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तांत्रिकों का शक्तिपीठ मलूटी है अमेरिका से भी प्‍यारा, यहां का दुर्गापूजा है खास, भैंस से लेकर पाठा तक की दी जाती बलि

दुमका में स्थित मलूटी मंदिरों का गांव है। यहां दुर्गापूजा की कुछ अलग ही धूम होती है। इस दौरान देश-दुनिया के तमाम कोनों में रहने वाले ग्रामीणों के परिवारों के सदस्‍य यहां जुटते हैं और षष्‍ठी से लेकर दशमी तक की तमाम परंपराओं का पालन करते हैं। मलूटी को तांत्रिकों का शक्तिपीठ भी कहा जाता है क्‍योंकि प्रसिद्ध तांत्रिक बामा की पहली साधना भूमि मूलटी ही थी।

By Jagran NewsEdited By: Arijita SenUpdated: Fri, 20 Oct 2023 04:58 PM (IST)
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दुमका के मलूटी गांव में दुर्गा पूजा की धूम।

राजीव, दुमका। सात समंदरों की दूरी और उम्र की सीमा भी संपा मुखर्जी को दुर्गाेत्सव में मलूटी गांव आने से नहीं रोक पाती है। तकरीबन पांच दशक पूर्व ब्याह के बाद दुमका के मलूटी की रहने वाली संपा अमेरिका में रच-बस गई हैं।

अमेरिका से ज्‍यादा प्‍यारा है मलूटी: संपा

दुमका के गर्ल्स स्कूल और एसपी कालेज में पढ़ाई करने वाली संपा के पिता स्व.अरविंद बनर्जी अपने दौर के नामचीन अधिवक्ता हुआ करते थे।

भारतीय जनसंघ के संस्थापक स्व. श्याम प्रसाद मुखर्जी ने उन्हें उस दौर में हिंदू महासभा के दुमका जिला का अध्यक्ष बनाया था।

तीन साल बाद इस वर्ष दुर्गापूजा में मलूटी आई संपा मलूटी के बदले नजारे को देख कहती हैं कि समय के साथ बदलाव दिख रहा है मलूटी में। मलूटी उन्हें अमेरिका से ज्यादा प्यारा है। अपना देश भारत जैसा कोई नहीं है।

मंदिरों का गांव मलूटी है विश्‍व विख्‍यात

वह आगे कहती हैं, अमेरिका में हम सब वसुधैव कुटुंबम्ब का असली मतलब महसूस करते हैं। यहां अपनत्व का भाव चहुंओर बिखरा है, लेकिन अमेरिका में दिल खोल कर कोई नहीं जीता।

वहां अनुशासित जीवनशैली है लेकिन भारत आने पर लगता है कि जीवंतता तो यहीं है। मलूटी में हो रहे बदलावों पर संपा कहती हैं कि मंदिरों का गांव मलूटी की ख्याति ग्लोबल हो गया है।

इसकी खुशी है, लेकिन मंदिरों के जीर्णोद्धार के क्रम में इसकी असली विरासत से हुई छेड़छाड़ थोड़ी आहत करने वाली है।

दुर्गापूजा में खुद को यहां आने से नहीं रोक पाती संपा

संपा कहती हैं कि यह तो मलूटी की माटी और मां के प्रति आस्था ही है कि दुर्गोत्सव और काली पूजा में यहां खिंचे चले आते हैं। न बढ़ती हुई उम्र रोक पाती है और न हीं सात समंदर की दूरियां और गहराइयां।

कहती हैं कि यहां के सहजन की साग, तालाब और पोखर में उगने वाले सालुक के फूल, नीम का पत्ता, कच्चू का साग और भी कई चीजें अमेरिका में तो मेरे लिए दुर्लभ होती हैं।

दुर्गाेत्सव में मलूटी आकर परिवार के बीच रहना और पारंपरिक तरीके से अपनी रीति-रिवाज को जीना आयु को बढ़ा देती है।

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संपा के भाई शुभो श्याम मुखर्जी कोलकाता में रहते हैं। वह भी दुर्गापूजा में मलूटी आए हैं। कहते हैं कि मलूटी की पहचान धर्म और संस्कृति से है। यह गांव राजा-रजवारे और जमींदारों के कृतियों के लिए भी जाना जाता है।

