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कंगाली की कगार पर नौकरी की आस में धरने पर बैठे झमाडा आश्रित, गुजारे के लिए बेचनी पड़ रही घर की चीजें

अनिश्चितकालीन धरने पर बैठे झारखंड खनिज क्षेत्र विकास प्राधिकार (झमाडा) के कर्मचारियों के आश्रितों का अब हाल बेहाल है। स्थिति अब ऐसी हो गई है कि अपना व अपने परिवार का गुजारा चलाने के लिए इन्‍हें घर की चीजें बेचनी पड़ रही है।

By Jagran NewsEdited By: Arijita SenUpdated: Thu, 09 Feb 2023 10:12 AM (IST)
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धरने पर बैठे झमाडा कर्मचारियों के कुछ आश्रितों की तस्‍वीर
आशीष सिंह, धनबाद। नौकरी की आस में 352 दिन से सड़क पर तंबू लगाकर झमाडा कर्मचारियों के आश्रित धरना दे रहे हैं। अब तो झमाडा एमडी पर जानलेवा हमला करने और सरकारी कार्य में बाधा डालने की प्राथमिकी तक हो गई है। नौकरी की चाह में धरने पर बैठे आश्रितों की आर्थिक स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। घर चलाने के लिए कोई पत्नी के गहने बेच रहा है, तो किसी ने अपनी दुधारू गाय तक बेच दी है। एक आश्रित ने तो अपनी साइकिल तक गिरवी रख दी है। कई एक साल से बच्चों की फीस तक नहीं भर पाए है, नतीजा यह निकला कि निजी स्कूल में अपने बच्चों को पढ़ाने की आस छोड़ सरकारी स्कूल में दाखिला दिलाना पड़ गया। सारी बचत खत्म हो चुकी है। अब तो घर चलाने के लिए दुकानदारों ने उधार का राशन भी देना बंद कर दिया है।

कंगाल होने के कगार पर धरने पर बैठे लोग

अनिश्चितकालीन धरने पर बैठे झमाडा के आश्रित अब कंगाल होने के कगार पर हैं। 352 दिन के आंदोलन में अब तक दो लाख रुपये खर्च हो चुका है। वैसे तो 108 आश्रितों की अनुकंपा पर नौकरी का सवाल है, लेकिन हर दिन धरने पर बैठे 35 आंदोलनकारी यहीं सड़क पर उठना, बैठना, सोना, खाना बनाना कर रहे हैं।

आंदोलन में अब तक खर्च तीन लाख से अधिक

22 फरवरी 2022 से नौकरी की मांग को लेकर अनिश्चितकालीन धरने पर बैठे झमाडा के आश्रितों ने टेंट का किराया, 35 से 40 लोगों के लिए प्रतिदिन भोजन, भोजन बनाने के लिए गैस सिलेंडर, बिस्तर, चौकी, आंदोलन के लिए होर्डिंग, बैनर और विभागीय कागजात पर तीन लाख से अधिक खर्च कर दिए हैं। अकेले टेंट का किराया ही 80 हजार रुपये तक बैठ चुका है।

आश्रितों का कहना है कि आंदोलन के सिवाय दूसरा कोई रास्ता नहीं है।आंदोलन काफी आगे बढ़ चुका है, न खुदा मिला और न विसाल-ए-सनम, नौकरी-व्यापार सब छूट गया। अब खोने के लिए कुछ भी नहीं बचा है। अब नौकरी मिलेगी या फिर मौत। नियोजन देने के मामले में झमाडा प्रबंधन से कोई पहल नहीं हो रही है।

पत्नी के गहने बेच बच्चे का सरकारी स्‍कूल में कराया एडमिशन

अनिश्चितकालीन धरने पर बैठे अरविंदर कुमार ने बताया उनका सपना था कि बेटा अच्छे स्कूल में पढ़े। हमारे परिवार का नाम रोशन करे। झमाडा में नौकरी की आस में सब गवां दिया। जमा पूंजी खत्म हो गई है। पत्नी के गहने तक बेचने पड़ गए। बच्चे को प्राइवेट स्कूल से निकालकर सरकारी स्कूल में दाखिला करा दिया। हमारी मजबूरी तो कोई देखता ही नहीं।

प्राइवेट नौकरी छोड़ी, पत्नी के गहने बेचे

अमित कुमार की स्थिति भी अरविंद जैसी ही है। झमाडा में नौकरी की उम्मीद में धरने पर बैठे अमित की आर्थिक स्थिति काफी खराब हो चुकी है। प्राइवेट नौकरी छूट गई। घर का खर्च चलाने के लिए पत्नी के गहने बेच डाले। सारी जमा पूंजी खत्म हो चुकी है। अमित चिंतित हैं कि इतने बड़े आंदोलन के बावजूद अगर अनुकंपा पर नौकरी नहीं मिली तो क्या करेंगे, परिवार का पेट कैसे पालेंगे।

खर्च चलाने के लिए बेच दी गाय

प्रेमचंद भी इस आंदोलन से पीछे हटने को तैयार नहीं। परिवार और धरना प्रदर्शन का खर्च चलाने के लिए घर की संपत्ति तक बेचनी पड़ गई। पैसे की कमी आयी तो घर का खर्च को चलाने के लिए अपनी गाय बेच दी। कहते हैं कि लड़ाई काफी आगे पहुंच चुकी है। अब वापस नहीं लौट सकते। लड़ाई आर या पार की होगी। नौकरी लेकर रहेंगे।

दुलाल ने बेच दी बाइक

दुलाल कोरंगा लगभग एक वर्ष से धरने पर बैठे हैं और बैठे-बैठे उन्‍होंने अपनी बाइक बेच दी। बताया कि उनके पूरे परिवार का गुजारा छोटा भाई बड़ी मुश्किल से कर पा रहा है। वह एक निजी टेलीकाम कंपनी में कार्यरत है। मात्र छह हजार रुपये मासिक वेतन मिलता है। इतने में ही परिवार के छह सदस्यों का गुजारा चल रहा है। उन्होंने बताया कि वह भी कंपनी में नौकरी कर रहे थे। कुछ महीने पहले ही नौकरी छोड़कर धरने पर बैठे हैं। काम करने के लिए जिस दो पहिया वाहन का सहारा था, वह भी बेच चुके हैं।

जिस साइकिल से जाते थे मजदूरी करने वही बेच दी

उमाकांत मंडल अपने परिवार का खर्च चलाने और धरने का खर्च उठाने के लिए अपनी साइकिल और घड़ी के साथ ही टीवी भी बेच चुके हैं। वह दिहाड़ी मजदूरी करते हैं। जिस साइकिल से कई किलोमीटर मजदूरी करने जाते थे, अब वह साथ नहीं है। पत्नी भी आंदोलन में है तो टीवी का भी सौदा कर डाला।

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