Esho Hey Boishakh : कल दुमका में गूंजेगा ऐशो हे बैसाख, लजीज व्यंजनों से सजेंगी थालियां
Esho Hey Boishakh देश में गुढ़ी पड़वा पर्व मनाकर हिंदू नववर्ष का स्वागत धूमधाम से किया जाता है। हालांकि कुछ राज्यों में यह ना सिर्फ संस्कृति का हिस्सा है बल्कि लजीज व्यंजनों के उत्सव के तौर पर भी मनाया जाता है। इसी क्रम में झारखंड में बंगाली समिति बांग्ला नववर्ष के मद्देनजर ऐशो हे बैसाख का आयोजन करने जा रही है।
राजीव, दुमका। बांग्ला नववर्ष (Bangla New Year Celebration) ऐतिहासिक, सांस्कृतिक व आध्यात्मिक पहलुओं के महत्व का ही नहीं बल्कि लजीज व्यंजनों का भी उत्सव है। झारखंड बंगाली समिति के दयामाजि कहते हैं कि बंगाली समुदाय (Bengali Community) व बंगभाषी गीत, संगीत व नृत्य ही नहीं बल्कि खान-पान के भी शौकीन होते हैं।
वह कहते हैं कि मान्यता है कि गौड़ आधुनिक पूर्व व पश्चिम बंगाल के राजा शशांक ने सर्वप्रथम बांग्ला नववर्ष की शुरुआत की थी। बारह नक्षत्रों के अनुसार, बांग्ला में बारह महीनों का नाम रखा गया है। बांग्ला वर्ष पंजी ख्रिस्ट पंजी से 593 वर्ष बाद प्रारंभ हुई है, जो महाराज शशांक का काल था।
बांग्ला वर्ष पंजी मूलत: एक सौर पंजी है लेकिन बाद में बंगाल के सुल्तान अलाउद्दीन हुसैन साह और सम्राट अकबर ने चिंद्र मास के अनुसार वर्ष पंजी में फसल चक्र के अनुसार कुछ परिवर्तन कर सूबे बंगाल तबके बांग्लादेश और पश्चिम बंग में फसली सन के नाम से लागू किया गया।
चितल मछली।
इस पंजी को हिंदू पर्व और अंग्रेजी लिप वर्ष के साथ सामंजस्य बनाए रखने के लिए बैशाख से आश्विन तक 31 दिनों, कार्तिक से माघ और चैत्र मास 30 दिनों का और फाल्गुन माह 29 दिनों का किया गया है। लिप वर्ष में फाल्गुन माह 30 दिनों का किया गया।बंगभाषी समुदाय के लिए बैसाख माह को एक पवित्र और आध्यात्मिक माह के रूप में मान्यता है। वर्ष के पहले दिन को पोयला बैशाख के रूप में मनाया जाता है।
इस दिन से तमाम वित्तीय लेन-देन का हिसाब रखने के लिए हाल खाता अर्थात नया हिसाब बही खोलने की परंपरा है। सभी व्यवसायिक प्रतिष्ठानों में गणपति और लक्ष्मी पूजा के पश्चात हिसाब-किताब का नवीकरण हाल खाता के माध्यम से किया जाता है।पहला बैशाख की शाम को हर बंग भाषियों के गांव में परंपरागत लाट शाला या नट्टशाला में श्रीकृष्ण गौरांग का घट स्थापना कर संपूर्ण माह भर रोज शाम को गांव के ही कीर्तन मंडली के द्वारा श्रीकृष्ण लीला कीर्तन गान आयोजित करने की परंपरा अब भी कायम है।
यह लीला कीर्तन लाट शाला से प्रारंभ होकर गांव के सभी गलियों से गुजरता है और पुनः लाट शाला में जलार्पण के बाद समाप्त होता है। इसे कुली कीर्तन भी कहा जाता है। इस दौरान प्रतिदिन गांव के एक या अधिक परिवारों के द्वारा छोला-गुड़ का भोग की परंपरा है।माह के अंतिम दिन कीर्तन समाप्त होने पर धुलोट और मच्छव महोत्सव का आयोजन कर खिचड़ी भोग लगाया जाता है।
घाट पर दिया प्रवाहित करते लोग। (फाइल फोटो)
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