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जब नेहरू से नाराज होकर राजा ने बनाई थी अपनी पार्टी... बिहार-झारखंड राजनीति में रामगढ़ राज परिवार का कुछ ऐसा रहा दबदबा

Jharkhand Politics बिहार-झारखंड की राजनीति में राज परिवारों की धमक रही है। अब भी राजघरानों से संबंध रखने वाले कई चेहरे राजनीति में हैं। राजनीति में रामगढ़ राज घराने का वर्चस्व तो आजादी के बाद भी ढाई दशक तक बना रहा। देश को जब आजादी मिलीतो एकीकृत बिहार के पूरे छोटानागपुर इलाके में राजा कामाख्या नारायण सिंह का दबदबा था।

By Jagran News Edited By: Arijita Sen Updated: Fri, 29 Mar 2024 09:11 AM (IST)
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तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के साथ ललिता राज लक्ष्मी। (फाइल फोटो)
विकास कुमार/प्रमोद, हजारीबाग। एकीकृत बिहार के समय से ही बिहार-झारखंड की राजनीति में राज परिवारों की धमक रही है। हाल के वर्षों में राजनीति पर इनकी पकड़ कुछ ढीली हुई, लेकिन अब भी राजघरानों से संबंध रखने वाले कई चेहरे राजनीति में हैं।

राजनीति में रामगढ़ राज घराने का वर्चस्‍व

आजादी के बाद देश की राजनीति में रामगढ़ राज घराने का वर्चस्व लगभग ढाई दशक तक बना रहा। हाल यह था कि जहां-जहां राजा पार्टी का हेलीकाॅप्टर चक्कर लगाता था, वहां पार्टी की जीत सुनिश्चित हो जाती थी।

यह भी गौरतलब है कि आजादी के बाद देश में पहली बार क्षेत्रीय पार्टी के तौर पर राजा पार्टी ने ही प्रचार में हेलिकाॅप्टर का उपयोग किया था।

देश को जब आजादी मिली,तो एकीकृत बिहार के पूरे छोटानागपुर इलाके में राजा कामाख्या नारायण सिंह का दबदबा था। उनके इस्टेट नागपुर खुर्द (छोटानागपुर) का वर्ष 1368 से 1955 तक इस वंश के 19 राजाओं का 587 वर्ष तक शासन रहा।

राजा ने बनाई थी अपनी पार्टी

रामगढ़ राज परिवार के रूप में विख्यात इस राज परिवार के अंतिम शासक राजा बहादुर कामाख्या नारायण सिंह थे। आजादी के बाद जब आम चुनाव हुआ तो रामगढ़ के राजा बहादुर कामाख्या नारायण सिंह ने अपनी पार्टी बनाई। नाम था-छोटानागपुर संथाल परगना जनता पार्टी (सीएनएसपीजेपी)। हालांकि आम लोगों के नाम से यह पार्टी-राजा पार्टी के नाम से ही जानी जाती थी।

राजा पार्टी का जलवा ऐसा था कि उनकी पत्नी ललिता राज लक्ष्मी तीन चुनावों में तीन अलग संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ीं और शानदार जीत हासिल कीं। पहली बार उन्होंने 1957 में हजारीबाग संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़कर कांग्रेस के उम्मीदवार बीजेड खान को पराजित किया था।

तब उन्हें कुल मत का 67.7 प्रतिशत यानी 78,486 वोट हासिल हुए थे तो कांग्रेस को सिर्फ 27,894 वोट मिले थे। 1962 में उन्होंने अपनी सीट बदलते हुए औरंगाबाद से चुनाव लड़ा। यहां कांग्रेसी उम्मीदवार रमेश प्रसाद सिंह को 9761 वोट से पराजित कर दिया।

नेहरू से नाराज होकर बनाई थी अपनी पार्टी

राजा कामाख्या नारायण सिंह आजादी मिलने के पहले तक कांग्रेस में रहकर जनजागरण में जुटे थे, लेकिन कहा जाता है कि कांग्रेस के तत्कालीन वरिष्ठ नेता जवाहर लाल नेहरू से जब वे एक बार मिलने गए थे तो नेहरू ने उन्हें काफी देर इंतजार करवाया, जिससे क्षुब्ध होकर वह नेहरू से बिना मिले ही वापस लौट गए और 1946 में छोटानागपुर संताल परगना जनता पार्टी का गठन किया। बाद में 1960 में उन्होंने अपनी पार्टी का राजगोपालाचारी की स्वतंत्र पार्टी में अपनी पार्टी का विलय कर दिया।

बिहार में 1962 तक उनकी पार्टी के सात सांसद हो गए और 50 विधायक के साथ राज्य विधानसभा में विपक्ष के नेता बने। 1967-68 में बिहार में जब पहली बार गैर कांग्रेसी दलों की सरकार बनी, तो राजा रामगढ़ की पार्टी की अहम भूमिका थी। उनके परिवार के ही भाई कुंवर बंसत नारायण सिंह, माताश्री शशांक मंजरी देवी, धर्मपत्नी ललिता राजलक्ष्मी, पुत्र टिकैट इंद्र जितेंद्र नारायण सिंह कई बार सांसद और विधायक बने।

वहीं राजा बहादुर कामाख्या नारायण सिंह, कुंवर बसंत नारायण सिंह, ललिता राजलक्ष्मी बिहार सरकार में मंत्री बने। उनके सहयोग से चुनाव जीते कैलाशपति सिंह (हजारीबाग) और गोपीनाथ सिंह (रंका-पलामू) बिहार सरकार में मंत्री बन गए थे। इस पूरे क्षेत्र में जिसे राज परिवार का समर्थन मिला, वह जीता।

कांग्रेस ने बनाई विरोध में लहर, फिर भी लहराया रामगढ़ी परचम

आजादी के पहले और बाद में जिस समय पूरे देश में कांग्रेस की तूती बोलती थी, उसके दिग्गज नेता राजा बहादुर कामाख्या नारायण सिंह के विरुद्ध कैंप करते थे, फिर भी राजा चुनाव जीत जाते थे। उनका प्रभाव इतना था कि उनकी पार्टी के उम्मीदवार धनबाद सहित आरा और छपरा से भी चुनाव जीतते थे।

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