कहते हैं कि गांव के राजार बाड़ी में आकर पुश्तैनी पृष्ठभूमि का एहसास होता है। परिवार में अभी भी कम से कम 56 सदस्य हैं, जो दुर्गाेत्सव या काली पूजा में मलूटी आते हैं। कहते हैं कि दुर्गोत्सव से लेकर काली पूजा तक देश-विदेश में बसे गांव के कई परिवार यहां जरूर आते हैं।

ऐतिहासिक ही नहीं सांस्कृतिक व धार्मिक पहचान भी है मलूटी का

दुमका जिले के शिकारीपाड़ा प्रखंड में स्थित है ऐतिहासिक मंदिरों का गांव मलूटी। स्थापत्य व टेराकोटा कलाकृति का अनूठा मिसाल।

चारचाला आकार में बनाए गए शिव के 108 मंदिर और इतने ही तालाब। हालांकि समय के साथ अब यहां मात्र 72 मंदिर और 95 तालाब शेष हैं।

मलूटी को तांत्रिकों का शक्तिपीठ भी कहा जाता क्योंकि गांव में मौलीक्षा मां का मंदिर है जो तारापीठ की मां तारा की बड़ी बहन के नाम से पुकारी जाती हैं।

प्रसिद्ध तांत्रिक बामा की पहली साधना भूमि मूलटी ही थी। मूलटी को ननकर राज्य के राजा बाज बसंत ने 17 वीं शताब्दी में बसाया था और मंदिरों का भी निर्माण करवाया था।

यहां के राजा राखाड़ चंद्र राय अपनी कुल देवी दुर्गा के रूप में मौलीक्षा देवी की ही पूजा-अर्चना करते थे। खास बात यह कि यहां दुर्गापूजा में एक साथ कई परंपराओं का निर्वहन किया जाता है।

तकरीबन तीन से चार हजार की आबादी वाला यह गांव पांच हिस्सों में बंटा है। जिसे राजार बाड़ी, मध्यम बाड़ी, सिकीड़ बाड़ी, छय तरफ और छोटा मध्यम के नाम से पुकारा जाता है।

भैंसे की बलि की परंपरा भी खास

गांव के सेवानिवृत्त शिक्षक कुमुदवरण राय बताते हैं कि मलूटी के राजारबाड़ी में राजा के वंशज व इनके स्वजन दुर्गा पूजा की परंपरा का निर्वहन करते हैं। यहां षष्ठी के दिन ही शाम में कलश स्थापना की परंपरा है।

षष्ठी की सुबह में पूरे गांव में ढोल-ढाक से देवी के बोधन का अनुष्ठान करते हैं। इसी दिन शाम में ही कलश स्थापना की जाती है।

पाठा की बलि भी दी जाती है

सप्तमी को पारंपरिक तरीके से नव पत्रिका महास्नान की परंपरा है। इसमें केला, हल्दी, कच्वी, मनका, बेल पत्र, जयंती, अनार, अशोक, धान के पत्तों को एक साथ गूंथकर विधि-विधान से तालाब में नव पत्रिका महास्नान कराया जाता है और फिर तीन कलश में जल लेकर दुर्गा मंडप में स्थापित किया जाता है। इस दिन पाठा की बलि की परंपरा है। इसके अगले दिन महाष्टमी के पूजन के बाद तिथि व समय के अनुसार के संधि पूजा करते हैं। संधि पूजा में भी पाठा की बलि दी जाती है।

महिलाएं खेलती हैं सिंदूर खेला

नवमी को बलि पूजन होता है। इस दिन छय तरफ में भैंसा की बलि दी जाती है। इसके अलावा भेड़ा, पाठा, कोहड़ा व गन्ना की भी बलि देने की परंपरा है।

दसवीं के दिन मां को दही-चूड़ा का भोग लगाकर शाम में विदाई की जाती है। इस दौरान गांव की महिलाएं सिंदूर खेला की परंपरा का भी निर्वहन करती हैं।

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