जानें-कोयला क्षेत्र में दुर्गा पूजा का कैसे बढ़ा प्रचलन, यहां के मूलवासियों को इतिहासकारों ने कब माना आर्य? Dhanbad News
झरिया राजग्राउंड में मीनाबाजार लगता था। चिडिय़ाघर सर्कस वाले भी आते थे। उन दिनों का ग्रेट रोमन सर्कस भी प्राय झरिया राज ग्राउण्ड में आता था।
By MritunjayEdited By: Updated: Sat, 05 Oct 2019 07:36 AM (IST)
धनबाद [ बनखंडी मिश्र ]। कोयला क्षेत्र के मूलवासियोंं को, इतिहासकारों ने बहुत मुश्किल से आर्य माना है। फलत:, उनके बीच 'सप्तशती' का महत्व प्राय: नगण्य रहा। लेकिन, दूसरी ओर, खून-पसीना बहाकर धरती की छाती को फाड़कर कोयला निकालने का काम तो उन्होंने ही किया। हां, बुद्धिजीवी आर्यों ने उन्हें निर्देश दिए, भोजन भत्ता या मजदूरी भी। छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश का एक भाग था और अब एक स्वतंत्र राज्य है। वहां के निवासी अधिक से अधिक संख्या में मजदूरी करते रहे हैं। आज कोल इंडिया बन जाने के बाद, बिलासपुर क्षेत्र में एक अलग क्षेत्रीय मुख्यालय जबलपुर में बनाया गया है।
राष्ट्रीयकरण के पूर्व, उस क्षेत्र के मजदूर झरिया क्षेत्र में छाए हुए थे। होली और दुर्गापूजा में उनका सांस्कृतिक उत्साह देखने के लायक होता था। 1956 से पूर्व धनबाद मानभूम का अंग था, जो बांग्लाभाषी क्षेत्र था। इसलिए यहां बांग्ला संस्कृति का प्रभाव अधिक था। इसलिए, दुर्गापूजा मनाने का प्रचलन यहां निरंतर तेजी से बढ़ता गया। वैसे, झरिया में 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में राजा शिव प्रसाद सिंह ने इस पूजा की शुरूआत की थी। इस पूजा में आज भी राज परिवार के लोग ही पूजन का शुभारंभ करते हैं।
यह बात भारतीय इतिहास के प्रथम स्वाधीनता संग्राम (1857) से पहले की है, जब राजा संग्राम सिंह ने झरिया राज की स्थापना की थी। संग्राम सिंह ने, वर्तमान के बकरीहाट क्षेत्र में अपनी राजबाड़ी बसायी थी। राजा का महल वास्तुकला का अनुपम उदाहरण था। राजा संग्राम सिंह ने अपने आशियाने को बड़ी शिद्दत से सजवाया था। राजा का रण-कौशल व राजमहल की भव्यता दूर-दूर तक चर्चित थी। अपनी इसी राजबाड़ी के निकट उन्होंने अपनी कुलदेवी की प्राण-प्रतिष्ठा की थी, जिनकी पूजा पूरा राजपरिवार बड़ी तन्मयता से किया करता था। राजा संग्राम सिंह की मृत्यु के उपरांत राजा दुर्गाप्रसाद ने राज-काज संभाला और बखूबी शासन चलाया। राजा दुर्गाप्रसाद सिंह के बाद शिवप्रसाद सिंह ने राजगद्दी संभाली।
राजा शिवप्रसाद सिंह ने अपने राजमहल के विशाल परिसर में मंदिर की स्थापना की और आद्य दुर्गा पूजा का शुभारंभ किया। चूंकि, पूजा की शुरुआत राजा ने की थी, इसलिए पूजोत्सव की शोभा एवं रंग-ढंग ऊंचे दर्जे का हुआ करता था। फलत:, राजागढ़ की दुर्गापूजा पूरे झरियावासियों के लिए विशेष आकर्षण का विषय होता था। राजा ने जनता की आकांक्षाओं की कद्र करते हुए अपने प्रासाद-परिसर में होने वाली पूजा को सार्वजनिक बना दिया। अब तो हर बार दुर्गापूजा के दिनों में पूरे कोयला क्षेत्र की जनता इस पूजा को देखने के लिए उमड़ पड़ती थी। धीरे-धीरे राजागढ़ की दुर्गा पूजा प्रसिद्धि के चरम पर पहुंचने लगी।
