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खुद को महाराणा प्रताप के वंशज बताते हैं यहां के कखेरी, गुमनाम होता जा रहा लकड़ी का कंघा बनाने का इनका कौशल

लकड़ी के कंघों की शहरों में काफी अधिक मांग है। लेकिन गांव में इसके इन्‍हें सिर्फ बीस या तीस रुपये ही मिलते हैं। ये लोग खुद को महाराणा प्रताप का वशंज और राजस्‍थान का मूल निवासी बताते हैं। जो मुुगल शासकों के डर से यहां चले आए थे।

By Julqar NayanEdited By: Arijita SenUpdated: Thu, 08 Dec 2022 05:22 PM (IST)
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यहां रहने वाले कघेरी खुद को महाराणा प्रताप के वंशज
जुलकर नैन, चतरा। कखेरियों की हस्तकला गुमनामी के भंवर में है। उनके हाथों के निर्मित लकड़ी की कंघी गांवों में कौड़ी के मोल बिकते हैं। शहरों में मांग के साथ दाम अधिक है। लेकिन वहां तक उनकी पहुंच नहीं है। यह कहानी उन परिवारों की है, जो स्वयं को महाराणा प्रताप सिंह का वंशज और राजस्थान का मूल निवासी बताते हैं।

साढ़े तीन सौ साल पूर्व मुगल शासक औरंगजेब के आतंक से त्रस्त होकर राजस्थान से पलायन कर ये यहां आए थे। ये झारखंड और बिहार की सीमा पर स्थित चतरा जिले के प्रतापपुर प्रखंड के जंगलों में शरण लिए थे।तत्कालीन कुंदा राजा ने उन्हें बसाया था। जंगलों में जिनके साथ रहें, उन्हीं से हस्तकला का कौशल सिखा और यही उनका जीविकोपार्जन का आधार बन गया और इन्‍हें कखेरी जाति का नाम मिला।

शहरों में लकड़ी के कंघे का डिमांड इन तक नहीं पहुंच पाता

उनकी कारीगरी आज भी जीवंत है। प्रतापपुर प्रखंड मुख्यालय में उनका एक छोटा सा टोला है। टोले में उनकी आबादी पांच-छह घरों की है। लकड़ी की कंघी बालों के लिए काफी उपयोगी माना जाता है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है। यही कारण है कि शहरों में उसकी मांग तेजी से बढ़ रही है। एक का मूल्य दो सौ से तीन सौ रुपए तक है। परंतु गांव में बीस से तीस रुपये तक ही सीमित है। शहरों का डिमांड उन तक नहीं पहुंच पाता है। यही कारण है कि कंघी बनाने वालों की जिंदगी फटेहाल है।

प्रतापपुर के जंगलाें में है इनका बसेरा

ईश्वरी सिंह कहते हैं कि मुगल शासक औरंगजेब के आतंक से उनके पूर्वज राजस्थान छोड़कर पलायन कर गए थे। इसके बाद इस समुदाय के लोग प्रतापपुर के जंगलों में शरण लिए और यही के होकर रह गए। विलास सिंह कहते हैं कि दस-बारह पुस्त से वे यहां रह रहे हैं। सूचित सिंह कहते है कि चूंकि जिस वक्त वे पलायन कर यहां आए थे। उस वक्त राजा ने जिनके साथ शरण दिलाया था, वे लकड़ी निर्मित सामान बनाने थे। यही उनकी पुश्तैनी पेशा बन गया। हालांकि, बच्चे इस पेशे में अब नहीं आ रहे हैं।

आर्थिक तंगी के बावजूद बरकरार है राजपूती ठाट

पूर्व विधायक जनार्दन पासवान कहते हैं कि वे आर्थिक दृष्टिकोण से गरीब जरूर हैं, लेकिन मान-सम्मान बाबू साहब जैसा है। गांव के ही प्रतिष्ठित व्यक्तियों में शुमार गणेश प्रसाद कहते हैं कि तीन-साढे तीन सौ साल से यह पूरा परिवार यहां रह रहा है। गांव के बड़े-बुजुर्ग उन्हें महाराणा प्रताप सिंह के वंशज और सिसोदिया जाति से संबंद्ध बताते हैं।

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