Kashmir: 74 साल में पहली बार पाकिस्तान की आवाज बनने से अलगाववादियों ने भी की तौबा-तौबा
सहराई अब इस दुनिया में नहीं हैं उनकी कोरोना से मौत हो चुकी है और गिलानी बिस्तर पर पड़े हैं। वह डिमेंशिया का भी शिकार हो चुके हैं। उनके करीबियों की मानें तो वह बिस्तर से नहीं उठ सकते और किसी भी अलगाववादी नेता से नहीं मिले हैं।
By Rahul SharmaEdited By: Updated: Sat, 12 Jun 2021 02:38 PM (IST)
श्रीनगर, नवीन नवाज: कश्मीर में पाकिस्तान की आवाज बनने से अलगाववादी भी तौबा-तौबा करने लगे हैं। बीते 74 वर्ष में ऐसा पहली बार हो रहा है कि कश्मीर में पाकिस्तान के एजेंडे की कोई वकालत नहीं कर रहा है। हुर्रियत कांफ्रेंस भी तक पूरी तरह निष्क्रिय हो चुकी है। यहां तक कि पाकिस्तान को सैयद अली शाह गिलानी का कोई उत्तराधिकारी खोजे नहीं मिल रहा है। गिलानी के बेटे भी अपने पिता की अलगाववादी सियासत की विरासत से बचते फिर रहे हैं।
जम्मू कश्मीर में 1989 के बाद से हुर्रियत कांफ्रेंस पाकिस्तान के एजेंडे को आगे बढ़ाने लगी थी। कट्टरपंथी सैयद अली शाह गिलानी कश्मीर में पाकिस्तान की बोली बोलते रहे हैं। पाकिस्तान के सत्ता तंत्र से लेकर आइएसआइ और विभिन्न जिहादी संगठन भी कश्मीर में गिलानी के अलावा किसी अन्य अलगाववादी नेता को ज्यादा तरजीह नहीं देते थे। गिलानी व उनके समर्थकों के सिर पर हमेशा पाकिस्तान का हाथ रहा है।
कश्मीर में हुर्रियत कांफ्रेंस की गतिविधियां 2016 के अंत में कुछ धीमी पड़ती नजर आई थीं। यह वह समय था जब गिलानी का स्वास्थ्य पूरी तरह उनका साथ छोड़ता नजर आया। इसके साथ ही पाकिस्तान समर्थकों की आवाज भी मंद पडऩे लगी। इस दौरान पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आइएसआइ ने हुर्रियत के उदारवादी खेमे में शामिल कई अलगाववादी नेताओं के साथ संपर्क साध उन्हें भारत विरोधी एजेंडे पर सक्रिय करने का प्रयास किया, लेकिन सफलता नहीं मिली। इस बीच, गिलानी ने बीते साल पाकिस्तान पर कश्मीर नीतियों में बदलाव का आरोप लगाया और खुद को हुर्रियत कांफ्रेंस से पूरी तरह अलग कर लिया।
इससे पहले उन्होंने तहरी-ए-हुर्रियत की कमान अपनेे विश्वस्त मोहम्मद अशरफ सहराई को सौंप दी थी। गिलानी द्वारा खुद को हुर्रियत से अलग किए जाने पर सहराई को कट्टरपंथी हुर्रियत का कार्यवाहक अध्यक्ष बनाया गया था। अलबत्ता, सहराई अब इस दुनिया में नहीं हैं उनकी कोरोना से मौत हो चुकी है और गिलानी बिस्तर पर पड़े हैं। वह डिमेंशिया का भी शिकार हो चुके हैं। उनके करीबियों की मानें तो वह बिस्तर से नहीं उठ सकते और किसी भी अलगाववादी नेता से नहीं मिले हैं। बयानबाजी भी बंद कर चुके हैं।
बेटे भी विरासत संभालने से बच रहे: मसरत आलम, डा. कासिम फख्तू और आसिया अंद्राबी जैसे अलगाववादी नेता गिलानी और सहराई के उत्तराधिकारी हो सकते थे, क्योंकि यह पाकिस्तान के एजेडे के समर्थक हैं। यह सभी जेल में हैं। कासिम फख्तू आजीवन कारावास काट रहे हैं, आसिया एक महिला है और मसरत के भी हाल फिलहाल बाहर आने की उम्मीद नहीं है। गिलानी के बेटे भी एनआइए के डर से अपने पिता की अलगाववादी सियासत की विरासत से बचते फिर रहे हैं।
अलगाववादी खेमे में पहली बार ऐसी खामोशी: कश्मीर मामलों के विशेषज्ञ मुख्तार अहमद बाबा ने कहा कि पहली बार कश्मीर के अलगाववादी खेमे में ऐसी खामोशी है। वर्ष 2017 के बाद से जिस तरह से केंद्र सरकार ने अलगाववादी नेताओं की नकेल कसी है, उसके बाद से कोई भी तिहाड़ जेल जाने को तैयार नहीं है। उदारवादी हुर्रियत कांफ्रेंस के चेयरमैन मीरवाइज मौलवी उमर फारूक समेत बिलाल गनी लोन, मुख्तार वाजा, प्रो. अब्दुल गनी, आगा सैयद हसन बडग़ाम, मौलाना इफ्तिखार हुसैन अंसारी, गुलाम नबी सुमजी, जीएम हुब्बी समेत कई अलगाववादी नेता इस समय कश्मीर में ही हैं, लेकिन कोई भी नई दिल्ली के खिलाफ आवाज उठाना तो दूर अब बिजली-पानी जैसे मुद्दों पर भी बोलने से बचता है। एडवोकेट मियां कयूम जो हर जगह कश्मीर में पाकिस्तानी एजेंडे की वकालत करते थे, तिहाड़ से लौटने के बाद पूरी तरह शांत बैठे हुए हैं। शकील बख्शी, शौकत बख्शी, जेकेएलएफ के यासीन मलिक, डीपीएम के फिरदौस शाह, शाहिद उल इस्लाम, अल्ताफ फंतोश, शब्बीर शाह, नईम खान समेत एक दर्जन से ज्यादा अलगाववादी नेता तिहाड़ में हैं। इनके बाहर आने की उम्मीद मौजूदा हालात में न के बराबर है। कई की संपत्ति जब्त हो रही है।
चुपचाप जख्म सहला रहा अलगवावादी खेमा: कश्मीर के वरिष्ठ पत्रकार और विशेषज्ञ अहमद अली फैयाज ने कहा कि केंद्र सरकार ने अनुच्छेद 370 हटाने के बाद जिस तरह से अलगाववादियों पर चोट की है, उसके बाद से वह चुपचाप अपने जख्म सहला रहे हैं। पहली बार केंद्र सरकार ने कश्मीर में संदेश दिया है कि वह बनाना रिपब्लिक नहीं है। इसलिए अब कोई भी कश्मीर में पाकिस्तान की आवाज नहीं बनना चाहता। जब कश्मीर में कोई पाकिस्तान का नाम नहीं लेगा तो पाकिस्तान किस आधार पर कश्मीरियों की बात करेगा। हुर्रियत को फिर से खड़ी करने की आइएसआइ की कोशिश नाकाम रही। हम यही कह सकते हैं कि आइएसआइ को अब गिलानी का उत्तराधिकारी नहीं मिल रहा है। इसलिए वह अलगाववादी खेमे में एक नई पौध तैयार करने का प्रयास करेगी।
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