गोमो से कालका मेल पकड़ निकले थे नेताजी, फिरंगियों के हाथ फिर नहीं लगे
दिनेश वर्मा-मनोज स्वर्णकार गोमो नेताजी देश में उनको कौन नहीं जानता। जी हा आजादी के इस रण
दिनेश वर्मा-मनोज स्वर्णकार, गोमो:
नेताजी, देश में उनको कौन नहीं जानता। जी हा, आजादी के इस रणबाकुरे नेताजी सुभाष चंद बोस का धनबाद के गोमो से गहरा नाता रहा है। इसी गोमो रेलवे स्टेशन से नेताजी सुभाष चंद्र बोस 18 जनवरी 1941 को कालका मेल से अंग्रेजी हुकूमत की आखों में धूल झोंककर निकल गए थे। ताकि जंग-ए-आजादी को मुकाम पहुंचा सकें। गोमो की ऐतिहासिकता को ध्यान में रख अब सरकार ने इस स्टेशन का नाम नेताजी के नाम पर रखा है। 18 जनवरी को महानिष्क्रमण दिवस पर इस वर्ष रेल मंत्री पीयूष गोयल तीन रेलवे फाटक पर बने आरओबी का उद्घाटन ऑनलाइन करेंगे।
18 जनवरी 1941 को नेता जी कार संख्या बीएलए 7169 से तोपचाची होते हुए गोमो रेलवे स्टेशन पहुंचे थे। उसी रात वे हावड़ा-कालका मेल में सवार होकर निकल गए थे। 18 जनवरी का वह दिन आज भी गोमोवासियों के लिए श्रद्धा का पर्याय है। नेताजी रिसर्च ब्यूरो और रेलवे के सहयोग से महानिष्क्रमण दिवस की यादों को ताजा रखने के लिए गोमो स्टेशन के प्लेटफार्म संख्या 1-2 के मघ्य उनकी आदमकद कास्य प्रतिमा लगाई गई है। इस पर साफ शब्दों में लिखा है कि 18 जनवरी 1941 को नेताजी महानिष्क्रमण यात्रा के दौरान इसी स्टेशन से ट्रेन पकड़े थे। 2 जुलाई 1940 को हालवेल मूवमेंट के कारण नेताजी को भारतीय रक्षा कानून की धारा 129 के तहत गिरफ्तार किया गया था। तब डिप्टी कमिश्नर जान ब्रीन ने उन्हें गिरफ्तार कर प्रेसीडेंसी जेल भेजा था। जेल जाने के बाद उन्होंने ने आमरण अनशन किया। उनकी तबीयत खराब हो गई। तब अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें 5 दिसंबर 1940 को इस शर्त पर रिहा किया कि तबीयत ठीक होने पर पुन: गिरफ्तार किया जाएगा। नेताजी रिहा होकर एल्गिन रोड स्थित अपने आवास आए। केस की सुनवाई 27 जनवरी 1941 को थी, पर ब्रिटिश हुकूमत को 26 जनवरी को पता चला कि नेताजी तो कलकत्ता में नहीं हैं। दरअसल वे अपने खास नजदीकियों की मदद से 16-17 जनवरी की रात करीब एक बजे वेश बदलकर वहा से निकल गए थे। इस मिशन की योजना बाग्ला वोलेंटियर सत्यरंजन बख्शी ने बनाई। इसी के तहत नेताजी 18 जनवरी 1941 को अपनी बेबी अस्टिन कार से गोमो आए थे। इसका उल्लेख आमी सुभाष बोलछी पुस्तक में मिलता है। वे एक पठान के वेश में आए थे। लोको बाजार के डॉ. असदुल्लाह के पिता मो. अब्दुल्ला के पास वे पहुंचे थे। जो उन्हें पंपू तालाब होते हुए स्टेशन ले गए। गोमो से कालका मेल में सवार होकर गए तो उसके बाद कभी अंग्रेजों के हाथ नहीं लगे।