले में भी ऐसा ही है।”

इन पारंपरिक, स्थानीय किस्मों की मदद से हम सस्टेनेबल खेती को अपना सकते हैं। अधिक यील्ड वाली हाइब्रिड किस्मों से खेती को सस्टेनेबल बनाना आसान नहीं होगा। जैविक या प्राकृतिक खेती इन स्थानीय किस्मों से ही संभव है। इनमें कम इनपुट की जरूरत पड़ती है।

परीदा के अनुसार, इनमें रासायनिक उर्वरकों या कीटनाशकों का भी प्रयोग नहीं होता। अगर आप इन किस्मों में केमिकल का इस्तेमाल करेंगे तो इनका असली स्वाद खत्म हो जाएगा। उदाहरण के लिए काला जीरा किस्म की कोई एरोमेटिक (सुगंधित) वैरायटी है तो यूरिया डालने पर उसकी सुगंध खत्म हो सकती है। इनमें रासायनिक उर्वरक नहीं डालने का एक और कारण है। उन्हें डालने पर पौधे तेजी से बड़े होंगे तो उनके गिरने की आशंका रहेगी। इससे फसल को नुकसान हो सकता है।

उत्तराखंड के हल्द्वानी के किसान नरेंद्र सिंह मेहरा वर्षों से प्राकृतिक खेती करते आ रहे हैं। उनका भी दावा है कि विभिन्न फसलों में उत्पादकता कम नहीं हुई है। वे इनपुट के तौर पर गोबर, गोमूत्र, नीम जैसे प्राकृतिक संसाधनों का ही प्रयोग करते हैं।

मडुआ (मिलेट) की प्राकृतिक खेती।

हालांकि डॉ. आनंद के अनुसार, भारत में जितने बड़े पैमाने पर खेती होती है, उस लिहाज से बायो इनपुट की उपलब्धता की समस्या खड़ी हो सकती है। अगर हम गोबर खाद की ही बात करें तो उसे उपलब्ध कराने के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर की जरूरत है।

हाल के दशकों में खेती में रसायनों का इस्तेमाल कितना बढ़ा है, इसका अंदाजा एफएओ के स्टैटिस्टिकल इयर बुक 2023 के एक आंकड़े से चलता है। इसके मुताबिक, वर्ष 2000 से 2021 तक दुनिया में कीटनाशकों का इस्तेमाल 62% बढ़ा है। इस दौरान प्रमुख फसलों के रकबे में 24% (150 करोड़ हेक्टेयर) की ही वृद्धि हुई है और लगभग 50% क्षेत्र में अनाज और 23% में तिलहन की खेती होती है।

अच्छी बात यह है कि खेती को सस्टेनेबल बनाने के लिए ऑर्गेनिक खेती पूरी दुनिया में बढ़ रही है। एफएओ इयर बुक के मुताबिक वर्ष 2021 में 7.7 करोड़ हेक्टेयर में ऑर्गेनिक खेती हो रही थी। इसमें ऑस्ट्रेलिया का हिस्सा सबसे अधिक 46% था। दूसरे स्थान पर अर्जेंटीना (5%) था। दुनिया की 3% ऑर्गेनिक खेती भारत में हो रही है। अमेरिका का अनुपात भी इतना ही है। एफएओ के अनुसार एक-तिहाई ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन कृषि से होता है। वर्ष 2021 में कृषि खाद्य प्रणाली से 16.2 अरब टन कार्बन डाइ ऑक्साइड के बराबर ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन हुआ। दो दशक में इसमें 10% वृद्धि हुई।

विविधीकरण और आरएंडडी पर फोकस जरूरी

सबसे बड़ी चुनौती जलवायु परिवर्तन के हिसाब से बदलाव करना और उत्पादकता बढ़ाना है। जिस तरह जलवायु परिवर्तन बड़ी समस्या बनता जा रहा है, ऐसे में कृषि में विविधीकरण लाभदायक हो सकता है। डॉ. आनंद के अनुसार, पशुपालन को भी शामिल करते हुए अगर हम एकीकृत कृषि प्रणाली अपनाएं तो वह फायदेमंद हो सकता है। इसके मॉडल तो हैं, लेकिन उन्हें बड़े स्तर पर अपनाने की जरूरत है।

आंध्र प्रदेश में जीरो बजट प्राकृतिक खेती के सकारात्मक परिणाम निकले हैं।

वे बताते हैं, “हमें दूसरी फसलों में भी रिसर्च एंड डेवलपमेंट में निवेश बढ़ाने की जरूरत है। उदाहरण के लिए, मैंने पंजाब में देखा कि वहां सोयाबीन जैसी वैकल्पिक फसल के लिए एक या दो वैज्ञानिक ही काम कर रहे हैं। फंड की कमी भी इसमें आड़े आती है। हमें जलवायु रोधी और वैकल्पिक फसलों पर रिसर्च और डेवलपमेंट में निवेश बढ़ाना होगा।”

यह सच है कि हम प्रकृति का अत्यधिक दोहन कर रहे हैं और इकोसिस्टम को नष्ट कर रहे हैं। हमारा अब तक का फोकस उत्पादकता पर रहा है। यह खाद्य सुरक्षा और किसानों के लाभ के लिए जरूरी है। लेकिन हमें यह भी देखना होगा कि प्राकृतिक संसाधनों को कैसे वैल्यू दिया जा सके। दीर्घकाल में इसी तरीके से हम खाद्य सुरक्षा बरकरार रख सकते हैं।

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