संधिपूजा से लेकर शस्त्रपूजन तक, राजा द्वारा ही प्रारंभ किया जाता था। राजा अपने राजमहल से निकलकर बग्घी वाली गाड़ी पर सवार होते थे। इसके बाद पूरे लाव-लश्कर एवं ठाठ-बाट के साथ वे राजागढ़ की यात्रा किया करते थे। इस दौरान राजा को देखने व उनकी शानो-शौकत से परिचित होने के लिए पूरे शहर की जनता की भारी भीड़ उमड़ती थी। विजयादशमी के दिन राजा नीलकंठ पक्षी उड़ाया करते थे। पुरोहितगण आकाश में नीलकंठ पक्षी के उड़ान की दिशा देखकर आने वाले वर्ष के लिए राजा, राजपरिवार एवं नगर की जनता के भविष्य का आकलन किया करते थे। राजा शिवप्रसाद सिंह के निधन के बाद उनकी संततियों ने भी इस परंपरा का निर्वाह किया। आज, बग्घी की सवारी एवं नीलकंठ पक्षी के उड़ाये जाने का प्रक्रम भले नहीं दिखता हो, लेकिन, पूजा उसी परंपरा एवं तौर-तरीके से हो रही है। राजपरिवार के लोग ही सर्वप्रथम पूजा करते हैं। राजागढ़ की मूर्तियों के विसर्जन के बाद शहर की अन्य मूर्तियां विसर्जित होती हैं।
झरिया ही नहीं, बल्कि कोयला क्षेत्र के लगभग सभी राजबाडिय़ों में अष्टमी के दिन सबसे पहले राजघरानों की ओर से छाग बलि दी जाती थी। दूर-दराज खदानों में काम करने वाले मजदूर और बाबू लोग अपनी-अपनी मनौतियों की छाग के लिए सुबह से मंदिर परिसर और बाहर में कतार लगाकर खड़े रहते थे।जिस दिन पूजा का समापन होता था, विभिन्न क्षेत्र के (झरिया, कतरास, बाघमारा, सिंदरी, निरसा आदि) के राजाओं का रथ निकलता था, जिनको न केवल खदान मजदूर, बल्कि क्षेत्र के मध्यम वर्ग तक के आम नागरिक और उनके बच्चे देखने घरों से निकलते थे। दुर्गापूजा का प्रभाव झरिया, डोमगढ़, सिंदरी, कतरास, निरसा, पंचेत, चंदनकियारी आदि क्षेत्रों के बाजारों में पंचमी से ही भीड़ बहुत बढ़ जाती थी। खदानों में काम करने वाले श्रमिकों और मध्यमवर्ग के कर्मचारियों से पूजा की तैयारी (घरेलू सामान, भोजन, कपड़ा आदि की खरीददारी) में इन क्षेत्रों के छोटे-बड़े बाजारों में बहुत भीड़ बढ़ जाती थी। चोर, पॉकेटमार, उच्चकों की काली करतूतों ने न केवल श्रमिक, बल्कि आम नागरिक कष्ट पाते थे।
उन दिनों दुर्गापूजा के अवसर पर मेला एवं जात्रा का आयोजन होता था। मेले में, आदिवासी लोग नए-नए कपड़े पहने, सिर में चुपड़कर तेल डाले, हाथ में बांसुरी, कमर में मृदंगनुमा वाद्ययंत्र बांधकर बजाते घूमते थे। झरिया, कतरास, बाघमारा आदि क्षेत्रों में भी वे मंडलियां आकर्षण का केंद्र होती थीं। छोटे-छोटे बच्चे कठघोड़ा, तारामाची जैसे झूलों का मजा लेते थे। पुरूषवर्ग कंधे पर बच्चों को बैठाकर मेला घुमाने ले जाते थे। इसके पीछे दो कारण होते थे। छोटे बच्चे बैठे-बैठे पिता के कंधे पर से मेले का आनंद उठाते थे। पिता भी आश्वस्त होते थे कि हाथ नहीं छूटेगा और संतान मेले में इधर-उधर कहीं नहीं गुम होगी।
झरिया राजग्राउंड में मीनाबाजार लगता था। चिडिय़ाघर, सर्कस वाले भी आते थे। उन दिनों का 'ग्रेट रोमन सर्कस' भी प्राय: झरिया राज ग्राउण्ड में आता था। रामलीला पार्टियां भी अपना मंचन करने आती थीं, जिसमें 'हनुमानजी' द्वारा अपनी लंबी पूंछ को लहराना सबसे ज्यादा लोकप्रिय था। सर्कस में खेल दिखानेवाले जानवर खासकर घोड़े, भालू आदि सुबह से ही बाजारों में घूमाए जाते थे। साथ ही, जोकर भी अपने ड्रेस में पूर्वाह्न में ही शहर का एक चक्कर लगा लेता था। इससे शो के समय भीड़ बढ़ती थी। मेले में खोए बच्चों, असहाय, बुजुर्गों की सहायता के लिए, नगर के उत्साही युवा लोग अलग मंच बनाकर, अहर्निंश लाउडस्पीकर से सूचनाएं देते रहते थे। उनके इस प्रयास से, प्राय: नब्बे प्रतिशत मामले उन्हीं मंचों से निबट जाते थे।
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