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Jammu Kashmir News: जमात-ए-इस्लामी पर चुनावी प्रतिबंध जारी, अगले पांच साल तक नहीं लड़ सकेगी चुनाव

जमात-ए-इस्लामी पर चुनाव लड़ने पर लगे प्रतिबंध को दिल्ली स्थित गैर कानूनी गतिविधियों की रोकथाम ट्रिब्यूनल ने सही ठहराया है। इस फैसले के बाद अगले पांच वर्षों तक जमात चुनाव नहीं लड़ सकेगी। हालांकि कुछ समय पहले तक यह उम्मीद जताई जा रही थी कि जमात पर लगा प्रतिबंध हट जाएगा और वह जम्मू-कश्मीर में चुनावी राजनीति में वापसी करेगी।

By naveen sharma Edited By: Deepak Saxena Updated: Sat, 24 Aug 2024 08:16 PM (IST)
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जमात-ए-इस्लामी पर चुनावी प्रतिबंध जारी (फाइल फोटो)।
नवीन नवाज, श्रीनगर। इस बार हो रहे विधानसभा चुनाव में जमाते इस्लामी के 37 वर्ष बाद एक बार फिर भारतीय संविधान की शपथ लेकर चुनावी प्रक्रिया में शामिल होने की अटकलों पर अब पूर्ण विराम लग गया है। हाल ही में जमाते इस्लामी पर प्रतिबंध को दिल्ली स्थित गैर कानूनी गतिविधियों की रोकथाम ट्रिब्यूनल ने सही ठहराया है। ऐसे में फिलहाल अगले पांच वर्ष तक उस पर प्रतिबंध जारी रहेगा।

हालांकि, चंद दिनों पहले तक इस बात की पूरी उम्मीद जताई जा रही थी कि कश्मीर में आतंकवाद और अलगाववाद की जननी कहलाने वाली जमाते इस्लामी पर लगा प्रतिबंध हट जाएगा, जिसके बाद जम्मू कश्मीर में बड़ा राजनीतिक बदलाव देखने को मिलेगा। यह उम्मीद यूं ही नहीं बनी थी।

इस साल जुलाई माह में जमाते इस्लामी के नेता अब्दुल हमीद गनई उर्फ हमीद फैयाज ने कहा था कि गुलाम कादिर वानी के नेतृत्व में हमारी एक समिति विधानसभा चुनाव में शामिल होने के मुद्दे पर केंद्र के साथ बातचीत कर रही है। हाल ही में संपन्न हुए लोकसभा चुनाव में बड़ी संख्या में जमाते इस्लामी के नेताओं-कार्यकर्ताओं ने वोट डाले थे।

जमाते इस्लामी पर केंद्र सरकार ने फरवरी 2014 में पांच वर्ष के लिए प्रतिबंध लगाया था। इस प्रतिबंध को इसी वर्ष फरवरी में पुन: पांच वर्ष के लिए बढ़ाया गया है। कश्मीर मामलों की जानकार अच्छी तरह जानते हैं कि नेकां और जमाते इस्लामी का ही कश्मीर के हर गली मोहल्ले में कैडर है। आज से तीन दशक पहले तक शायद ही कोई ऐसा परिवार होगा, जिसका संबंध जमाते इस्लामी या फिर नेकां न हो। दोनों एक-दूसरे के धुर राजनीतिक विरोधी रहे हैं।

जमाते इस्लामी 1987 के चुनाव तक जम्मू कश्मीर की चुनावी राजनीति का हिस्सा रही और उसके बाद कश्मीर में चुनाव बहिष्कार के अभियान की यही सूत्रधार भी रही। कश्मीर में सभी आतंकी और अलगाववादी संगठनों के कैडर का लगभग 95 प्रतिशत जमात की पृष्ठभूमि से जुड़ा हुआ है। आल पार्टी हुर्रियत कांफ्रेंस में सैयद अली शाह गिलानी जमाते इस्लामी के प्रतिनिधि के तौर पर ही शामिल थे।

जमात के सहयोग से ही कश्मीर में बड़ी पीडीपी हुई मजबूत

कश्मीर मामलों के जानकार बिलाल बशीर ने कहा कि जमाते इस्लामी बेशक चुनाव में भाग नहीं ले, लेकिन उसका कैडर दक्षिण कश्मीर में किसी भी प्रत्याशी का भाग्य बदल सकता है। उन्होंने कहा कि पीडीपी इसके सहयोग से ही कश्मीर में एक बड़ी राजनीतिक ताकत बन पाई। वर्ष 2008 के चुनाव में कई जगहों पर जमात ने पीडीपी का साथ नहीं दिया, जिससे वह सत्ताच्युत हो गई।

वर्ष 2014 में जमात के प्रभाव वाले इलाकों में उसका वोट बैंक फिर बना और वह सत्ता में लौटी, लेकिन वर्ष 2019 और 2024 के लोकसभा चुनाव में उसकी हार का कारण भी कहीं न कहीं जमात कैडर की नाराजगी ही रही। पीडीपी और अपनी पार्टी ने जमाते इस्लामी के कैडर को अपने साथ जोड़ने के लिए कई बार जमात की पृष्ठभूमि वाले नेताओं के साथ बैठक की।

1972 के विस चुनाव में जीते थे जमात के पांच प्रत्याशी

जम्मू कश्मीर में वर्ष 1972 में हुए विधानसभा चुनाव में जमाते इस्लामी के 22 में से पांच, 1977 के विधानसभा चुनाव में 19 में एक प्रत्याशी ने जीत दर्ज की थी। वहीं, वर्ष 1983 के चुनाव में इसने 26 उम्मीदवार मैदान में उतारे और सभी हार गए। अलबत्ता, 1987 में मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट के बैनर तले कश्मीर में सभी प्रमुख संगठनों ने नेकां-कांग्रेस गठजोड़ के खिलाफ अपने उम्मीदवार उतारे थे। तब इस फ्रंट के सिर्फ चार उम्मीदवार जीते थे और यह सभी जमाते इस्लामी से संबंधित थे। इनमें से तीन दक्षिण कश्मीर से ही जीते थे।

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